लगाया झूठा आरोप, हुआ कुदरत का प्रकोप (बोध कथा) | Prerak Hindi Kahani

Last Updated on July 22, 2019 by admin

शिक्षाप्रद कहानी : Hindi Moral Story

★   निर्दोष हृदय की आह ईश्वरीय कोप ले आती है । जुल्मी का जुल्म तेज होता है न, तो तुरंत दंड मिलता है । जुल्मी के पहले के कर्म कुछ पुण्यदायी हैं तो उसको देर से दंड मिलता है, लेकिन जुल्म करने का फल तो मिलता, मिलता और मिलता ही है ! न चाहे तो भी मिलता है । यह कर्म का संविधान है |

★  ईश्वर का संविधान बहुत पक्का है । जुल्म सहनेवाले के तो कर्म कटे लेकिन जुल्म करनेवालों के तो पुण्य नष्ट हुए और बाकी उनके कर्मों का फल जब सामने आयेगा, एकदम रगडे जायेंगे ।

★  एक उच्चकोटि के गृहस्थी संत थे । उनका नाम था जयदेवजी । ‘गीत-गोविंद” की रचना उन्होंने ही की है । एक बार वे यात्रा को निकले । एक राजा ने उनका बडा सम्मान किया और उन्हें स्वर्णमुद्राएँ, चांदी के सिक्के आदि भेंट में दिया । इच्छा न होने पर भी राजा की प्रसन्नता के लिए जयदेवजी ने निःस्पृह भाव से कुछ भेंट स्वीकार की और अपने गाँव को चल पडे ।

★  जब वे घने जगंल में पहुचे तब कुछ डकैतों ने उन पर पीछे से आक्रमण किया और उनका सब सामान छीनकर हाथ-पैर काटके उन्हें कुएँ में धकेल दिया । कुएँ में अधिक पानी तो था नहीं, घुटने भर पानी ! दलदल में क्या डूबते वहाँ ऐसे गिरे जैसे गद्दी पर पड जायें ।
जयदेवजी बोलते हैं : ‘‘गोविंद ! यह भी तेरी कोई लीला है । तेरी लीला अपरम्पार है ! इस प्रकार कहते हुए वे भगवन्नाम गुनगुना रहे थे । इतने में गौड़ देश के राजा लक्ष्मण सेन वहाँ से गुजरे । कुएँ में से आदमी की आवाज आती सुनकर राजा ने देखने की आज्ञा दी । सेवक ने देखा तो कुएँ में जयदेव जी भजन गुनगुना रहे हैं ।

★  राजा की आज्ञा से उन्हें तुरंत बाहर निकाला गया । राजा ने पूछा : ‘‘महाराज ! आपकी ऐसी स्थिति किस दुष्ट ने की ? आपके हाथ-पैर किसने काटे ? आज्ञा कीजिये, मैं उसे मृत्यु दंड दूंगा । उन ज्ञानवान महापुरुष ने कहा : ‘‘कुछ नहीं, जिसके हाथ-पैर थे उसीने काटे । करन करावनहार स्वामी । सकल घटा के अन्तर्यामी । यहाँ (हृदय में) भी जो बैठा है, उसीके हाथपरै हैं और जिसने काटे वह और यह सब एक है ।
‘‘नहीं-नहीं, फिर भी बताओ । बोले : ‘‘राजन् ! तुम मेरे में श्रद्धा करते हो न, तो जिसके प्रति श्रद्धा होती है उसकी बात मानी जाती है, आज्ञा मानी जाती है । इस बात को आप दुबारा नहीं पूछेंगे । राजा के मँहु पर ताला लग गया । राजा उन्हें अपने महल में ले गये । वैद्य-हकीम आये, जो कुछ उपचार करना था किया ।

★  बात पुरानी हो गयी । राजा को सूझा कि यज्ञ किया जाय, जिसमें दूर-दूर के संत-भक्त आयें, जिससे प्रजा को संतो के दर्शन हों, प्रजा का मन पवित्र हो भाव पवित्र हो विचार पवित्र हो । कर्म आरै फल उज्ज्वल हों, भविष्य उज्ज्वल हो ।
यज्ञ का आयोजन हुआ । जयदेवजी को मुख्य सिंहासन पर बिठाया गया । अतिथि आये । भंडारा हुआ, सबने भोजन किया । उन्हीं चार डकैतों ने सोचा, ‘साधुओं के भंडारे में साधुवेश धारण करके जाने से दक्षिणा मिलेगी । इसलिए वे साधु का वेश बनाकर वहाँ आ पहुँचे । अंदर आकर देखा तो स्तब्ध रह गये, ‘अरे ! जिसका धन छीनकर हाथ-पैर काटके हमने कुएँ में फेंका था, वही आज राजा से भी ऊँचे आसन पर बैठा है ! अब तो हमारी खैर नहीं ।

★  क्या करें ? वापस भी नहीं जा सकते और आगे जाना खतरे से खाली नहीं है… इतने में जयदेवजी की नजर उन साधुवेशधारी डाकुओं पर पडी । उनकी ओर इशारा करते हुए वे बोले : ‘‘राजन् ! ये चार हमारे पुराने मित्र हैं । इनकी मुझ पर बडी कृपा रही है । मैं इनका एहसान नहीं भूल सकता हूँ । आप मुझे जो कुछ दक्षिणा देने वाले है वह इन चारों मित्रों को दे दीजिये । डकैत काँप रहे हैं कि हमारा परिचय दे रहे हैं, अब हमारे आखिरी श्वास हैं लेकिन जयदेवजी के मन में तो उनके लिए सदभावना थी ।

★  राजा ने उन चारों को बडे सत्कार से चाँदी के बर्तन, स्वर्णमुद्राएँ, मिठाइयाँ, वस्त्रादि प्रदान किये । जयदेवजी ने कहा : ‘‘मंत्री ! इन महापुरुषों को जंगल पार करवाकर इनके गन्तव्य तक पहुचा दो । जाते-जाते मंत्री को आश्चर्य हुआ कि ये चार महापुरुष कितने बडे हैं ! मंत्री ने बडे आदर से पूछा : ‘‘महापुरुषों गुस्ताखी माफ हो , आपके लिए जयदेवजी महाराज इतना सम्मान रखते हैं आरै राजा ने भी आपको सम्मानित किया, आखिर आपका जयदेव जी के साथ क्या सबंधं है ?

★  उन चार डकैतों ने एक-दूसरे की तरफ देखा, थोडी दूर गये आरै कहानी बनाकर बोले : ‘‘ऐसा है कि जयदेव हमारे पुराने साथी हैं । हम लोग एक राज्य में कर्मचारी थे । इन्होंने ऐसे-ऐसे खजाने चुराये कि राजा ने गुस्से में आकर इनको मृत्यु दंड देने की आज्ञा दे दी, लेकिन हम लोगों ने दया करके इन्हें बचा लिया और हाथ-पैर कटवाकर छोड़ दिया । हम कहीं यह भेद खोल न दें इस डर से इन्होंने हमारा मुंह बंद करने के लिए स्वागत कराया है । देखो बदमाश लोग कैसी कहानियाँ बनाते हैं ! कहानी पूरी हुई न हुर्इ कि सृष्टिकर्ता से सहन नहीं हुआ और धरती फट गयी, वे चारों उसमें धसँने लगे आरै बिलखते हुए घुट-घुट के मर गये ।

★  मंत्री दंग रह गया कि ऐसे भी मृत्यु होती है ! उनको दी हुई दक्षिणा, सामान आदि वापस लाकर राजा के पास रखते हएु पूरी घटना सुना दी । राजा ने जयदेवजी को चकित मन से सब बातें बतायीं । महाराज दोनों कटे हाथ ऊपर की तरफ करके कहने लगे : ‘‘हे ईश्वर ! बेचारों को अकाल मौत की शरण दे दी ! उनकी आँखों से आँसू बहने लगे । ईश्वर को हुआ कि ऐसे जघन्य पापियों के लिए भी इनके हृदय में इतनी दया है ! तो ईश्वर का अपना दयालु स्वभाव छलका और जयदेवजी के कटे हुए हाथ-पैर फिर से पूर्ववत् हो गये ।

★  राजा को बडा आश्चर्य हुआ । उसने बडे ही कौतूहल से आग्रहपूर्वक पूछा : ‘‘महाराज ! अब असलियत बताइये, वे कौन थे ? अब जयदेवजी को असलियत बतानी पडी । पूर्व वृत्तांत बताकर उन्होंने कहा : ‘‘राजन् ! मैंने सोचा कि ‘इनको पैसों की कमी है, इसीलिए बेचारे इतना जघन्य पाप करते हैं । न जाने किन योनियों में इस पाप का फल इनको भुगतना पडेगा ! इस बार आपसे खूब दक्षिणा, धन दिला दूँ ताकि वे ऐसा जघन्य पाप न करें । क्योंकि कोई भी पापी पाप करता है तो कोई देखे चाहे न देखे, उसे उसका पाप कुतर-कुतर के खाता है । फिर भी ये पाप से नहीं बचे तो सृष्टिकर्ता से सहा नहीं गया, ईश्वरीय प्रकोप से धरती फटी, वे घुट मरे ।
जो व्यक्ति उदारात्मा है, प्राणिमात्र का हितैषी है उसके साथ कोई अन्याय करे, उसका अहित करे तो वह भले सहन कर ले किंतु सृष्टिकर्ता उस
जुल्म करनेवाले को देर-सवेर उसके अपराध का दंड देते ही हैं ।

संत का निंदकु महा हतिआरा । संत का निंदकु परमेसुरि मारा ।।
संत के दोखी की पुजै न आस । संत का दोखी उठि चलै निरासा ।।

★ आप निश्चितं रहो शातं रहो आनंदित रहो तो आपका तो मंगल होगा, अगर आपका कोई अमंगल करेगा तो देर-सवेर कुदरत उसका स्वभाव बदल देगी, वह आपके अनुकूल हो जायेगा । अगर वह आपके अनुकूल नहीं होता तो फिर चौदह भुवनों में भी उसे शांति नहीं मिलेगी आरै जिसके पास शांति नहीं है फिर उसके पास बचा ही क्या ! उसका तो सर्वनाश है । दिन का चैन नहीं, निश्चितंता की नींद नहीं, हृदय में शांति नहीं तो फिर और जो कुछ भी है, उसकी कीमत भी क्या !

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