Last Updated on July 22, 2019 by admin
बोध कथा : Hindi Moral Story
आजमगढ़ के कलक्टर मि० देसाई अपने बँगले में एक कमरे में आराम कुरसी पर लेटे हुए अखबार देख रहे थे। इतवारकी छुट्टीका दिन था और सुबहके आठ बजे थे। तबतक उनका बड़ा लड़का काशीनाथ वहाँ आया और एक तरफ चुपचाप खड़ा हो गया। कलक्टर साहबने लड़के को आये हुए देख लिया, मगर वे कुछ बोले नहीं। कुछ समय बाद काशीनाथ ने ही बातचीत शुरू की।
काशीनाथ –तो मेरे लिये क्या हुक्म है?
देसाई – कुछ नहीं।
काशीनाथ – मैं विलायत जाऊँ?
देसाई – विलायत जाना पीछे। पहले मेरे घरसे निकल जाओ। मनमुखी लड़का मर जाय या भाग जाय तभी बेहतर है।
काशीनाथ – आज आप नाराज क्यों हो रहे हैं?
देसाई – मैं तुमको आई० सी० एस० पास करने के लिये विलायत भेजना चाहता था परंतु तुमने अपनी माँसे कहा है कि तुम वहाँ जाकर बैरिस्टरी पास करना चाहते हो।
काशीनाथ जी हाँ, कहा था। मगर एक बैरिस्टर की इज्जत किसी कलक्टर से कम नहीं होती। आमदनी भी कम नहीं होती। इसके अलावा एक वकीलको जितना मौका जनताको सेवाके लिये मिल सकता है, उतना एक अफसरको नहीं।
देसाई – क्या आदमीके लिये जनता की सेवा करना लाजमी है?
काशीनाथ–मेरी राय से तो लाजमी है। अपना पेट तो जानवर भी भर लेता है। आदमी वह है जो दसको खिलाकर खाये।
देसाई-जी ! तो मैं हुआ जानवर और जनाब हुए आदमी। मेरा आखिरी हुक्म है कि तुम एक घंटेके अंदर इस मकानसे निकल जाओ। चाहे जहाँ जाओ। चाहे जो करो। मुझसे कोई मतलब नहीं। एम० ए० करा दिया, अपने फर्जसे अदा हुआ। अपनी औरत को साथ लो और जाकर दोनों आदमी जनता की सेवा करो।
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काशीनाथ के जाते ही उस कमरे में एक दिव्य सूरत प्रकट हुई। उस सूरतके हाथमें एक कापी और एक पेंसिल थी। वह ईश्वरीय दूत कुछ लिख रहा था।
देसाई–आप कौन हैं?
दूत-मैं ईश्वरका एक खुफिया हूँ।
देसाई–मैं नहीं समझा।
दूत-मैं परमात्माकी सी० आई० डी० का एक दूत हूँ।
देसाई–मैं नहीं समझा।
दूत-मैं यमराजका दूत हूँ।
देसाई–तो क्या मेरी मौत आ गयी है? यमदूत तो मरते वक्त आया करते हैं।
दूत-नहीं, मैं चित्रगुप्तका दूत हूँ। मैं सदा तुम्हारे साथ रहता। हूँ और जो कुछ तुम कहते, सुनते या करते हो, सब मैं लिख लेता हूँ।
देसाई-क्यों?
दूत–ताकि मृत्यु हो जानेपर तुम अपने जीवनका हाल देख सको और अपना कर्मभोग प्राप्त कर सको।
देसाई–मैं दूसरोंके पीछे खुफिया लगाया करता हूँ। क्या मेरे पीछे भी खुफिया रहता है ? दूत–जी हाँ! केवल तुम्हारे ही पीछे क्यों ? लेखक दूत सबके पीछे रहता है। हरेक नर-नारीके साथ एक-एक लेखक रहता है।
देसाई–मगर, मैंने आपको कभी जाना नहीं। पहले कभी देखा भी नहीं।
दूत–तुम लोग अगर जान लो तो खुफिया कैसा? तुम तभी देख सकते हो कि जब मैं दिखलायी देना चाहूँ। नहीं तो, रात-दिन साथ रहनेपर भी तुम मुझे नहीं जान सकते।
देसाई-अगर यहाँ कोई आ जाय तो वह आपको देख सकता है?
दूत–न केवल तुम ही देख सकते हो।
देसाई-आप अभी क्या लिख रहे थे?
दूतने अपनी कापी देसाईके सामने कर दी। उसमें लिखा था“आज देसाई अपने बड़े लड़के पर हुकूमत के नशे के कारण नाराज हुआ। वह घरसे निकालने का अत्याचार करना चाहता है। मनमुखी होनेके कारण अन्याय करना चाहता है।’
देसाई-यह आपने क्या लिखा है?
दूत-जो बात थी, लिख दी।
देसाई–मनमुखी वह है या मैं?
दूत-अगर वह भी मनमुखी होगा तो उसका दूत लिखेगा। मेरी राय में तुम मनमुखी हो इसलिये लिखा। | देसाई-केवल मनमुखी ही नहीं। आपने मुझे मनमुखी, नशेबाज, अत्याचारी और अन्यायी लिखा है।
दूत-सब सच लिखा है।
देसाई–बापका कहना लड़के को टालना चाहिये?
दूत–अगर गलत हो तो टालनेमें कोई हर्ज भी नहीं। तुम्हारे घरमें चार लड़के हैं। चारोंकी प्रकृति पृथक्-पृथक् है। कोई वकील बनेगा, कोई जज बनेगा, कोई डॉक्टर बनेगा और कोई व्यापारी बनेगा। अगर तुम चाहो कि चारों लड़के मजिस्ट्रेट बन जायँ तो यह कैसे हो सकता है। चूंकि तुम गलतीपर हो और तुम्हारा लड़का सचाईपर है, इसलिये तुम्हारा अन्याय हुआ कि नहीं?
देसाई–आपकी यह दलील मेरी समझमें आ गयी।
दूतने लिखा-अपनी गलती मान लेनेकी आदत है।
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तबतक रोती और काँपती हुई काशीनाथकी माताने कमरेमें प्रवेश किया। देवदूत सामनेसे हट गया और देसाईके पीछे जा खड़ा हुआ।
स्त्री-यह आप क्या कर रहे हैं? लड़के को जरा-सी बातपर घरसे निकाल रहे हैं?
देसाई-पिताका हुक्म न मानना जरा-सी बात है?
स्त्री-वह सुशील और धर्मात्मा है।
देसाई–मगर मनमुखी और नमकहराम भी है।
स्त्री-उसके निकलते ही मेरे प्राण निकल जायँगे।
देसाई–अच्छा, आप पति के साथ नहीं, बल्कि पुत्र के साथ सती होंगी?
देसाई का यह व्यंग्यबाण बड़ा घातक हुआ। स्त्रीने अपनी छातीमें एक बूंसा मारा और वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी।
देवदूतकी पेंसिल चल रही थी। देसाईने देखा कि उसने यह लिखा है-‘क्षणिक कलक्टरी की प्रभुता के नशेसे मतवाले होकर देसाईने अपनी सती-साध्वी स्त्री को मर्मान्त पीड़ा पहुँचायी है।
आश्रितका अपमान नहीं करना चाहिये। असह्य अपमान कालके समान होता है।’
देसाई-स्त्रीको पतिको हाँ-में-हाँ मिलानी चाहिये या पुत्रकी हाँ-में-हाँ मिलानी चाहिये?
दूत–जहाँ जैसा मौका हो। पतिके साथ स्त्रीका प्रेम होता है; परंतु स्त्री का स्नेह पुत्रके ही साथ होता है। जब पुत्रको आत्मज कहा जाता है, तब माता का उसके साथ सम्बन्ध क्यों नहीं माना जायगा?
देसाई–मैंने आपकी यह बात भी मानी।
देवदूतने लिखा-‘अपनी गलती मानने की आदत है, मगर अपना हठ जल्दी छोड़नेकी आदत नहीं है।’ स्वस्थ होकर देसाईकी स्त्री भीतर चली गयी।
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देसाई–मैं रोजाना पूजा किया करता हूँ। उसके बारेमें आपने क्या लिखा?
देवदूतने एक पृष्ठ खोलकर दिखलाया। उसपर लिखा था‘धार्मिकताके दिखावे से पब्लिक की श्रद्धा लेनेका ढोंग करता है। पूजा नहीं करता है; क्योंकि देसाई नास्तिक है।’
देसाई–मैंने परसाल एक हजार मुहताजोंको भोजन कराया था, उसके बारे में आपने क्या लिखा? | देवदूतने एक पन्ना खोलकर दिखलाया। देसाई पढ़ने लगे‘पब्लिक से मुफ्त में वाहवाही लूटने का एक षड्यन्त्र मात्र; क्योंकि देसाईके मनमें दया नहीं है।’
देसाई-मैं पब्लिकके जलसों में शरीक होता हैं और लेक्चर देता हूँ, उसके लिये क्या लिखा?
देवदूतने एक सफा दिखाया। लिखा था-‘ताकि लोग उसे समय के साथ चलनेवाला समझे। हालाँकि यह आदमी परिवर्तन का परम शत्रु है।
देसाई–आपने तो मेरे हृदयकी छिपी बातें लिख रखी हैं।
देवदूत-क्योंकि तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते हो।
देसाई–मैं आजतक, कितने बुरे काम कर चुका?
दूत–एक हजार। देसाई और अच्छे काम मैंने कितने किये?
दूत–पाँच।
देसाई-बस?
दूत–बस।
देसाई–तो सुनिये साहब! सच बात यह है कि न तो मैं परमात्मा को मानता हूँ और न उसके दूत को।
दूत लिखने लगा। लिख चुकनेपर देसाईने पढ़ा कि ‘मुझे प्रत्यक्ष में देखकर भी प्रमाण चाहनेवाला देसाई वज्र मूर्ख है और कलक्टरी के काबिल नहीं। इसका दिमाग खराब है और काबिले पागलखाने के है।
अन्तिम प्रणाम करनेके लिये तब तक काशीनाथ वहाँ आया। वह घरसे निकल जानेकी तैयारी कर आया था।
काशीनाथ-पिताजी! मैं नालायक हूँ, इसलिये मुझे घरसे चले जानेकी आज्ञा दीजिये। मैं तैयार होकर विदा माँगने आया हूँ।
देसाई–नहीं बेटा! तुम कहीं मत जाओ। तुम वकील बन सकते हो। मेरा खयाल गलत था। जो आदमी जिस कामको पसन्द करे, उसके लिये वही काम लाभदायक हो सकता है।
काशीनाथ-आपने मेरी माताको चोट पहुँचायी है।
देसाई-गुस्सेसे बेजा बक गया था। उसके लिये मैं तुम्हारी मातासे और तुमसे माफी माँगता हूँ। चूँकि तुम बालिग हो गये हो और बालिग लड़का बतौर दोस्तके होता है, इसलिये तुम मुझे माफ करो।
काशीनाथकी आँखों में आँसू भर आये। वह अपने पिताके चरणों में गिर पड़ा और रोने लगा। देसाईने उठकर उसको छातीसे लगा लिया और कहा–’आजतक मैं पाखंडी था. नास्तिक था और घमण्डी था। मैं नकली काम किया करता था। आज परमात्माने मेरी आँखें खोल दीं। जो नहीं जाना था, सो जान लिया और जो नहीं देखा था, सो देख लिया। ईश्वरकी यह एक बड़ी कृपा है कि जो मुझपर उतरी।
काशीनाथ बहुत प्रसन्न हुआ और भीतर गया। यात्राकी तैयारी कैन्सिल कर दी गयी। सब घर प्रसन्न था। पर यह कोई नहीं जानता था कि यह परिवर्तन हुआ कैसे? | देसाईने देखा कि देवदूत लिख रहा है-‘आज देसाईने प्रतिज्ञा
की कि वह अपने नकली जीवनको छोड़ देगा और असली जीवनको ग्रहण करेगा। आज उसके जीवनमें एक खास परिवर्तन हो गया। भविष्यमें वह नेक आदमी बननेकी कोशिश करता रहेगा।
अति उत्तम कहानी।
बहुत आनन्द आया
जय श्री कृष्ण