Last Updated on September 4, 2023 by admin
कुण्डलिनी शक्ति क्या है ? : what is kundalini shakti
‘कुण्डलिनी’ क्या है ? इसे जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि-‘यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ के अनुसार-जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है तथा ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ अर्थात् जो ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड में है। यह समस्त विश्व अण्डाकार है अतः इसे ‘ब्रह्माण्ड’ कहते हैं। इसका संचालन जिस अण्डाकार शक्ति के प्रवाह से होता है, उसे ‘अव्यक्त कुण्डलिनी’ कहा जाता है।
अस्तु, विश्वव्यापी ‘अव्यक्त समष्टि कुण्डलिनी’ ही मनुष्य शरीर में अव्यक्त व्यष्टि कुण्डलिनी के रूप में निवास करती है। ब्रह्मशक्ति की प्रतीक जिस जीवनीशक्ति को प्राणशक्ति कहा जाता है, उसका केन्द्रीय भूत रूप ही ‘कुण्डलिनी शक्ति है। जिस प्रकार पर्वत, अरण्य, समुद्र आदि को धारण करने वाली पृथ्वी का आधार अनन्त नाग है, उसी प्रकार शरीर की समस्त गतियों एवं क्रिया शक्ति का आधार भी ‘कुण्डलिनी शक्ति’ ही है। यह शविर एक ही स्थान पर सर्पवत् कुण्डली बनाकर रहती है, अतः इसका नाम ‘कुण्डलिनी-शक्ति’ पड़ा है।
अजात-शिशु जब माता के गर्भ में रहता है उस समय उसके शरीर स्थित यह कुण्डलिनी शक्ति जाग्रतावस्था में रहती है, परन्तु प्रसवोपरान्त जैसे ही वह शिशु भूमिष्ठ होता है वैसे ही यह शक्ति निद्रित-सी हो जाती है । तत्पश्चात् यदि मुमुक्ष साधक आत्म कल्याण हेतु इस कुण्डलिनी शक्ति को सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ऊर्ध्व गति वाली करके क्रमशः षट्चक्रों का भेद कर ‘सहस्रार’ में ले जाने में प्रयत्नशील तथा समर्थ होता है, तब यह शक्ति जाग्रत होकर अपना दिव्य प्रभाव प्रकट करती है, जिसके फलस्वप साधक को आत्म ज्ञान प्राप्त होता है और तब वह अपने दिव्य स्वरूप को देखकर धन्य हो जाता है।
‘योग कुण्डल्युपनिषद्’ के अनुसार-दो कुण्डलों वाली होने के कारण इस पिण्डस्थ शक्ति को ‘कुण्डलिनी’ कहा जाता है। इड़ा और पिंगला नामक नाड़ियाँ इसके 2 कुण्डल हैं। इन दोनों नाड़ियों के बीच ‘सुषुम्ना’ स्थित है। सुषुम्ना के अन्तर्गत और भी अनेक नाड़ियाँ हैं जिनमें से एक का नाम ‘चित्रणी’ है । इस चित्रणी में होकर ही कुण्डलिनी शक्ति का ऊर्ध्वगामी मार्ग है ।
अस्तु–सुषुम्ना के दोनों ओर वाली इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ उसके दो कुण्डलों के समान मानी गई हैं। मूलाधार-चक्र में कुण्डलिनी आत्माग्नि के तेज में अवस्थित रहती है। यही प्राणों की जीवनीशक्ति, तैजस और ‘प्राणकारक है। यह शक्ति करोड़ों विद्युत प्रकाश एवं कोटानुकोटि सूर्य-चन्द्र के समान प्रकाशित आभा वाली है एवं यही शक्ति तेजोमय परब्रह्म-स्वरूपिणी, शब्द-ब्रह्ममयी योगियों को मोक्ष प्रदायिनी और मूर्खजनों के लिए बन्धन का कारण है।
जब तक ‘कुण्डलिनी-शक्ति’ शरीर में सोई रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थितियों का दास बना हुआ, पशु-तुल्य निकृष्ट कोटि के आचरण करता है और उसमें सद्गुणों का समुचित विकास नहीं हो पाता, परन्तु जब ‘कुण्डलिनी शक्ति’ जाग जाती है तो मनुष्य समस्त सद्गुणों का भण्डार तथा ईश्वर-तुल्य हो जाता है । अतः बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी इस सुप्त आत्मशक्ति को चैतन्य तथा गतिशील बनाने का प्रयत्न करे ।
कुण्डलिनी शक्ति और पाश्चात्त्य विद्वानों का मत :
इसके पूर्व कि हम कुण्डलिनी के विषय में अन्य बातों पर विचार करें-इस शक्ति के सम्बन्ध में कतिपय पाश्चात्त्य मनीषियों के मतों को उद्घृत कर देना आवश्यक समझते हैं, क्योंकि आधुनिक युग में हम भारतवासी तब तक किसी बात पर विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होते, जब तक कि उस बात पर पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा प्रामाणिकता की मुहर न लगा दी गई हो। । पाश्चात्त्य मनीषी ‘कुण्डलिनी शक्ति’ को ‘सपेण्ट पावर’ के नाम से अभिहित करते हैं। उनके मत से यह सर्पाकार कुण्डलिनी शरीर की अदम्य ऊर्जा शक्ति है।
- आर्थर अवेलन ने अपनी पुस्तक ‘दि सर्पेण्ट पावर’ में लिखा है-‘कुण्डलिनी एक संग्रहीत शक्ति है। यह व्यष्टि-शरीर में उस विश्व-महाशक्ति की प्रतिनिधि है, जो विश्व को उत्पन्न एवं धारण करती है।’
- सर जान कुडरफ ने डॉ. रेले के ‘दि मिस्टीरियस कुण्डलिनी’ नामक ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है-‘कुण्डलिनी एक बोगस नर्व है, यह नहीं कहा जा सकता वास्तव में वह एक बड़ी संग्रहीत शक्ति है ।’ वे अपने ‘शक्ति और शाक्त’ नामक ग्रन्थ में लिखते हैं, ‘शक्ति दो रूप धारण करती है—एक स्थिर अथवा संग्रहीत (कुण्डलिनी) और दूसराकर्तव्यशील जैसे प्राण।
- मैडम ब्लैवेट्स की ने अपनी पुस्तक-‘दि वायेस ऑफ दि साइलेन्स’ में लिखा है ‘कुण्डलिनी सर्पाकार अथवा वलयान्विता शक्ति है। यह सुषुम्ना के भीतर ध्वनि तरंगों की भाँति छल्लेदार सर्किल बनाती हुई बहती है तथा योगाभ्यासी के शरीर में विभिन्न चक्रों को पार करती हुई क्रमशः ‘सहस्रार’ की ओर बढ़ती हुई उसमें प्रचण्ड शक्ति का संचार करती है । वस्तुतः यह एक वैद्युतिक अग्निमय गुप्त शक्ति है-इसकी गति प्रकाश की गति से भी अधिक तीव्र है।’
- मिस्टर हडसन के अनुसार-‘मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में, स्थूल शरीर के प्रमुख अंगों से सम्बद्ध चक्राकार घूमने वाले 6 शक्ति केन्द्र है । उन्हीं में गुदा द्वार तथा जननेन्द्रिय के बीच एक ‘बेसिक फोर्स सेण्टर’ है जिसके अन्तराल में सर्पाकार अग्नि रहती है। यही कुण्डलिनी शक्ति है। यह सुषुम्ना के मध्य में होकर ऊपर की ओर जाती है तथा एक-एक चक्र को जगाती हुई चलती है, जिससे वे खुल जाते हैं । उस समय व्यक्ति को अनोखी अनुभूतियाँ होती हैं और वह अपने भीतर प्रचण्ड शक्ति और अपरिमित आनन्द का अनुभव करता है। इस स्रोतस्थ शक्ति प्रवाह के उदात्तीकरण का नाम ही कुण्डलिनी शक्ति का प्रजागरण है।’
कुण्डलिनी शक्ति और भारतीय मनीषियों का मत :
अब हम अपनी भारतीय मान्यताओं पर लौटें-
स्वामी विवेकानन्द अपनी पुस्तक ‘राजयोग’ में लिखते हैं-‘जिस केन्द्र में सब जीव मनोभाव संग्रहीत रहते हैं उसे मूलाधार चक्र कहा जाता है तथा कर्मों की जो शक्ति कुण्डलिनी रहती है—वही कुण्डलिनी कही जाती है, इसकी शक्ति अपार है।’
परम सन्त ज्ञानेश्वर जी महाराज ने ‘ज्ञानेश्वरी’ नामक अपने गीता भाष्य के छठे अध्याय में समझाते हुए लिखा है कि-‘हम जिस रहस्य का वर्णन कर रहे हैं, वह गीता में प्रत्यक्ष रूप से नहीं है, यह नाथ-पन्थ का रहस्य है, परन्तु इस विषय में मर्मज्ञों के लिए यह रहस्य प्रकट किया जा रहा है कि जिस प्रकार कुमकुंम में नहलाया हुआ बालक अपनी देह की गिडुली बनाकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी अपनी देह को साढ़े तीन लपेटों में सिमेटकर नीचे की ओर मुँह किए नागिन-सी सोई रहती है। जब कोई योगी उसे जगाता है तो जीव स्वयं ही निज रूप को पाकर आनन्दित हो जाता है।’
‘परमार्थ साधन’ ग्रन्थ में कुण्डलिनी-योग ही एक ऐसा साधन बताया गया है। जिससे सूक्ष्म के साथ साधक के स्थूल शरीर का भी ज्ञान होता है तथा उसे आध्यात्मिक लाभ के साथ ही भौतिक-लाभ भी प्राप्त होते हैं । कुण्डलिनी के जागरण की स्थिति का वर्णन करते हुए श्री ज्ञानेश्वर जी महाराज आगे कहते हैं –
‘कुण्डलिनी’ जब जागती है तब बड़े वेग के साथ झटका देकर ऊपर की ओर अपना मुँह फैलाती है, तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह बहुत दिनों की भूखी हो और अब जगने के साथ ही वह खाने के लिए अधीर हो उठी है। वह अपने स्थान से नहीं हटती, परन्तु शरीर में पृथ्वी तथा जल के जो भाग हैं, उन सबको चट कर जाती है। उदाहरणार्थ हथेलियों और पैरों के तलुवों का शोधन करके उनका रक्त, माँस आदि खाकर ऊपर के भागों को भेदती है तथा अंग-प्रत्यंग की सन्धियों को छान डालती है।
नखों का सत्त्व भी निकाल लेती है। त्वचा को धोकर तथा पौंछकर स्वच्छ करती है और उसे अस्थि पंजर से सटाए रखती है। पृथ्वी और जल-इन भूतों को खा चुकने पर वह पूर्णतया तृप्त होती है। और तब शान्त होकर सुषुम्ना के समीप रहती है । तब तृप्तिजन्य समाधान प्राप्त होने से उसके मुख से जो गरल निकलता है, उसी गरलरूप अमृत को पाकर प्राणवायु जीता है। कुण्डलिनी के सुषुम्ना में प्रवेश करने पर ऊपर की ओर जो चन्द्राम्त कुण्नलिनी के मुख में गिरता है। कुण्डलिनी द्वारा वह रस सर्वांग में भर जाता है और प्राणवायु जहाँ का तहाँ स्थिर हो जाता है। उस समय शरीर पर त्वचा की जो सूखी-सी पपड़ी रहती है वह भूसे की तरह निकल जाती है। तब शरीर की कान्ति केशर के रंग की अथवा रत्न रूप-बीज के कोंपल-सी दिखती है और ऐसा लगता है जैसे-सायंकाल के आकाश से लाल रंग की लाली निकाल कर उससे वह शरीर बनाया गया हो ।
जब कुण्डलिनी चन्द्रामृत पान करती है, तब ऐसी देह-कान्ति होती है और तब उस देह से यमराज भी काँपते हैं। उस योगी की देह का प्रत्येक अंग नया और कान्तिमय बन जाता है, यहीं उसे लघिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। पृथ्वी और जल के अंश न रहने के कारण ऐसे योगी का शरीर वायु जैसा हल्का हो जाता है । तब वह सागर पार की वस्तु को देखने, स्वर्ग में होने वाले विचारों को सुनने तथा चींटी के मन की बात को भी जान लेने में पूर्णतः समर्थ हो जाता है। वह वायुरूप घोड़े पर सवार होकर पैरों को बिना भिगोए जल पर चलने में समर्थ होता है, ऐसी अनेक सिद्धियाँ उसे प्राप्त होती हैं। आइये जाने kundalini shakti jagrit kaise kare
कुण्डलिनी को जगाने की विधियाँ : kundalini shakti jagrit karne ka tarika
षट्चक्रों में- गुदा तथा लिंग के मध्य भाग में जो ‘कन्द’ स्थान है-कुण्डलिनी की स्थिति उसी में मानी गई है। वहाँ पर समस्त नाड़ियों को वेष्ठित करती हुई साढ़े तीन आँटे देकर अपनी पूँछ मुख में लिए सुषुम्ना नाड़ी के छिद्र का अवरोध करती हुई, सर्प की भाँति निद्रावस्था में अवस्थान करती है । जब कुण्डलिनी जग जाती है तब षट् चक्र में स्थित पद्म तथा ग्रन्थियों का भेद हो जाता है । इस कुण्डलिनी को जगाने के लिए प्राणायाम, मुद्रा, बन्ध आदि के अभ्यास किए जाते हैं । गन्ध-त्रययुक्त, प्राणायाम, मुद्रा तथा भावनाओं द्वारा धीरे-धीरे कुण्डलिनी-शक्ति जाग्रत होती है। कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करने के अनेक उपाय ‘पातंजलि-योग-दर्शन’ तथा तन्त्र ग्रन्थों में वर्णित है, परन्तु उनमें प्राणायाम द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को चैतन्य करके ‘सुषुम्ना’ में लाने का उपाय सुख-साध्य है। कुण्डलिनी जागरण की कुछ विधियाँ इस प्रकार हैं
1. कुण्डलिनी जागरण की पहली विधि : kundalini jagran vidhi
सिद्धासन में बैठकर बाँये पैर की एड़ी को गुदा तथा जननेन्द्रिय के बीच सीवन से सटाते हुए इस प्रकार लगाएँ कि उसका तला सीधे दाँये पैर की जाँघ का स्पर्श करें। इसी प्रकार दाँये पैर की एड़ी को शिश्नेन्द्रिय की जड़ के ऊपरी भाग में दृढ़ता पूर्वक इस प्रकार लगाएँ कि उसका तला बाँये पैर की जंघा का स्पर्श करें। फिर बाँये पैर के अँगूठे तथा तर्जनी को दाँयी जाँघ तथा पिण्डली के मध्य में ले लें । सम्पूर्ण शरीर का भार एड़ी तथा सीवन के मध्य भाग की नस पर ही तुला रहना चाहिए।
अब दाँये हाथ के अँगूठे से दाँये नासाछिद्र (नथुने) को दबाकर नाभि से लेकर कण्ठ तक की सम्पूर्ण वायु को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। इस प्रकार समस्त वायु का रेचन करें । ‘रेचन’ के समय मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध तथा जालन्धर बन्ध को दृढ़ता से लगातार दोनों हथेलियों के दोनों घुटनों पर रखकर, अपनी दृष्टि नाक के अग्र भाग पर स्थिर रखनी चाहिए। | इस प्रकार नित्य नियमित रूप से अभ्यास करते रहने पर कुण्डलिनीशक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना के द्वार को खोल देती है, तब प्राण का ऊर्ध्वगमन होने लगता है और चींटी के रेंगने जैसा सुखद अनुभव प्राप्त होता है । ब्रह्मरन्ध्र में प्राण के प्रवेश करते ही अपरिमित आनन्द की अनुभूति होने लग जाती है।
2. कुण्डलिनी जागरण की दूसरी विधि :
1 में वर्णित प्रकार से ही सिद्धासन लगाकर बैठें। फिर दोनों नासाछिद्रों द्वारा नाभिपर्यन्त यथाशक्ति अधिकाधिक वायु को भरें । तदुपरान्त जालन्धर बन्ध लगाकर अन्तःकुम्भक करें, साथ ही मूलबन्ध द्वारा मूलाधार से अपानवायु का उत्थान करके, नाभि में प्राण के मिला देने की दृढ़ भावना करें । ऐसा करते समय उड्डियान बन्ध भी लगा लेना अधिक अच्छा रहता है। कुम्भक के समय तीनों प्रकार के बन्ध लगे रहने चाहिए। । उक्त विधि से सामर्थ्यानुसार एक निश्चित अवधि का कुम्भक करके रेचन करें तथा वायु को बाहर छोड़ दें।
प्राणायाम की इस विधि से भी प्राणोत्थान की क्रिया शीघ्र होने लगती है।
3. कुण्डलिनी जागरण की तीसरी विधि :
सर्वप्रथम नेति, द्यौति, बस्ति आदि क्रियाओं द्वारा शरीर शुद्धि करें । तदुपरान्त प्राणायाम तथा मुद्राओं और बन्ध की क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करें। जब इन सबमें दक्षता प्राप्त हो जाए तब प्रतिदिन प्रातः 4 बजे शैया त्यागने के उपरान्त शरीर शुद्धि के पश्चात् 5 बजे से 9 बजे तक कार्यक्रम निम्नानुसार निश्चित करें
- दोनों प्रकार की भस्त्रिका प्राणायाम-5 से 25 प्राणायाम तक।
- (2) दोनों प्रकार की शक्तिचालिनी मुद्रा–प्रत्येक 5 से 10 प्राणायाम तक।
- ताड़न मुद्रा-4 प्राणायामों से 101 तक।
- परिधानयुक्त चालन-4 प्राणायामों से 102 तक।
- शेष समय में षट्चक्र भेदन की मानसिक क्रियाएँ अथवा संयम करें । उसका उल्लेख इसी लेख में आगे किया गया है।
प्रातःकालीन कार्यक्रम में उपरोक्त के अतिरिक्त सायं 4 बजे से 9 बजे तक का कार्यक्रम निम्नानुसार निश्चित करें –
- महामुद्रा–अलग-अलग पैर पर 4 से 25 तक।
- महाबन्ध–अलग-अलग पैर पर 5 से 25 तक।
- महाबन्ध दोनों प्रकार का-5 से 10 तक।
- विपरीत करणी मुद्रा-5 से 10 तक। शेष समय में-षट्चक्र भेदन की क्रियाएँ राजयोग के अनुसार।
संयम की विधि :
षट्चक्रों के वर्णन में जिन-जिन तत्त्वों तथा देवताओं की स्थिति का उल्लेख किया ज़ा चुका है-उनकी श्रद्धापूर्वक मानसिक पूजा, जप तथा कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के लिए उनसे प्रार्थनी करनी चाहिए। यह क्रम प्रत्येक चक्र के लिए आवश्यक है। तदुपरान्त भूमध्य देश में आज्ञा एवं मूर्द्ध स्थान में ‘सहस्रार’ की भावना करके-उसके प्रकाश में अपने स्वरूप को लय कर दें । उक्त प्रकार से श्रद्धा एवं विश्वास सहित नित्य नियमित रूप से अभ्यास करते रहने पर प्रायः 3 मास से 6 मास के भीतर कुण्डलिनी को जगाने में सफलता मिल जाती है ।
उक्त क्रियाओं में पहले-पहल शरीर से बहुत पसीना निकलता है। फिर कुछ दिनों बाद शरीर में बिजली जैसी चमक अनुभव होती है। इसके कुछ समय बाद चींटी के चलने की भाँति प्राणशक्ति के चलने का अनुभव होता है। तदुपरान्त धीरे-धीरे मूलाधारचक्र का भेदन तथा कुण्डलिनीशक्ति के ऊर्ध्वगमन का अनुभव होने लगता है। । प्रतिदिन के अभ्यास के अन्त में अपनी मानसिक बनाइए कि मैं पूर्ण आरोग्य स्वरूप हूँ। मैं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं पूर्ण आनन्दस्वरूप हूँ, मैं सर्वोन्नति का मूल हूँ, मैं काल, कर्म तथा माया से मुक्त हूँ तथा मैं अजर-अमर, अविनाशी, निर्लेप, निर्विकार, व्यापक तथा कान्ति-स्वरूप हूँ।
कुण्डलिनी जागरण में सावधानी : kundalini jagran me savdhaniya
- कुण्डलिनी जागरण का अभ्यास सदैव किसी सुयोग्य गुरु के सान्निध्य और निर्देशन में ही करना चाहिए । मात्र पुस्तकों में उल्लिखित क्रियाओं के अभ्यास से लाभ के स्थान पर हानि होने की ही संभावना अधिक रहती है। यह विषय बड़ा ही गहन तथा संकटापन्न है।
- प्रथम तो जब तक ईश्वर तथा गुरु पर पूर्णरूपेण श्रद्धा तथा विश्वास न हो तब तो इस अभ्यास को करने का विचार तक नहीं करना चाहिए।
- द्वितीय-यदि आस्था, श्रद्धा और विश्वास हो तब भी गुरु के सान्निध्य के बिना इस अभ्यास में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए क्योंकि इस साधना में कभी-कभी अनेक कठिनाइयाँ भी प्रकट हो जाती हैं।