नवजात शिशु के रोग की पहचान के तरीके | Navjat Sisu Ke Rog ki Pehchan ke Tarike

Last Updated on July 22, 2019 by admin

मुह से हसे कहकर न बता सकनेवाले छोटे बालकों के भीतरी रोगों के पहचानने की तरकीबें ।

नवजात शिशु के रोग की पहचान कैसे करें :

(१)  अगर बालक के किसी अङ्ग-प्रत्यङ्ग में वेदना होती है, तो वह अपने हाथ से उस जगह को बारम्बार छूता है। अगर कोई दूसरा आदमी वहाँ हाथ लगाता है, तो बालक रोने लगता है।

(२)  अगर बालक के सिर में दर्द होता है, तो बालक अपनी आँखें बन्द रखता है। इसके सिवा वह अपने मस्तक को खड़ा नही रखता, गर्दन को गिराये रखता है तथा सिरको धुनता और टकराता भी है। सिरमे दर्द होनेसे सिरका चमड़ा सिकुड़ जाता है। बालक बार-बार सिरमे हाथ लगाता और कान खीचता है । ( और पढ़ेशिशु का दूध की उल्टी करना इसके कारण और उपचार )

(३)  अगर बालकके मूत्राशयमे पीड़ा होती है, तो बालक पेशाब रुकने से दुखी रहता है और खाता-पीता नही

(४) अगर बालक के मल और मूत्र दोनों रुक गये हों, विह्वलता और पेट पर अफारा हो, ऑते बोलती हो,तो समझना चाहिये कि, बालक के पेटमे रोग है। ( और पढ़ेबच्चों के पेट के कीड़ों को दूर करेंगे यह 14 घरेलू नुस्खे)

(५)  अगर बालक हर समय रोता ही रोता हो, तो उसके सब शरीर में रोग समझना चाहिये । ( और पढ़ेबच्चों के रोने के मुख्य कारण व घरेलु उपचार )

(६)  बालक के कम या ज्यादा रोने से तकलीफ की कमी और ज़ियादती समझनी चाहिये। अगर बालक कम रोवे या धीरे धीरे रोवे, तो. कम तकलीफ समझनी चाहिये । अगर जियादा रोवे और जोर-जोर से चिल्लाकर रोवे, तो अधिक पीड़ा समझनी चाहिये ।

(७)  अगर बालक अपने होठ और जीभको डसे तथा मुट्ठियों को भीचे, तो उसके हृदयमें पीड़ा समझनी चाहिये ।

(८)  अगर बालकका पाखाना पेशाब बन्द हो तथा वह उद्वेग से दिशाओ को देखे, तो उसकी बस्ति (पेड़) और गुदा में पीड़ा समझनी चाहिये । ( और पढ़ेबच्चों की सर्दी तथा खांसी को दूर करने के 12 सबसे असरकारक घरेलु उपाय )

(६ ) अगर बालक को पेशाब न हो, प्यास अधिक लगे और मूर्च्छा हो, तो बालक के पेड़ में पीड़ा समझनी चाहिये ।

(१०)  अगर तन्दुरुस्त बालक रह-रहकर बार-बार रो उठे, तो उसके पेट में दर्द समझना चाहिये । ( और पढ़ेबच्चों का बुखार दूर करेंगे यह 22 सबसे कामयाब घरेलु उपचार)

(११)  अगर दूध पीने वाले बालक को प्यास लगती है, तो वह अपनी जीभ बाहर निकालता है।

(१२) अगर बालक को जुकाम हो जाता है, उसकी नाक बन्द हो जाती है, तो वह मुह से साँस लेने के लिये, बारम्बार स्तनको छोड़ देता है और साँस लेकर फिर दूध पीने लगता है।

(१३) अगर सॉस लेते समय बालक की नाकका छेद बड़ा हो जाय और नाक हिले, तो समझना चाहिये कि, बालक को सॉस लेने में बड़ा कष्ट होता है और उसको खाँसी से बड़ी तकलीफ है।

(१४)  अगर बालकके ज्वर की परीक्षा करनी हो, तो थर्मामीटर लगाना चाहिये । बालककी नाड़ी स्वभावसे ही बहुत तेज चला करती है, इसलिये धोखा होने का डर रहता है । जो अनुभवी वैद्य होते है, वे तो धोखा नहीं खाते, पर नौसिखिये धोखा खा सकते हैं । थर्मामीटरसे किसी तरहका धोखा नहीं हो सकता।

(१५)  बालकों का पेट स्वभाव से ही कुछ बड़ा होता है। अगर हद से जियादा मोटा हो, तो समझना चाहिये कि यकृत या प्लीहा का विकार है अथवा अजीर्ण है । जो हो, उसका निश्चय करके चिकित्सा करनी चाहिये।

Leave a Comment

Share to...