Last Updated on July 22, 2019 by admin
बोध कथा : Hindi Moral Story
सम्राट् विक्रमादित्य अन्य राजाओंकी तरह विलासी नहीं थे। वे हर समय इसी चिन्तामें रहा करते थे कि प्रजाको किस-किस बातकी तकलीफ है और वह किस प्रकार से दूर की जा सकती है। जिस शासक को प्रजा की चिन्ता नहीं, अपनी ही चिन्ता रहती है, उसे रक्षक नहीं भक्षक समझना चाहिये।
एक दिन प्रात: चार बजे महाराज अपने महलसे बाहर निकले। बिलकुल अकेले। किसानी वेष। एक ओरको चल दिये। एक जंगलमें जाकर देखा कि एक तरफसे एक रीछ आया और उनकी सामने वाली राह पर होकर आगे चलने लगा। उस रीछ ने महाराज को नहीं देखा परंतु सम्राट्ने उसे देख लिया था।
थोड़ी दूर चलकर वह रीछ जमीनपर लोट-पोट हो गया और एक आलाबाला सोलहसाला नवयुवती बनकर एक कुएँ पर जा बैठा । सम्राट् भी छिपकर यह निराला तमाशा देखने लगे।
तब तक कुएँ पर दो सिपाही आये। दोनों सगे भाई थे। छुट्टी लेकर घर जा रहे थे।
युवतीने मुसकराकर बड़े भाई से कहा- ‘तुम्हारे पास कुछ खाने को है?’ बड़ा
सिपाही-‘जी नहीं।’
युवतीने कटाक्ष मारकर कहा-“मुझे बड़ी भूख लगी है। बड़ा सिपाही उस युवतीपर मोहित हो गया था। वह बोला-‘यदि आपकी आज्ञा हो तो समीपके किसी गाँवसे ले आऊँ?’
युवती–आपको तकलीफ होगी।
बड़ा-आपके लिये तकलीफ ! आपके लिये जानतक दे सकता हूँ।
युवती–क्यों?
बड़ा-सुन्दरता के कारण। सुन्दरता भी ईश्वरमें से आती है। सुन्दर चीज को देखने से मालूम होता है मानो ईश्वरका दर्शन हो रहा हैं।
युवती–तो ले आओ। बड़ा भाई चला गया।
युवतीने छोटे भाईको कटाक्ष मारा और अपने पास बुलाया। वह आकर अदब से अलग बैठ गया।
युवती–मैं तुम्हींपर रीझ गयी हूँ।
छोटा-ऐसी बात मत कहिये। आपने बड़े भाई साहब पर कृपा कटाक्ष किया था। आप मेरी भावज हैं। भावज माता होती है।
युवती– तुम बड़े मूर्ख मालूम पड़ते हो।
छोटा-क्यों?
युवती–तुम्हारे बड़े भाई की क्या उम्र है?
छोटा–पचास साल।
युवती–तुम्हारी?
छोटा-पैंतीस साल।
युवती –और मेरी?
छोटा–आप ही जानें।
युवती–अपनी बुद्धिसे बताओ। छोटा–होगी पंद्रह-सोलह सालकी।
युवती–अब तुम्हीं बताओ कि एक पंद्रह साल की लड़की पैंतीस सालके आदमीको पसंद करेगी या पचास सालवा ले बूढेको ?
छोटा सिपाही निरुत्तर हो गया।
युवती–जो मैं कहूँ वही करो। तुम मेरे साथ भाग चलो।
छोटा-कदापि नहीं। आप मेरे बडे भाई से सप्रेम बातचीत कर चुकी हैं। आप भावज हैं और माताके समान हैं।
युवती –मेरी आज्ञा न मानोगे तो मारे जाओगे।
छोटा-चाहे कुछ भी हो, इसकी परवाह नहीं।
थोड़ी देर में पावभर पेड़ा लेकर बड़ा सिपाही आ गया।
युवतीने अपनी साडी जहाँ-तहाँसे फाड़ डाली थी। उसी फटी साड़ीसे मुँह ढंककर वह रोने लगी।
बड़ा-रोती क्यों हो? यह लो पेड़ा खाओ।
युवती-पेड़ा उधर डाल दो कुएँमें और तुम भी उसीमें कूद पड़ो।
बड़ा-क्यों?
युवती–तुम्हारा यह छोटा भाई बड़ा दुष्ट है। यदि तुम जल्दी न आ जाते तो इसने मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया होता। यह देखो छीना-झपटीमें मेरी रेशमी साड़ी तार-तार हो गयी है।
बड़ा-क्यों बे? यह हरकत?
छोटा-भाई साहब! यह झूठ कहती है।
बड़ा –हूँ! तू सच्चा और वह झूठी है?
छोटा-मैंने कुछ भी नहीं किया।
बड़ा –और यह बिना कारण ही रोती है? साड़ी कैसे फटी ?
छोटा-मैं क्या जानूं।
बड़ा—अबे साले! तू बड़ा पाजी है।
छोटा-देखो, गाली मत देना। गालीमें विष बसता हैं।
बड़ा-चोरी और सीना जोरी! तू भाई नहीं दुश्मन है।
इतना कहकर उसने तलवार म्यानसे बाहर निकाली। छोटा भाई था तो सुशील परंतु था कलियुगी ही न। वह भी आ गया सिपाहियाना गरमीमें। उसने देखा कि बेकसूर होनेपर भी उसका भाई एक अनजान और बदचलन औरत के कहने से उसे धर्मभ्रष्ट समझ रहा है। उसने भी तलवार सँभाली।
दोनोंने पैंतरे बदले और चलने लगी तलवार। पाँच मिनट में दोनों मरकर गिर गये।
युवती हँसी। जमीनपर लेट गयी और लोटपोटकर काला साँप बन गयी। आगेको चल दी। सम्राट्ने प्रण कर लिया कि इस विचित्र जीवकी पूरी कारगुजारी वे अवश्य देखेंगे।
आगे चलकर मिली एक नदी। उसमें आ रही थी एक बड़ी नाव। उसमें बैठे थे तीन सौ आदमी। जब वह नाव बीच धारामें | पहुँची, वही काला साँप नदी में कूद पड़ा और नाव की सीध में तैर चला।
साँपों का कायदा है कि पानी में सीधे तैरते हैं। शेर, सूअर और साँप ये तीनों धार काटकर सीधे चलते हैं। नाव के पास पहुँचकर साँप चिटका और नावमें जा गिरा। लोगोंने यह तमाशा जो देखा तो साँप की ओर से हटकर दूसरी ओर भागे। तीन सौ आदमी नावके एक किनारे हो गये। नाव उलट गयी, सब डूबकर मर गये। वह साँप फिर लौटा और जमीन पर लोट मारने लगा। सम्राट्ने सोचा-अजब लीला है।
अबकी बार वह एक वृद्ध ज्योतिषी बन गया। सफेद दाढ़ी शोभा दे रही थी। हाथमें पत्रा। पैरोंमें खड़ाऊँ। ललाटपर चन्दन । सम्राट्ने आगे दौड़कर उसके कदम पकड़ लिये।
वह—तुम कौन? सम्राट् मैं एक राजा हूँ।
वह-क्या चाहते हो?
सम्राट्–मैं सुबहसे आपके पीछे लगा हूँ कि जब आप रीछके रूपमें थे। आपने युवती बनकर और साँप बनकर जो-जो काम किये, वह मैंने देखे हैं। यह आपका चौथा रूप है।
वह–अच्छा, तो तुम क्या पूछते हो?
सम्राट्—यह कि आप कौन हैं?
वह—तुम इस बवाल में मत पड़ो। अपने रास्ते जाओ।
सम्राट्-नहीं, स्वामिन् ! जबतक आपका परिचय प्राप्त न कर लूँगा तबतक डग न धरूंगा।
वह–मेरा नाम है महाकाल। मैं गीतामें वर्णित उत्कट काल हूँ। लोगों के विनाश के काम में लगा रहता हूँ।
सम्राट्–आप जिसे चाहते हैं, उसे साफ कर डालते हैं?
महाकाल-नहीं, मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। परमात्मा का एक तुच्छ सेवक हूँ। परमात्मा सम्राट् हैं। प्रारब्ध प्रधान मन्त्री है। मैं एक अधिकारी हैं। प्रधान मन्त्री की आज्ञा से मैं मारने योग्य पात्रों को पहचानता हूँ।
सम्राट्-अच्छा महाकालजी ! मेरी मौत कब आयेगी?
महाकाल—यह बताने की सरकारी आज्ञा नहीं है। तुम अभी बहुत दिनों तक जीवित रहोगे। तुम्हारे द्वारा ईश्वर अनेकों परोपकार के काम करायेंगे। तुम भी ईश्वराधीन, मैं भी ईश्वराधीन, जाओ।
सम्राट–फिर भी इतना तो बतला दीजिये कि मेरी मौत कैसे होगी? | महाकाल-कोठेपरसे गिरकर । जिस दिन तुम रपट पड़ोगे, समझ लेना कि बस, मौत आ गयी।
सम्राट्-अब आप किसकी घात में हैं?
महाकाल—तुम्हारे अधिकार से बाहरका प्रश्न है।
सम्राट्-आपने रीछ बनकर क्या किया था?
महाकाल—एक आदमी एक पेड़पर चढ़ा लकड़ी काट रहा था। उसको पेड़परसे गिराने के लिये मैं रीछ बन गया था और पेड़ पर चढ़ गया था, उसे गिराकर मारा था।
सम्राट्–आप विविध प्रकारके रूप क्यों बनाते हैं?
महाकाल—जिसकी मौत जिस रूपमें लिखी होती है, उसे मैं उसी बहाने से मारता हूँ।
‘हीला रिजक, बहाने मौत।’
सम्राट्-क्या कोई आपके कराल हाथ से बचा भी है?
महाकाल-कोइ कोइ जोगी बच गये, पारब्रह्मकी ओट। चक्की चलती कालकी, पड़ी सभी पर चोट सम्राट्-क्या करनेसे मौत नहीं आती?
महाकाल-परमात्मा की शरणागति से। परमात्मा अपने भक्तका काल अपने हाथमें ले लेते हैं। उसपर मेरा अथवा प्रधान मन्त्री का कोई अधिकार नहीं रह जाता।
सम्राट्-आपका यह आजका किस्सा यदि किसीको मैं सुनाऊँ तो क्या वह सुनेगा? सुनकर भी क्या वह कुछ समझ सकेगा?
महाकाल-लोग प्रेमके किस्से लिखते-पढ़ते हैं। दिलबहलाव की कहानियाँ सुनते हैं। जिन कहानियों से दिमागको खुराक मिलती है, उन कहानियोंको वे नहीं सुनते।
सम्राट्–सुनेंगे भी तो उसे गप्प मानेंगे।
महाकाल-कहेंगे, ऐसा हो ही नहीं सकता।
सम्राट्–सचमुच यह जगत् विचित्रताओं की रंगभूमि है। इस जगत्को कोई भी नहीं जानता है, यद्यपि सभी समझते हैं कि वे इस जगत्को जानते हैं।
महाकाल—यह भी उनकी एक विचित्रता ही समझो।
सम्राट्-मैं आपको प्रणाम करता हूँ। अब आप जाइये। आपके दर्शनसे मुझे यह उपदेश मिला कि ‘काल और ईश्वर को कभी नहीं भूलना चाहिये।