लौह भस्म के फायदे | Lauh Bhasma Benefits in Hindi

Last Updated on July 22, 2019 by admin

परिचय :

लौह भस्म के सेवन से अतुल बल-वीर्य और कांति की वृद्धि होती है।

लौह भस्म के फायदे ,गुण और उपयोग : lauh bhasma ke fayde / labh

1- लौह भस्म-पाण्डु, रक्त -विकार, उन्माद, धातु- दौर्बल्य,संग्रहणी, मंदाग्नि, प्रदर, मेदोवृद्धि, कृमि, कुष्ठ, उदर रोग, आमविकार, क्षय, ज्वर, हृदयरोग, बवासीर, रक्तपित्त, अम्लपित्त, शोथ आदि अनेक रोगों में अत्यन्त गुणदायक है।

2- यह रसायन और बाजीकरण है। लौह भस्म मनुष्य की कमजोरी दूर कर शरीर को हृष्ट-पुष्ट बना देती है। भारतीय रसायनों में लौह भस्म का प्रयोग सबसे प्रधान है। यह रक्त को बढ़ाने और शुद्ध करने के लिए सर्व प्रसिद्ध औषध है।

3-हमारे प्राचीन वैद्यक ग्रंथों में और आधुनिक (आजकल के) अंग्रेजी वैद्यक में प्रायः सब रोगों | की औषध योजना में लौह का उपयोग किया जाता है। अनुपान की भिन्नता से यह सब रोगों को नाश करती है। फिर भी कफयुक्त खाँसी, दमा, जीर्ण-ज्वर और पाचन-क्रिया बिगड़ने से उत्पन्न हुई मंदाग्नि, | अरुचि, मलबद्धता, कृमि आदि रोगों में यह विशेष फायदा करती है। पौष्टिक, शक्तिवर्द्धक, कान्तिदायक और कामोत्तेजक आदि गुण भी इसमें विशेष रूप से है।

4- लौह भस्म किसी भी प्रकार का हो, सेवन करने से पूर्व यदि दस्त साफ आता हो, तो अच्छा है, नहीं तो इस भस्म के सेवन-काल में रात को सोते समय त्रिफला चूर्ण में मिश्री मिला कर दूध के साथ सेवन करें। इससे दस्त साफ होता रहता है, और इसकी गर्मी भी नहीं बढ़ने पाती क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि लौह भस्म के सेवन-काल में दस्त कब्ज हो जाता है, जिससे गर्मी भी बढ़ जाती है। इसी को दूर करने के लिए त्रिफला और दूध का सेवन किया जाता है।

5- लौह भस्म रक्ताणुवर्द्धक और पाण्डुरोगनाशक है। पाण्डु चाहे किसी भी कारण से उत्पन्न हुआ हो, रक्ताणुओं की कमी होकर श्वेत कणों की वृद्धि हो जाना ही “पाण्डू रोग” कहलाता है। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि कुछ रोज तक शरीर के उपरी भाग में फीकापन दिखाई पड़ता है, और बाद में पुनः लाली छा जाती है, किंतु यह वास्तविक पाण्डु रोग नहीं है। वास्तविक पाण्डु रोग तो वही है, जिसमें श्वेत-कणों के प्रभाव से शरीर पर बराबर फीकापन बना रहे चमडी रूक्ष (सूखी ) हो जाय, रंजक पित्त | (जिसके द्वारा रक्त में लाली बनी रहती है ) का नाश हो जाय, इत्यादि लक्षण होने पर पाण्डु रोग समझना चाहिए और ऐसे पाण्डु रोग में लौह भस्म से बहुत फायदा होता है।

पाण्डु रोग में भी पित्तजन्य अर्थात् पित्त की दृष्टि से होनेवाला पाण्डु रोग और हलीमक में इसका विशेष उपयोग होता है। कृमिजन्य या धातु-क्षीणताजन्य पाण्डु रोग में कृमिघ्न और पौष्टिक औषधियों के मिश्रण के साथ लौह भस्म देने से बहुत फायदा होता है। आँतों में पैदा होने वाले कीटाणुओं से भी पाण्डु रोग की उत्पत्ति होती है। उसमें वायविडंग के चूर्ण और अजवायन के फूल के साथ लौह भस्म का प्रयोग करना बहुत श्रेष्ठ है। कारण लौह भस्म का रक्त पर बहुत शीघ्र प्रभाव होता है। यह श्वेताणुओं को कम कर रक्ताणुओं (रक्त-कणों) को बढ़ाता है। अतएव पाण्डु रोग में इसके प्रयोग से बहुत शीघ्र फायदा होता है।

6- धातुविकार – वातवाहिनी या मांसपेशी अथवा कण्डराओं (सिराओं) के संकोच के कारण शरीर के उन-उन-प्रदेशों में विशेष दर्द होने लगे, तो कान्त लौह भस्म, जो सिंगरफ के द्वारा भस्म किया हुआ हो, उसका प्रयोग करना अच्छा है।

7- ज्यादा रक्तस्त्राव होने से रक्तवाहिनी सिरा, मस्तिष्क आदि में ज्यादा शून्यता आ गयी हो, साथ ही थोड़ी-थोड़ी पीड़ा भी हो, घबराहट, कमजोरी से चक्कर आना आदि लक्षण, उत्पन्न होने पर
लौह भस्म के सेवन से बहुत शीघ्र लाभ होता है।

8- यदि रक्त-पित्त में रक्तस्त्राव के बाद उपरोक्त उपद्रव हुए हों, तो लौह भस्म रक्तचन्दनादि कादा या लोहासव के साथ देना अच्छा होगा, क्योंकि यह भस्म पित्त-विकार दूर कर रक्त में गाढ़ापन एवं रक्तवाहिनी शिरा में चेतना (शक्ति) पैदा कर स्वाव को रोक देती है, फिर इससे होने वाले उपद्रव अपने आप शान्त हो जाते है ।

9- किसी कारण से पित्त विकृत होकर आँखें लाल हो जायें, हाथ-पैरों में पसीना आने लगे, सिर में भी ज्यादा पसीना आवे, मुँह-लाल और पसीने से भीगा हुआ रहे, मन में अशांति (व्याकुलता), रक्तवाहिनी शिरा में रक्त का संचार जल्दी-जल्दी हो, जिससे सम्पूर्ण शरीर गर्म हो जाय और हृदय तथा नाड़ी की गति में वृद्धि हो, त्वचा का स्पर्श करने से ज्यादा गरमी मालूम हो, ऐसे समय में लौह भस्म देने से बढ़ा हुआ पित्त शांत होकर इससे होने वाले उपद्रव भी शान्त हो जाते हैं। क्योंकि लौह भस्म पित्त-विकार शामक है और इसका प्रभाव रक्त और पित्त पर ज्यादा होता है, इसलिए यह बढे हुए पित्त को तथा इसके द्वारा विकृत हुए रक्त को शीघ्र शान्त कर देती है।

10- पाचक पित्त की विकृति में लौह भस्म देने से बहुत उपकार होता है, क्योंकि तौह भस्म पाचक पित्त के विकार को दूर कर उसे प्रदीप्त कर देती है, जिससे अपचन आदि दोष मिट जाते हैं और अन्न ठीक तरह से पचने लगता है। यह कार्य लौह भस्म के द्वारा अच्छी तरह होता है।

11- अतिसार अथवा संग्रहणी में पक्वाशय और ग्रहणी एकदम कमजोर हो जाने से बहुत पतले दस्त बार-बार आने लगते हैं, ऐसे समय में लौह भस्म शक्ति बढ़ाने के लिए दी जाती है। यदि संग्रहणी में बल -मांसादि क्षीण होकर कमजोरी आ गयी हो, तो लौह भस्म देने से अच्छा फायदा होता है, क्योंकि लौह शक्तिवर्धक है।

12- खूनी बवासीर की प्रारंभिक अवस्था में लौह भस्म का उपयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे रक्त रुकने के बजाय और गिरने लगता है, परन्तु पित्त-प्रधान या वात प्रधान खूनी बवासीर के प्रारम्भ में जब रक्त गिरने के कारण ज्यादा कमजोरी मालूम होती हो, चक्कर आता हो, शरीर में गर्मी ज्यादा बनी रहती हो, तो ऐसी हालत में लौह भस्म देना अच्छा है, क्योंकि अधिक रक्तस्त्राव होने से रक्तवाहिनी सिरायें एवं शरीर पोषक धातुएँ कमजोर हो जाती हैं, जिससे इतने उपद्रव उत्पन्न होते हैं। लौह भस्म के प्रयोग से रक्तवाहिनी सिरा में धारण-शक्ति पैदा हो जाती है और रक्त में भी अच्छा अन्तर पड़ जाता है, साथ ही शरीर को पोषण करनेवाली धातुएँ पुष्ट हो जाती हैं, जिससे शारीरिक दुर्बलता एवं पाण्डुता आदि का नाश हो जाता है। हृदय में पीड़ा होने के बाद श्वास रोग हो गया हो तो लौह भस्म बहुत शीघ्र काम करती है।

13- मलेरिया ज्वर विशेष दिन तक रह जाय या जाड़ा देकर बुखार दूसरे-तीसरे रोज आ जाता है, तो इसमें कच्चे पानी अथवा ज्वरावस्था में ही कुछ-कुछ खाते रहने आदि कारणों से प्लीहा बद जाती है अथवा ऊपर कहे हुए ज्वर में मात्रा से ज्यादा या अधिक दिन तक कुनैन खाते रहने से व्याकुलता, कुछ-कुछ सूजन (शोथ) मुँह पर हो जाना, मुँह की कांति नष्ट हो जाना, सुनाई कम देना इत्यादि लक्षण होने पर लौह भस्म के सेवन से ये सब विकार दूर हो जाते हैं।

14- प्लीहा- वृद्धि के कारण शरीर पीला-पीला सा दिखाई दे तो उसमें भी लौह भस्म देना श्रेष्ठ है। कुछ रोगी ऐसे भी होते हैं, जिनको लौह भस्म अनुकूल नहीं पड़ती। ऐसे रोगियों को सोनामक्खी की भस्म या मडूर भस्म देना अच्छा है।

15- सर्वाङ्ग शोथ में लौह भस्म बहुत शीघ्र लाभ करता है। इसमें लौह भस्म देने से शरीर में रक्ताणुओं की वृद्धि होकर देह में उत्पन्न जलीय भाग शुष्क होने लगता है और जैसे-जैसे रक्त कणों की वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे शोथ भी कम होने लगता है और पाण्डु (पीलापन) भी मिट जाता है, यदि सूजन के साथ-साथ प्लीहा भी बढ़ी हुई हो तो, लौह भस्म में ताम्र भस्म मिलाकर देना अच्छा है।

16- कफ या पित्तजन्य प्रमेह में लौह भस्म का प्रयोग करना अच्छा है। इस रोग में लौह भस्म के उपयोग से प्रमेह रोग से उत्पन्न कमजोरी दूर हो जाती है। यदि पेशाब बार-बार हो और थोड़ीथोड़ी मात्रा में हो, तो लौह भस्म में यशद भस्म मिलाकर देना अच्छा है।

17-जीर्ण ज्वर, पाण्डु, क्षय आदि रोगों से अधिक दिन तक रोगी रहने के बाद जब रोग से छुटकारा मिल जाता है, तब रोगी में शक्ति बहुत कम रह जाती है, और रक्त कण भी निर्बल हो जाते हैं, जिससे शरीर की सिराएँ एवं हाथ-पैर आदि चुस्त (सशक्त) न होकर ढीले-ढीले से दिखाई पड़ने लगते हैं। इन कमजोरियों को दूर करने के लिये तथा शरीर में दोष और धातुओं को पुष्ट करने तथा रक्त की निर्बलता को दूर कर शरीर के अवयवों (हाथ-पैर आदि) को पुष्ट कर ताकत पहुँचाने के लिए लौह भस्म अमृत के समान गुण करती है।

18-पित्तजन्य कुष्ठ रोग में – ज्यादातर त्वचा और रक्त दोनों दुष्ट हुए रहते हैं। इस रोग में त्वचा का वर्ण लाल हो जाता है और अंगुलियों एवं फोड़ों में से पानी-सा स्राव होना, थोडा-सा भी त्वचा छिल जाने या कट जाने पर घाव होकर पक जाना और उसमें से दुर्गन्धयुक्त पीब निकलना, अंगुलियों की त्वचा रूक्ष होकर फट जाना, एक घाव होने पर उसके चारों ओर की छोटी-छोटी फुन्सियों को खुजलाने पर पतला पानी-सा साव होना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी हालत में लौह भस्म बाकुची चूर्ण या अन्य कुष्ठ-नाशक औषधियों के साथ देने से लाभ होता है, क्योंकि लौह भस्म का सबसे मुख्य कार्य दूषित रक्त का संशोधन कर रक्ताणुओं को बढ़ाना है। यह पित्तघ्न होने के कारण दूषित पित्त को दूर करती है और इस रोग में ये ही दोनों विशेष दूषित रहते हैं। अत: लौह का असर रक्त और पित्त पर शीघ्र होता है, जिससे उक्त विकार नष्ट हो जाते हैं।
नोट- कुष्ठ रोग की चिकित्सा में पहले जिस दोष की प्रधानता हो, उसकी चिकित्सा करते हुए, फिर उसके साथ या उसके पीछे जो दोष कुपित हुए हों, उनकी चिकित्सा करें। इस नियमानुसार प्रथम पित्त-दोष और बाद में रक्तदुष्टि की चिकित्सा करने से कुष्ठ रोग अच्छा हो जाता है।

19- लौह भस्म रसायन भी है, अतः यह रस-रक्तादि धातुओं को उत्पन्न कर शरीर के सब अवयवों में यथा-समय पहुँचाती रहती है, जिससे शरीर के सब अवयव पुष्ट होते रहते हैं, क्योंकि रक्तधातु के कणों से ही शरीर के अवयवों का पोषण होता रहता है और ये रक्तकण लौह भस्म के सेवन से ही पुष्ट होते हैं। इन्हीं परिपुष्ट रक्तकणों की वजह से शरीर की सब इन्द्रियाँ (हाथ, पाँव, आँख, कान, नाक आदि) संगठित तथा बलवान और अपने कार्य करने में समर्थ रहती है। ये सब कार्य लौह भस्म के द्वारा अच्छी तरह होते रहते हैं। शिलाजीत, अभ्रक भस्म, त्रिफला चूर्ण, अमला चूर्ण, शृंगराज चूर्ण इनमें से किसी भी द्रव्य के साथ लौह भस्म सेवन करने से (रसायन विधि से) रसायन के उत्तम गुण प्राप्त होते हैं।

20- छोटे-छोटे बच्चों को लौह भस्म के स्थान पर मण्डूर भस्म देना अधिक हितकर है, क्योंकि मंण्डूर भस्म लौह भस्म की अपेक्षा लघुपाकी और सौम्य है। बड़ी आयुवालों के लिये कान्तलौह भस्म देना अच्छा है।

21- स्वस्थ (नीरोग) मनुष्य को अगर कमजोरी मालूम हो, तो कान्तलौह भस्म देना चाहिए। जो मानसिक या शारीरिक किसी प्रकार की व्याधि से पीड़ित नहीं हैं, उन्हें लौह भस्म के सेवन से दीघयु की प्राप्ति होती है।

22- यदि वातवाहिनी सिरा या स्नायुओं के संकोच से शरीर में दर्द होता हो, तो कान्त लौह भस्म देने से शिरा और स्नायुओं का संकोच दूर होकर रक्त संचालन (खून का आवागमन) अच्छी तरह होने लगता है, जिससे शरीर के दर्द शीघ्र मिट जाते हैं। यदि दर्द आमवातजन्य हो, तो महायोगराज गुगल, महावात-विध्वंसन रस आदि का प्रयोग करना चाहिए।

23-यदि शरीर में शुक्र की कमी अथवा अण्डकोष की निर्बलता के कारण नपुंसकता उत्पन्न हो गयी हो, तो लौह भस्म के सेवन से दूर हो जाती है, क्योंकि लौह भस्म अण्डकोष को ताकत देती है और शुक्र की कमी की पूर्ति कर शुक्र को भी बढ़ाती है, जिससे शरीर की कान्ति बढ़ती है और शरीर के सब अवयव बलवान हो जाते हैं। शरीर बलवान होने से रोगोत्पादक (रोग उत्पन्न करने वाले) कीटाणुओं के विष का असर शरीर पर नहीं होता। इस दृष्टि से लौह भस्म विषघ्न है।

24-कामला रोग में पित्त, पित्ताशय से निकलकर कोष्ठ में नहीं जाता, बल्कि रक्त में जाकर मिलता है। ऐसे समय में पित्ताशय अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। त्वचा, नख, मूत्र आदि पीते हो जाते हैं। इस रोग में मण्डूर भस्म के साथ कान्त-लौह भस्म देने से विशेष लाभ होता है।

25-पाण्डु रोग में यकृत् (लीवर) की क्रिया बिगड़ने पर रंजक पित्त अच्छी तरह अपना कार्य नहीं कर पाता, वहीं पित्त रुधिर में मिलकर उसके स्वाभाविक रंग को बदल देता है। इसी को ‘पीलिया’ कहते हैं। ऐसी अवस्था में लौह भस्म २ रत्ती, अभ्रक भस्म १ रत्ती, कुटकी चूर्ण १ माशा अथवा कुटकी की क्वाथ बना मधु के साथ देने से आशातीत लाभ होता है।

पथ्य (क्या खाना चाहिए) :

अनार, सेब, अंगूर, घी, शक्कर (चीनी), हलुवा, दूध, रबड़ी, मलाई, मक्खन आदि तरावट और पौष्टिक पदार्थ खाना चाहिए।

अपथ्य  (क्या नही खाना चाहिए):

लाल मिर्च, तेल, खटाई. स्त्री-प्रसंगादि इस भस्म के सेवनकाल में त्याग दें।

रोगों के अनुसार लौह भस्म की सेवन मात्रा ( रोगानुसार अनुपान ) :

शरीर पुष्टि के लिए – तौह भस्म २ रत्ती, बड़ी पीपल का चूर्ण ४ रत्ती मधु के साथ देना चाहिए।  ( और पढ़ेकमजोरी दूर करने के देसी आयुर्वेदिक नुस्खे )

कफ रोग नाश के लिए – लौह भस्म २ रत्ती, प्रवाल भस्म १ रत्ती, पीपल चूर्ण २ रत्ती मधु के साथ दें।  ( और पढ़ेखांसी के  11 रामबाण घरेलु उपचार )

रक्त पित्त में – लौह भस्म १ रत्ती, प्रवाल पिष्टी १ रत्ती, मिश्री १ माशा मिला दूर्वा सवरस के साथ दें।

बल-वृद्धि के लिए-लौह भस्म २ रत्ती, वंगभस्म १ रत्ती, असगन्ध का चूर्ण, ४ रत्ती, मक्खन या मलाई के साथ या गरम दूध के साथ दें।

पाण्डू रोग में – लौह भस्म १ रत्ती, अभ्रक भस्म १ रत्ती में मिला पुनर्नवा रस के साथ दें।  ( और पढ़ेपीलिया के 16 रामबाण घरेलू उपचार )

प्रमेह में – लौह भस्म १ रत्ती, नाग भस्म १ रत्ती, हल्दी चूर्ण ४ रत्ती मधु के साथ दें।

मूत्रकृच्छ और मूत्राघात में – लौह भस्म १ रत्ती, शिलाजीत सूर्यतापी ४ रत्ती में मिला धारोष्ण दूध के साथ दें।  ( और पढ़ेपेशाब रुक जाने के 24 रामबाण घरेलु उपचार)

वात ज्वर में – लौह भस्म १ रत्ती, अदरक का रस और शहद के साथ मिलाकर दें।

सन्निपात ज्वर में – लौह भस्म २ रत्ती, अदरख का रस और काली मिर्च का चूर्ण ३ रत्ती में मिला कर दें।

पैत्तिक रोगों में – लौह भस्म १ रत्ती, मिश्री ३ माशे घी के साथ दें अथवा दाडिमावलेह से दें।

कफज रोगों में – लौह भस्म २ रत्ती, पीपल चूर्ण ४ रत्ती मधु के साथ दें।

संधि रोगों में – लौह भस्म १ रत्ती, दालचीनी, छोटी इलायची और तेजपात का चूर्ण प्रत्येक २-२ रत्ती मधु के साथ दें।

खाँसी में – लौह भस्म २ रत्ती, प्रवाल भस्म १ रत्ती, वासा -रस में मधु मिला कर दें।

मन्दाग्नि में – लौह भस्म २ रत्ती, दाख और पीपल चूर्ण के साथ दें।

जीर्ण ज्वर में – लौह भस्म १ रत्ती, यशद भस्म आधी रत्ती, पीपल चूर्ण ४ रत्ती में मिलाकर मधु के साथ दें।

श्वास रोग में – लौह भस्म १ रत्ती को अभ्रक भस्म १ रत्ती में मिलाकर घी के साथ दें।

कामला रोग में-लौह भस्म १ रत्ती, स्वर्णमाक्षिक भस्म १ रत्ती, प्रवालपिष्टी १ रत्ती, हरें और हल्दी का चूर्ण ३ – ३ रत्ती मिलाकर, मधु के साथ दें।

पक्तिशूल में-लौह भस्म १ रत्ती, त्रिफला चूर्ण २ माशे में मिला घी के साथ दें।

कृमिजन्य पाण्डु रोग में- लोह भस्म १ रत्ती, वायविडंग चूर्ण १ माशा, कबीला ३ रत्ती गुड़ में मिलाकर देने से फायदा होता है।

पित्त विकार में- नेत्र लाल हो जाना, अधिक स्वेद आना, बेचैनी होना आदि विकारों में लौह भस्म २ रत्ती, दालचीनी, इलायची, तेजपात- इन सबका चूर्ण १-१ माशा कमिला घी और मिश्री के साथ देना चाहिए।

उन्माद रोग में – लौह भस्म १ रत्ती, सर्पगन्धा चूर्ण १ माशा, ब्राह्मी रस और मधु में मिलाकर सेवन करावें ऊपर से सारस्वतारिष्ट १। तोला बराबर जल मिला कर भोजनोपरान्त दें।

अश्मरी रोग में –लौह भस्म १ रत्ती, हजरुल्यद भस्म १ रत्ती के साथ मिला मूली के रस से दें।

धातुदौर्बल्य में- लौह भस्म १ रत्ती, प्रवाल भस्म २ रत्ती, अश्वगंधा चूर्ण १ माशा में मिलाकर गो-दुग्ध के साथ दें।

संग्रहणी में- अन्न को परिपाक ठीक-ठीक न होने से जठराग्नि निर्बल हो जाने के कारण अपचित दस्त होते हों, तो लौह भस्म १ रत्ती, अभ्रक भस्म १ रत्ती, भुना हुआ जीरा का चूर्ण १ माशा, मधु के साथ देने से फायदा होता है।

मन्दाग्नि में- लौह भस्म २ रत्ती, त्रिकटु (सौंठ, पीपल, मिर्च) का चूर्ण १ माशा में मिलाकर मधु के साथ देने से मन्दाग्नि दूर हो जाती है। सब प्रकार के प्रदर रोग में लौह भस्म १ रत्ती, त्रिवंग भस्म १ रत्ती, छोटी इलायची चूर्ण ४ रत्ती, मिश्री १ माशे में मिलाकर मधु के साथ दें। ऊपर से अशोकारिष्ट या पत्रांगासव २।। तोला बराबर जल मिलाकर पिलावें।

श्वेत प्रदर में- लौह भस्म १ रत्ती, गोदन्ती भस्म २ रत्ती, रालचूर्ण ४ रत्ती के साथ पत्रांगासव या लोधासव से दें।

मेदो-वृद्धि में- तौह भस्म २ रत्ती, त्रिफला चूर्ण ३ माशे में मिला मधु के साथ देने से मेद (चर्बी) की वृद्धि रुक जाती है।

लौह भस्म के नुकसान : lauh bhasma nuksan (side effects)

1-लौह भस्म केवल चिकित्सक की देखरेख में लिया जाना चाहिए।
2-अधिक खुराक के गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं ।
3-डॉक्टर की सलाह के अनुसार लौह भस्म की सटीक खुराक समय की सीमित अवधि के लिए लें।

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