Last Updated on October 25, 2021 by admin
शरीर मे जलन रोग क्या है ? : sarir me jalan hona
ग्रीष्म ऋतु में धूप की अधिकता के कारण उष्ण वातावरण होने पर शरीर में भी जलन व दाह होने लगती है। ऐसे में रोगी के शरीर के विभिन्न अंगों में आगसी जलती अनुभव होती है। दाह के कारण रोगी बेचैन हो जाता है। सारा शरीर पसीने से भीग जाता है। मादक द्रव्यों (शराब) का सेवन करने वाले, होटलों व रेस्तरां और बाजार में चटपटी चीजें खाने वाले दाह रोग से अधिक पीड़ित होते हैं।
आयुर्वेद चिकित्सा में दाह रोग के संबंध में लिखा है कि विभिन्न कारणों से जब वायु और कफ क्षीण हो जाते हैं तो प्रकृतिस्थ पित्त की वृद्धि हो जाती है और प्रकुपित वात इस पित्त को उस स्थान से परिवर्तित करके पूरे शरीर के जिस अंग में पहुंचा देता है उस समय किसी वस्तु से कुचले, तोड़ने के समान पीड़ा की उत्पत्ति होती है। पीड़ा और जलन की विकृति को दाह कहा जाता है।
पित्त प्रकोप के कारण शरीर के नेत्र, हृदय, पिण्डलियों, हाथ-पांव में कहीं भी दाह की उत्पत्ति हो सकती है। एलोपैथी चिकित्सा में दाह की इस विकृति को ‘हार्ट बर्न’ के नाम से संबोधित किया जाता है।
शरीर में जलन के कारण : Sarir me Jalan ke karan
आयुर्वेदाचार्यों ने विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दाह को सात वर्गों में विभक्त किया है। मद्यज, रक्तज, पित्तज, तृषा-निरोधज, शस्त्र घातज और अभिघातज दाह के सात भेद होते हैं। विभिन्न आयुर्वेद चिकित्सा ग्रंथों में इन भेदों का वर्णन मिलता है।
1) मद्यज दाह –
आधुनिक परिवेश में शराब का अनियमित व अधिक मात्रा में सेवन करते हैं तो ऊष्मा पित्त और रक्त से प्रभावित होकर त्वचा में पहुंचकर तीव्र दाह की उत्पत्ति करती है। अधिक शराब पीने के कारण यकृत व वृक्कों में दाह की उत्पत्ति होती है।
2) रक्तज दाह –
जब कोई व्यक्ति तिक्त, कटु, क्षार व लवण युक्त खाद्य पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन करता है तो उससे प्रकुपित होकर रक्त सारे शरीर में फैलकर किसी एक अंग में पहुंचकर दाह की उत्पत्ति कर देता है।
रक्तज दाह में रोगी की नाड़ियों में खींचे जाने और जलन की तरह पीड़ा होती है। दाह के कारण रोगी को अधिक प्यास लगती है। कण्ठ शुष्क हो जाता है। जल न मिल पाने में थोड़ा-सा विलंब होने से रोगी प्यास के कारण बेचैन हो जाता है। रोगी के नेत्रों का वर्ण लाल हो जाता है और जलन होने लगती है। मुंह से रक्त की दुर्गंध आती है। शरीर के विभिन्न अंगों में जलन की प्रक्रिया हो सकती है।
पित्तज दाह-भोजन में जब खूब घी, तेल व मक्खन से बने, उष्ण मिर्चमसालों व अम्लीय रस से बने खाद्य पदार्थों का सेवन किया जाता है तो शरीर में पित्त की अधिकता होने पर पित्त दाह की विकृति होती है। पित्तज दाह में रोगी के वक्षस्थल (छाती) और कण्ठ में तीव्र जलन होती है। भोजन में अम्लता की अधिकता होने पर अम्लपित्त रोग में रोगी को तीव्र जलन की पीड़ा से बेचैन हो जाता है।
3) तृषा निरोधज दाह –
ग्रीष्म ऋतु में और अधिक मिर्च-मसालों व चटपटा भोजन करने के बाद जब देर तक जल नहीं पीया जाता है तो तृषा (प्यास) की अधिकता के कारण उसके शरीर में दाह की उत्पत्ति होने लगती है। तेज धूप में चलने-फिरने और उष्ण वातावरण में रहकर देर तक काम करने से भी तृषा की उत्पत्ति होती है। उष्णता की अधिकता से शरीर के सभी भागों में जलन होने लगती है। शरीर में जल के अभाव में तृषा निरोधज दाह की उत्पत्ति होने लगती है। रोगी को मुंह, गले और होंठों पर शुष्कता का अनुभव होता है। जल के लिए रोगी बेचैन हो जाता है।
4) शस्त्रघातज दाह –
शस्त्रों से जब शरीर का कोई भाग आहत होता है, अर्थात् शस्त्र से किसी अंग में जख्म होता है तो तीव्र दाह की उत्पत्ति होती है। इस दाह में पीड़ा का अधिक समावेश होता है। भाले, बर्डी, धनुष-बाण, तलवार आदि किसी शस्त्र से शरीर के किसी भाग को आघात पहुंचने पर ऐसी दाह की उत्पत्ति होती है। शस्त्र लगने पर शोथ(सूजन) होने के कारण भी दाह की उत्पत्ति हो सकती है। शस्त्रघातज दाह में तीव्र जलन व पीड़ा होती है। रोगी पीड़ा को सहन नहीं कर पाता और जोर-जोर से विलाप करने लगता है।
5) धातु क्षयज दाह –
जब कोई स्त्री-पुरुष किसी रोग के कारण अधिक समय तक पीड़ित रहते हैं तो शरीर में रक्त की बहुत कमी हो जाती है। रक्ताल्पता की स्थिति में रोगी को चलने-फिरने में भी कठिनाई होने लगती है। ऐसी स्थिति में शरीर में रक्त, रस आदि धातुओं के क्षय (कमी से) के कारण दाह की उत्पत्ति होती है।
धातु क्षयज दाह धीरे-धीरे विकसित होकर रोगी को अधिक व्यथित करती है। इस दाह में तृषा, स्वरभंग (गले में सूजन, आवाज का बैठना), मूर्च्छा , तीव्र पीड़ा और अधिक निर्बलता के लक्षण दिखाई देते हैं।
6) अभिघातज दाह –
शरीर के कोमल अंगों पर आघात लगने से तीव्र दाह की उत्पत्ति होती है तो उसे अभिघातज दाह कहा जाता है। आघात लगने से उस भाग में शोथ होता है और फिर तीव्र जलन व पीड़ा होती है।
महर्षि सुश्रुत ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सुश्रुत संहिता में क्षतज और शोकज दाह का भी वर्णन किया है। विषैले वाणों के प्रहार से हिरण व दूसरे पशुओं का शिकार किया जाता है। उन पशुओं का मांस खाने से शरीर में क्षतज दाह की उत्पत्ति होती है। जब किसी व्यक्ति को व्यवसाय में आकस्मिक रूप से धन की बहुत हानि होती है या घर में चोरी हो जाने, आग लग जाने से सब कुछ नष्ट हो जाता है तो शोक के कारण शरीर में शोकज दाह की उत्पत्ति होती है। शोक दाह में रोगी की भूख-प्यास भी नष्ट हो जाती है। कुछ व्यक्ति मूच्छित भी हो जाते हैं, जबकि कुछ व्यक्ति प्रलाप करने लगते हैं।
शरीर में जलन (दाह) का इलाज : sarir me jalan ka ilaj
- दाह रोग से जलन और पीड़ा होने पर सबसे पहले चिकित्सक को उसकी उत्पत्ति का कारण जानना आवश्यक होता है। दाह की उत्पत्ति के कारण जान लेने के बाद उसकी चिकित्सा बहुत सरल हो जाती है। दाह की उत्पत्ति का कारण जान लेने के बाद उसके आमाशय की स्थिति का ज्ञात करना आवश्यक होता है।
- दाह रोग से रोगी का आमाशय या हृदय अधिक प्रभावित होता है। जब दाह के कारण आमाशय में तीव्र जलन होती है तो हल्की पीड़ा भी होती है। भोजन करने के दो घण्टे बाद पीड़ा की उत्पत्ति होती है। पीड़ा 30-40 मिनट तक चलती रहती है। रोगी पीड़ा से परेशान हो जाता है। अधिक शराब पीने, तंबाकू, उष्ण मिर्च-मसाले, अम्लीय खाद्य पदार्थों के सेवन से आमाशय में दाह की उत्पत्ति होती ।
- दाह के कारण रोगी का जी मिचलाता है। उबकाई आती है। कई बार आमाशय के साथ ही अन्न नलिका में भी दाह हो जाता है। कुछ रोगियों को गैस की विकृति होती है। अफारा-सा बन जाता है। उद्गार बार-बार बाहर निकलते हैं। गैस के कारण रोगी की पीड़ा व बेचैनी बढ़ जाती है।
- दाह की उत्पत्ति के कारण हृदय शिखर के समीप तीव्र पीड़ा होती है। पीड़ा कुछ मिनटों तक चलती है। पीड़ा के चलते रोगी को श्वास लेने में कठिनाई होती है। पीड़ा की उत्पत्ति कुछ समय के अंतराल से भी हो सकती है। इस पीड़ा को नष्ट करने के लिए रोगी को अफारानाशक, पाचन क्रिया के लिए सोंठ, सौंफ, सोड़ा बाई कार्ब आदि औषधियों का सेवन करना चाहिए।
- चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार दाह रोग में पित्त की अधिकता होने से रोगी को अधिक जलन व बेचैनी होती है, इसलिए रोगी को विरेचन (जुलाब) आदि देकर पेट व आंतों की सफाई करा देनी चाहिए। कोष्ठबद्धता (कब्ज) होने पर एनीमा का उपयोग भी कर सकते हैं। एनीमा से आंतों का शुष्क व कठोर मल भी निकल जाता है।
- दाह रोगी को शीतल जल पिलाना चाहिए। पित्त-ज्वर में भी दाह की अधिक उत्पत्ति होती है। ऐसे में शीतल जल पीने से दाह व जलन कम होती है।
शरीर मे जलन के घरेलू उपचार और उपाय : Sarir me Jalan ke gharelu upchar
1). दही – दही मलकर स्नान करने से ग्रीष्म ऋतु में उत्पन्न दाह की विकृति, जलन नष्ट होती है। ( और पढ़ें – दही खाने के 44 बेहतरीन फायदे )
2). द्राक्ष – 20 ग्राम द्राक्ष और छोटी इलायची के दो-तीन दाने पीसकर, जल में मिलाकर पीने से शरीर की दाह व जलन नष्ट होती है। ( और पढ़ें – अंगूर खाने के 65 बड़े फायदे )
3). गुलकंद – कोष्ठबद्धता के कारण अधिक दाह होने पर 25-30 ग्राम गुलकंद रात्रि के समय दूध के साथ सेवन कराएं। सुबह कोष्ठबद्धता नष्ट होने पर दाह का भी निवारण होता है। दो-तीन दिन तक गुलकंद का सेवन करना चाहिए। ( और पढ़ें – गुलाब के 56 लाजवाब फायदे )
4). नीम – नीम के कोमल पत्तों को पीसकर किसी पात्र में जल भरकर उसमें पिसे हुए पत्तों को मिलाकर, मथनी से चलाकर जब उसमें झाग उठने लगे तो उन झागों को शरीर पर मलने से दाह की विकृति नष्ट होती है। ( और पढ़ें – घर पर बनाये नीम मलहम )
5). चंद्रकला रस – रक्त-पित्तज दाह की उत्पत्ति होने पर चंद्रकला रस के सेवन से बहुत लाभ होता है। इस रस की 1-1 गोली सुबह-शाम शीतल जल, दाड़िमावलेह, अनार के रस के साथ ले सकते हैं। ग्रीष्म ऋतु में बहुत जल्दी आंतरिक व बाह्य दाह का निवारण करता है।
6). चंद्रप्रभा वटी – सूजाक रोग के कारण उत्पन्न दाह की विकृति में चंद्रप्रभा वटी के जल के साथ सुबह-शाम सेवन करने से बहुत लाभ होता है। इससे मूत्र की जलन नष्ट होती है।
7). अनार – प्रवाल पिष्टी 2 रत्ती, गिलोय सत्व 4 रत्ती और सितोपलादि चूर्ण 2 ग्राम मात्रा में लेकर किसी खरल में पीसकर, अनार के शरबत के साथ रोगी को सेवन कराने से दाह का निवारण हो जाता है। (1 रत्ती = 0.1215 ग्राम)
8). गुलाब जल – मौक्तिक पिष्टी को गुलाब जल के साथ सेवन कराने से पित्त प्रकोप के कारण उत्पन्न दाह में बहुत लाभ होता है।
9). जीर्ण ज्वर में अधिक दाह होने पर संशमन वटी, चंदनालौह, अमृतारिष्ट, सुवर्ण मालिनी वसंत या लघु मालिनी वसंत के साथ सेवन कराने से दाह विकृति नष्ट होती है।
10). सुवर्ण माक्षिक भस्म, प्रवाल पिष्टी और अमृतासत्व को मिलाकर मधु के साथ या अनार के रस के साथ सेवन करने से दाह विकृति नष्ट होती है।
शरीर मे जलन (दाह) रोग में खान-पान और परहेज :
- दाह की उत्पत्ति मिर्च-मसालों व अम्लीय रसों से बने खाद्य पदार्थों के सेवन से होती है। इसलिए भोजन में इन चीजों पर प्रतिबंध रखना आवश्यक होता है।
- ग्रीष्म ऋतु में उष्णता के प्रकोप से दाह व जलन की उत्पत्ति अधिक होती है। ग्रीष्म ऋतु में उष्ण खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
- अधिक शारीरिक श्रम से अधिक दाह की उत्पत्ति होती है। रोगी को अधिक पैदल चलने, धूप में निकलने, चाय-कॉफी, ग्रीष्म ऋतु में मेवों (पिस्ता, काजू आदि) से अलग रहना चाहिए।
- रोगी को पित्तवर्धक, लाल मिर्च, विदाही खाद्य पदार्थों से भी परहेज करना चाहिए।
- अधिक दौड़ने, सीढ़ियां चढ़ने, व्यायाम करने से भी अलग रहना चाहिए। ।
- ग्रीष्म ऋतु में दाह से सुरक्षा के लिए रोगी को फलों का खूब सेवन करना चाहिए। अनार, संतरा, अनन्नास, नारियल का जल, अंगूर, पपीता आदि रोगों को बहुत लाभ पहुंचाते हैं। इन फलों के शरबत भी पी सकते हैं। शरबतों से दाह का अंत होता है।
- रोगी को चंदन के जल के साथ घिसकर मस्तक व अन्य अंगों पर लेप करने से बहुत ठण्डक मिलती है।
- दिन में कई बार नीबू की शिंकजी पीने से दाह का निवारण होता है। प्यास भी कम लगती है।
(उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)