मूर्तिमान परोपकार (प्रेरक कहानी) | Prerak Hindi Kahani

Last Updated on July 22, 2019 by admin

हिंदी कहानी : Hindi Kahani

वह आपादमस्तक गंदा आदमी था। मैली धोती और फटा हुआ कुर्ता उसका परिधान था। सिरपर कपड़े की एक पुरानी गोल टोपी लगाता था, जिसमें एक सुराख़ भी था। उसकी कमर कमान बन गयी थी। बाल चाँदी और मुँह वेदान्ती। चेहरे पर झुर्रियाँ थीं। दो भूरी आँखें गहरे गड्ढों में से झाँकती थीं। उसके शरीरकी हड्डियाँ और नसें उभरी हुई थीं। कहीं-कहीं मांस सिकुड़कर लटक गया था।

स्कूलके सामनेवाली झोपड़ी में उसने एक छोटी-सी दूकान बना रखी थी, जहाँसे बच्चों को स्याही, कलम, पेंसिल, कापी आदि छोटी छोटी चीजें प्राप्त हो जाया करती थीं। उसी दूकान से उसका जीवन निर्वाह होता था। सुना जाता था कि उसके पास कुछ खेती भी थी और वह एक गाँव में रहता था। उससे लड़कों ने खेती छीन ली थी और उसे घरसे निकाल दिया था। उसने भी कभी अच्छे दिन देखे थे। अब तो वह किसी प्रकार जीवन के दिन पूरे कर रहा था।

सभ्यताके नाते मैं उस गंदे और गरीब आदमी को ‘बाबाजी’ कहा करता था। वास्तवमें मुझे उसकी सूरत से, चाल-ढालसे और उसकी बोल-चालसे अत्यन्त घृणा थी। हाथ में एक चिलम लिये, जिसमें एक छोटा-सा चिमटा बँधा रहता था, जब शाम को वह धीरे-धीरे चलता हुआ मेरे पास स्कूल में आता था, तब मैं अपने मन में उसे कई दर्जन गालियाँ दिया करता था।

कई बार मैं ऐसी हरकतें करता जिससे वह स्कूलके चबूतरे पर बैठकर चिलम पीना और खाँसना छोड़ दे। मैं नहीं चाहता था कि वह मेरे पास आया करे। जब वह आकर बैठता, तब मैं उठकर अलहदा टहलने लगता था। जब वह मुझसे बातें करने लगता, तब मैं कोई किताब पढ़ने लगता। मगर मेरी इस बेजारी का कोई असर उसपर नहीं पड़ता था। जहाँ शाम हुई, वह चिलम लेकर आ बैठता ! कभी-कभी कहता ‘मास्टर साहबने रोटी तो बना ली होगी?’ ‘हाँ बना ली। ‘सब्जी क्या बनायी थी?’ ‘आलू बनाये थे।” ‘थोड़ी सब्जी बची भी होगी !’

इस प्रकार वह रोजाना मुझसे कुछ सब्जी या दाल ले लिया करता था। फिर एक काले रूमालमें बँधे दो बाजरेके टिक्कड़ निकालता और बैठकर खाने लगता। यह देखकर मेरा जी जल उठता। गंदे कपड़े, गंदी रोटियाँ और खानेका गंदा तरीका। वह यह तो जानता ही न था कि सफाई क्या वस्तु होती है। उस बूढेने मेरा जीवन दूभर कर डाला था। जितना खून रोजाना बनता था, उससे दूना जल जाता था। उसे स्कूलमें आनेसे कैसे रोकें, यही चिन्ता मुझे दिन-रात सताती रहती थी। अन्तमें मैंने एक तरकीब सोच निकाली। शामको जब वह स्कूलके चबूतरेपर आकर बैठा, तब मैं गरजकर बोला
‘बाबाजी ! कल शामको जब तुम आये थे तब मेजपर दस रुपयेका एक नोट रखा था।’ ‘ना महाराज ! मुझे तो पता नहीं!’ हाथ जोड़कर रुलासे स्वरमें उसने उत्तर दिया।

‘इस प्रकार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ानेसे तुम यह साबित नहीं कर सकते कि तुमने नोट नहीं उठाया। मैं तुमसरीखे नीच लोगोंको खूब पहचानता हूँ। | ‘पहचानते होंगे महाराज ! भगवान् जाने जो मैंने वह नोट देखा भी हो ।’

‘बगला भगतों वाली बातें छोड़ो। अगर तुम बुरे न होते तो तुम्हारे लड़के तुमको घरसे क्यों निकालते? कमीना कहींका– भाग जा यहाँसे। खबरदार जो फिर कभी इधरको रुख किया !’

वह मेरी तरफ देखता हुआ, चिलम उठाकर चल दिया। मैंने उसका चेहरा देखा। वहाँपर दिल हिला देने वाला एक दु:खी दिखलायी पड़ा। उसका दिल टूट गया था। उसकी आँखें कह रही थीं- ‘मैं गरीब हूँ, असहाय हूँ, निर्बल हूँ; परंतु इतना नीच नहीं हूँ। कि किसीकी चोरी करूं।’

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उस दिनसे उसका आना-जाना बंद हो गया। बोल-चालका तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस तरहसे मेरे दिन आरामसे कटने लगे। दिल दिमाग की बेचैनी खतम हो गयी। मैं प्रसन्न रहने लगा। । कुछ दिनों बाद वर्षा ऋतु शुरू हो गयी। प्रायः प्रतिदिन रातको वर्षा होने लगी। खैर, कोई बात नहीं। वर्षा ऋतुमें वर्षा तो होगी ही परंतु एक रातको तो वर्षाने सीमा तोड़ दी। संध्या-समयसे जो वर्षा शुरू हुई तो थमनेका नाम ही न लिया। मैंने जल्दीसे भोजन बनाया और स्कूलके बरामदेमें चारपाई पर लेट गया। नींद नहीं आ रही थी। तीन घंटे बीत गये, परंतु वर्षा समाप्त न हुई । न मालूम क्यों आज पहली बार मुझे भय लगा। वर्षा के शोरके अतिरिक्त कोई आवाज नहीं आ रही थी। उस स्कूलसे गाँव आधा मील दूर था। न तो किसी आदमी की आवाज सुनायी पड़ती थी और न कोई रोशनी ही दृष्टिगोचर हो रही थी। कुत्ते भी नहीं भौंक रहे थे। चारों तरफ घोर सन्नाटा छाया

हुआ था। झींगुरों की झाँझ बज रही थी। मेढकों का तबला बज रहा था और बरसात झमाझम नाच रही थी। केवल बाबाजी की झोपड़ी अवश्य सामने थी, परंतु शायद आज वह भी सबेरे सो गया था। खाँसने की भी आवाज नहीं आ रही थी।

मुझे जो भयका वातावरण घेरे हुए था, वह अकारण न था। थोड़ी देर बाद जब मैं लघुशंका के लिये उठकर चारपाई से नीचे उतरा तो मेरी चीख निकल गयी। मैं उछलकर चारपाईपर जा बैठा। मेरा हृदय जोरजोरसे धक्-धक् करने लगा। चारपाईके नीचे एक साँप लेटा हुआ था। मैंने तकिये के नीचेसे दियासलाई निकाली। वह सरदी खा गयी थी। कई तीलियाँ रगड़ीं, परंतु वह जली नहीं।

लाचारीसे मैंने जोर से दूसरी चीख मारी। शायद बाबाजीने सुनी हो। परंतु वह बेचारा मेरी सहायताके लिये क्यों आने लगा? मरता क्या न करता? मैंने भगवानका नाम लिया। हिम्मत बाँधकर चारपाई के सिरहाने से उतरकर कमरे में गया। बक्स में से नयी दियासलाई निकाली और लालटेन जलायी। एक हाथमें लाठी और दूसरे हाथमें लालटेन लेकर बाहर निकला, परंतु साँप गायब था। मैं लालटेन फर्शपर रखकर चारपाईपर बैठ गया, परंतु भयके कारण हृदय काँप रहा था। उधर वर्षाने और भी जोर पकड़ रखा था। क्षण-क्षणमें बिजली चमक रही थी। बादल भी खूब गरज रहे थे। अन्तमें सोच-विचारकर शर्मको एक तरफ रखकर लालटेन उठायी और मैं लाठी लिये हुए बाबाजी की झोपड़ीके सामने जा खड़ा हुआ। मैंने धीरेसे पुकारा–’बाबाजी!’

परंतु कोई उत्तर न मिला।
‘बाबाजी-बाबाजी’ लगातार जोरसे मैंने दूसरी और तीसरी आवाज लगायी। शायद बाबाजी गहरी नींदमें सो रहे थे। फिर मुझे यह भी विचार आया कि कहीं किसी साँपने उसे काट न खाया हो। चटाईपर जमीनपर सोता था बेचारा। परंतु यह असम्भव था, क्योंकि वह एक माना हुआ सँपेरा था। तब मैंने जोर से झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया। अंदरसे आवाज आयी

‘कौन है?’ ‘मैं हूँ।’
‘कौन ? मास्टरजी।’ ‘हाँ।
‘क्या बात है?’ बाहर आकर वह बोला।
‘मुझे वहाँ डर लगता है। तुम वहाँ चलो।’
‘कहाँ चलूँ ?’ ‘स्कूलमें ।’ ‘क्यों?’
‘अभी-अभी एक भयानक साँप मेरी चारपाईके नीचे लेटा था।’
‘न महाराज ! मैं स्कूलमें नहीं जाता। मैं तो चोर हूँ।’
‘बाबाजी ! वह बात और ही थी, मुझे मुसीबतसे बचाओ।’
‘चले जाओ यहाँसे!’ उसने गरजकर कहा।
मैं निराश होकर लौट चला। मुझे बाबाजीपर बड़ा क्रोध आ रहा था। सहसा वह बोला-‘मास्टरजी ! जरा सुनो तो।’
मैंने सोचा कि दयालु भगवान्ने उसके दिलमें दया भर दी। मैं लौटकर उसके पास जा खड़ा हुआ। वह बोला
‘कितना बड़ा साँप था?’ ‘होगा कोई दो गज लंबा!’ ‘हूँ’ कहकर उसने मुँह फेर लिया।
‘हूँ’ क्या बाबाजी ?’ मैंने नम्रतासे पूछा।
‘कुछ नहीं। कौड़िया नाग होगा। उसका काटा पानी नहीं माँगता।’
‘तो फिर? मैंने गिड़गिड़ाकर कहा।
‘तो फिर मैं क्या करूँ ! तुम जाओ।’ उसकी जीभ लड़खड़ा रही थी।
मुझे बड़ी निराशा हुई। उसने वापस बुलाकर मेरा भय और भी बढ़ा दिया था। मैंने सोचा कि इस बूढेका शरीर जितना गंदा है, उससे भी ज्यादा इसका मन गंदा है। मेरे जीमें आया कि इस स्वार्थी बूढेकी गरदन मरोड़ दें।
मैं फिर मुड़ा। उसका चेहरा देखा तो उसके आँसू बह रहे थे। मैं पश्चात्ताप की आगमें जलने लगा। वह कठोर हृदय न था भावुक हृदय था। मैंने पास जाकर कहा-
‘मुझे क्षमा करो, बाबाजी ! मैंने चोरीकी बात झूठ कही थी। मेरी आवाज आँसुओं में डूब गयी । ‘रोते हो मास्टरजी! भला, इसमें तुम्हारा क्या अपराध? जब मेरे लड़कोंने ही मुझे घरसे निकाल दिया, तब दूसरों की क्या शिकायत? अपना अपना भाग्य है बाबू !’ उसने चुपकेसे अपने आँसू पोछ लिये।
‘नहीं बाबाजी ! मैं बड़ा पापी हूँ। मेरी हिचकी बँध गयी। ‘पागल हो गये हो मास्टरजी !’
वह बातें करता हुआ मेरे साथ स्कूल में आ गया। काफी देरतक बैठा बैठा मुझे साँपों के किस्से सुनाता रहा। अन्तमें वह बोला
‘कितना ही जहरीला साँप हो मैं उसे हाथ से पकड़ सकता हूँ।’ ‘तो साँप काटेका मन्त्र भी है आपके पास बाबाजी!’
‘मन्त्र होता तो है मास्टर जी! परंतु मुझे मालूम नहीं। मैं तो मुँहसे चूसकर जहर बाहर निकाल देता हूँ।’
‘मुहँ से? और जहर तुमपर असर नहीं करता?’
बाबाजी ने हँसकर उत्तर दिया- असर अवश्य करता है बाबू! परंतु उसके लिये मेरे पास एक दवा है। झोपड़ी में एक काली-सी बोतल रखी है। उसमें एक बूटी का अर्क भरा है। जहर चूसकर उसे थूक देता हूँ और उस अर्क से तुरंत दो कुल्ले कर डालता हूँ फिर कोई असर नहीं होता। जब मैं किसी का जहर खींचने जाता हूँ तब वह काली बोतल साथ लेता जाता हूँ।
बातें करते-ही-करते बाबाजी वहीं फर्श पर लेट गये और तुरंत सो गये। उनकी नाक बजने लगी। परंतु मुझे नींद कहाँ। चारपाई पर करवटें बदलते-बदलते काफी देर हो गयी। मुझे प्यास लग आयी। पानीका घड़ा कमरेके अन्दर था। साँपके डरसे एक बार फिर कलेजा कॉप गया। लेकिन यह सोचकर साहस बाँधा कि बाबाजी तो पास ही हैं। मैं पानी पीनेके लिये उठा। चारपाईसे उतरकर जूता पहना। लेकिन यह क्या! पैर पर मानो किसीने जलता हुआ अँगारा रख दिया। उसी साँपने कहींसे आकर मेरे पैर में जोरसे डंस लिया था। मेरी आत्माने कहा–’तुमने चोरीका मिथ्या दोष लगाकर बाबाजी का दिल बेकार दुखाया था, उसका बदला महामायाने ले लिया। दिल दुखाने की सजा बड़ी भयानक होती है, क्योंकि दिल में दिलदारका निवास होता है।’
इसके बाद मैं बेहोश हो गया।

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जब मैं होशमें आया तो धूप फैल रही थी। आकाश साफ था। मेरे आस-पास स्कूली बच्चोंका और कुछ किसानों का जमाव था। स्कूलके आस-पास जिनके खेत थे, वे किसान लोग जमा थे। मेरा सिर घूम रहा था। निर्बलता के कारण उठा नहीं जाता था। पैरमें अब भी कुछ जलन हो रही थी। मैंने किसानों से पूछा-‘बाबाजी कहाँ हैं?’ ‘बाबाजी भगवान के पास पहुँच गये ! एक किसान बोला।
‘कैसे क्या हुआ? मैंने अचकचाकर पूछा।’
वही किसान कहने लगा-‘सुबह जब लड़के स्कूल आ रहे थे तो उनकी लाश झोपड़ीके पास पड़ी मिली। जहर से सारा शरीर नीला पड़ गया था। जीभ सूजकर बाहर निकल आयी थी। मालूम होता है। कि रात में आपको साँपने काटा था। बाबाजीने जहर खींच लिया। परंतु दवा की बोतल झोपड़ी में थी। वहाँ तक जाते-जाते जहर अपना काम कर गया।’

‘बेशक मुझे साँपने काटा था। लेकिन उनको चाहिये था कि बोतल ले आकर जहर खींचते ।’मैंने कहा।
‘तबतक आप मर भी जाते मास्टरजी !’-वही किसान बोला।
मैं फिर बेहोश हो गया।
मैंने बाबाजीकी लाश जलायी। उस स्थानपर पक्का चबूतरा बनवा दिया। वहाँ एक पत्थर लगवा दिया, जिसपर लिखा था
‘मूर्तिमान् परोपकारी बाबाजी’।
जिनको मैंने झूठी चोरी लगायी थी। पर जिन्होंने मेरे पैरका जहर खींचकर अपने प्राण दे दिये। इसे बलिदान को पराकाष्ठा कह सकते हैं। परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दें।
किसीका शरीर गंदा देखकर यह नहीं सोचना चाहिये कि उसका हृदय भी गंदा होगा |
मास्टरजी !

1 thought on “मूर्तिमान परोपकार (प्रेरक कहानी) | Prerak Hindi Kahani”

  1. ये कहानी मैंने ” बच्चों की सौ कहानियां” नाम पुस्तक में पढ़ी थी। इस पुस्तक के संपादक डॉ हरिकृष्ण देवसरे थे।

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