रोचक,मधुर व ज्ञानवर्धक है दत्त और सिद्ध का संवाद

Last Updated on July 24, 2019 by admin

एक राजा कपिल मुनि का दर्शन, सत्संग किया करता था । एक बार कपिल के आश्रम पर राजा के पहुँचने के उपरान्त विचरते हुए दत्त, स्कन्द, लोमश तथा कुछ सिद्ध भी पहुँचे । वहाँ इन संतजनों के बीच ज्ञानगोष्ठी होने लगी । एक कुमार सिद्ध बोला: “जब मैं योग करता हूँ तब अपने स्वरुप को देखता हूँ।”

दत्त: “जब तू स्वरुप का देखनेवाला हुआ तब स्वरुप तुझसे भिन्न हुआ । योग में तू जो कुछ देखता है सो दृश्य को ही देखता है। इससे तेरा योग दृश्य और तू दृष्टा है। अध्यात्म में तू अभी बालक है। सत्संग कर जिससे तेरी बुद्धि निर्मल होवे।”

कुमार: “ठीक कहा आपने । मैं बालक हूँ क्योंकि मन, वाणी, शरीर में सर्व लीला करता हुआ भी मैं असंग चैतन्य, हर्ष शोक को नहीं प्राप्त होता इसलिए बालक हूँ। परंतु योग के बल से यदि मैं चाहूँ तो इस शरीर को त्याग कर अन्य शरीर में प्रवेश कर लूँ । किसीको शाप या वरदान दे सकता हूँ। आयु को न्यून अधिक कर सकता हूँ। इस प्रकार योग में सब सामर्थ्य आता है । ज्ञान से क्या प्राप्ति होती है ?”

दत्त: “अरे नादान ! सभा में यह बात कहते हुए तुझको संकोच नहीं होता ? योगी एक शरीर को त्यागकर अन्य शरीर को ग्रहण करता है और अनेक प्रकार के कष्ट पाता है । ज्ञानी इसी शरीर में स्थित हुआ सुखपूर्वक ब्रह्मा से लेकर चींटी पर्यंत को अपना आपा जानकर पूर्णता में प्रतिष्ठित होता है । वह एक काल में ही सर्व का भोक्ता होता है, सर्व जगत पर आज्ञा चलानेवाला चैतन्यस्वरुप होता है । सर्वरुप भी आप होता है और सर्व से अतीत भी आप होता है । वह सर्वशक्तिमान होता है और सर्व अशक्तिरुप भी आप होता है । सर्व व्यवहार करता हुआ भी स्वयं को अकर्त्ता जानता है।
सम्यक् अपरोक्ष आत्मबोध प्राप्त ज्ञानी जिस अवस्था को पाता है उस अवस्था को वरदान, शाप आदि सामर्थ्य से संपन्न योगी स्वप्न में भी नहीं जानता ।”

कुमार: “योग के बल से चाहूँ तो आकाश में उड़ सकता हूँ।”

दत्त: “पक्षी आकाश में उड़ते फिरते हैं, इससे तुम्हारी क्या सिद्धि है?”
कुमार: “योगी एक एक श्वास में अमृतपान करता है, ‘सोSहं’ जाप करता है, सुख पाता है।”

दत्त: “हे बालक ! अपने सुखस्वरुप आत्मा से भिन्न योग आदि से सुख चाहता है? गुड़ को भ्रांति होवे तो अपने से पृथ्क् चणकादिकों से मधुरता लेने जाय । चित्त की एकाग्रतारुपी योग से तू स्वयं को सुखी मानता है और योग के बिना दु:खी मानता है? ज्ञानी योग अयोग दोनों को अपने दृश्य मानता है। योग अयोग सब मन के ख्याल हैं। योगरुप मन के ख्याल से मैं चैतन्य पहले से ही सुखरुप सिद्ध हूँ। जैसे, अपने शरीर की प्राप्ति के लिए कोई योग नहीं करता क्योंकि योग करने से पहले ही शरीर है, उसी प्रकार सुख के लिए मुझे योग क्यों करना पड़े ? मैं स्वयं सुखस्वरुप हूँ।”

कुमार: “योग का अर्थ है जुड़ना । यह जो सनकादिक ब्रह्मादिक स्वरुप में लीन होते हैं सो योग से स्वरुप को प्राप्त होते हैं।”

दत्त: “जिस स्वरुप में ब्रह्मादिक लीन होते हैं उस स्वरुप को ज्ञानी अपना आत्मा जानता है । हे सिद्ध ! मिथ्या मत कहो । ज्ञान और योग का क्या संयोग है ? योग साधनारुप है और ज्ञान उसका फलरुप है । ज्ञान में मिलना बिछुड़ना दोनों नहीं । योग कर्त्ता के अधीन है और क्रियारुप है।”

कपिल: “आत्मा के सम्यक् अपरोक्ष ज्ञानरुपी योग सर्व पदार्थों का जानना रुप योग हो जाता है। केवल क्रियारुप योग से सर्व पदार्थों का जानना नहीं होता, क्योंकि अधिष्ठान के ज्ञान से ही सर्व कल्पित पदार्थों का ज्ञान होता है ।

आत्म अधिष्ठान में योग खुद कल्पित है । कल्पित के ज्ञान में अन्य कल्पित का ज्ञान होता है । स्वप्नपदार्थ के ज्ञान से अन्य स्वप्नपदार्थों का ज्ञान नहीं परंतु स्वप्नदृष्टा के ज्ञान से ही सर्व स्वप्नपदार्थों का ज्ञान होता है ।
अत: अपनेको इस संसाररुपी स्वप्न के अधिष्ठानरुप स्वप्नदृष्टा जानो।”

सिद्धों ने कहा : “तुम कौन हो?”

दत्त: “तुम्हारे ध्यान अध्यान का, तुम्हारी सिद्धि असिद्धि का मैं दृष्टा हूँ।”

राजा: “हे दत्त ! ऐसे अपने स्वरुप को पाना चाहें तो कैसे पावें?”

दत्त: “प्रथम निष्काम कर्म से अंत: करण की शुद्धि करो। फिर सगुण या निर्गुण उपासनादि करके अंत: करण की चंचलता दूर करो । वैराग्य आदि साधनों से संपन्न होकर शास्त्रोक्त रीति से सद्गुरु के शरण जाओ । उनके उपदेशामृत से अपने आत्मा को ब्रह्मरुप और ब्रह्म को अपना आत्मारुप जानो । सम्यक् अपरोक्ष आत्मज्ञान को प्राप्त करो ।

हे राजन् ! अपने स्वरुप को पाने में देहाभिमान ही आवरण है। जैसे सूर्य के दर्शन में बादल ही आवरण है। जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति में, भुत भविष्य वर्त्तमान काल में, मन वाणीसहित जितना प्रपंच है वह तुझ चैतन्य का दृश्य है । तुम उसके दृष्टा हो । उस प्रपंच के प्रकाशक चिद्घन देव हो ।”

अपने देवत्व में जागो । कब तक शरीर, मन और अंत : करण से सम्बन्ध जोड़े रखोगे ? एक ही मन, शरीर, अंत : करण को अपना कब तक माने रहोअगे? अनंत अनंत अंत : करण, अनंत अनंत शरीर जिस चिदानन्द में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं वह शिवस्वरुप तुम हो । फूलों में सुगन्ध तुम्हीं हो । वृक्षों में रस तुम्हीं हो । पक्षियों में गीत तुम्हीं हो । सूर्य और चाँद में चमक तुम्हारी है । अपने “सर्वाSहम्” स्वरुप को पहचानकर खुली आँख समाधिस्थ हो जाओ । देर न करो । काल कराल सिर पर है ।

ऐ इन्सान ! अभी तुम चाहो तो सूर्य ढलने से पहले अपने जीवनतत्त्व को जान सकते हो । हिम्मत करो … हिम्मत करो …।

Sant Shri Asaram ji Ashram (Ishvar Ki Or Book)

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