धैर्य, क्षमा, सत्यवादिता के प्रतीक”धर्मराज युधिष्ठिर”

Last Updated on July 24, 2019 by admin

महाराज युधिष्ठिर धैर्य, क्षमा, सत्यवादिता आदि दिव्य गुणों के केन्द्र थे। धर्म के अंश से उत्पन्न होने के कारण ये धर्म के गूढ़ तत्वों के व्यावहारिक व्याख्याता तथा भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। बचपन में ही इनके पिता पाण्डु स्वर्गवासी हो गये, तभी से ये धृतराष्ट्र को अपने पिता के समान मानकर उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। अपने सदाचार और विचारशीलता के कारण युधिष्ठिर बचपन में ही लोकप्रिय हो गये और प्रजा इन्हें अपने भावी राजा के रूप में देखने लगी। दुर्योधन इनकी लोकप्रियता से जलता था और पाण्डवों का पैतृक अधिकार छीनकर स्वयं राजा बनना चाहता था। इसलिए उसने पाण्डवों को जलाकर मार डालने के उद्देश्य से वारणावत में लाक्षागृह का निर्माण कराया। उसने अपने प्रज्ञाहीन पिता को बहलाकर कुन्ती सहित पाण्डवों को वारणावत भेजने का आदेश दिलवाया। अपने ताऊ की आज्ञा समझकर युधिष्ठिर अपनी माता और अपने भाइयों के साथ वारणावत चले गये। किसी तरह विदुर की सहायता से पाण्डवों के प्राण बचे। इधर दुर्योधन ने हस्तिनापुर के राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।

द्रौपदी स्वयंवर में पाण्डवों की उपस्थिति का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र ने विदुर को भेजकर उन्हें बुलवा लिया। उन्होंने युधिष्ठिर को आधा राज्य देकर खाण्डवप्रस्थ में रहने का आदेश दिया। युधिष्ठिर ने उनके आदेश को सहर्ष स्वीकार कर लिया और खाण्डवप्रस्थ का नाम बदलकर इन्द्रप्रस्थ रखा तथा उसे अपनी राजधानी बनाकर विशाल राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े राजाओं ने आकर युधिष्ठिर को बहुमूल्य उपहार दिये और उन्हें अपना सम्राट स्वीकार किया।

दुर्योधन पाण्डवों के इस उत्कर्ष को देखकर ईर्ष्या से जल उठा और उसने कपट-द्यूत में छलपूर्वक पाण्डवों का सर्वस्व हरण कर लिया। कुलवधू द्रौपदी के चीर हरण जैसी घिनौनी हरकत की गई। अर्जुन और भीम जैसे योद्धा कुरुकुल का संहार करने के लिए बैठे थे, फिर भी धर्मराज ने धर्मके नाम पर सब कुछ सुन लिया और सह लिया। जिस दुर्योधन ने पाण्डवों का सर्वस्व अपहरण करके उन्हें दर-दर का भिखारी बना दिया, वही जब अपने भाइयों और कुरुकुल की वधुओं के साथ चित्रसेन गन्धर्व के द्वारा बन्दी बना लिया गया, तब अजातशत्रु युधिष्ठिर ने अपने भाइयों का आक्रमण आदेश देते हुए कहा- आपस में विवाद होने पर कौरव सौ और हम पांच भाई हैं, परंतु दूसरों का सामना करने के लिए तो हमें मिलकर एक सौ पांच होना चाहिए। पुरुष सिंहो उठो और जाओ! कुल के उद्धार के लिए दुर्योधन को बलपूर्वक छुड़ाकर ले आओ। अपने शत्रु के साथ भी इस प्रकार का सद्व्यवहार महाराज युधिष्ठिर की अजातशत्रु और धर्मप्रियता की सीमा है।

महाराज युधिष्ठिर निष्काम धर्मात्मा थे। एक बार इन्होंने अपने भाइयों और द्रौपदी से कहा- मैं धर्म का पालन इसलिए नहीं करता कि मुझे उसका फल मिले। फल के लिए धर्माचरण करने वाले व्यापारी हैं, धार्मिक नहीं। वन में यक्ष रूपी धर्म से इन्होंने अपने छोटे भाई नकुल को जिलाने की प्रार्थना की। यक्ष के यह पूछने पर कि तुम अर्जुन और भीम जैसे योद्धाओं को छोड़कर नकुलको क्यों जिलाना चाहते हो? युधिष्ठिर ने कहा- मुझे राज्य की चिंता नहीं है। मैं चाहता हूं कि मेरी कुन्ती और माद्री दोनों माताओं का एक-एक पुत्र जीवित रहे। युधिष्ठिर की इस सद्बुद्धि पर यक्ष ने उनके सभी भाइयों को जीवित कर दिया।…!!!

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