Last Updated on July 24, 2019 by admin
प्रेरणादायक हिंदी कहानि : Inspirational Hindi story
★ कुरुक्षेत्र में महर्षि मुद्गल( Maharishi Mudgal ) शिलोच्छ-वृत्ति से जीवन यापन करते थे । शिलोच्छ वृत्ति अर्थात् धन-धान्य कटे खेत में बिखरे अन्न-कणों को चुन-चुनकर इकट्ठा करना । महर्षि मुद्गल इस प्रकार एक द्रोण अन्न इकट्ठा करते थे । चौतीस सेर का एक द्रोण होता है । पंद्रह दिन में उस एकत्रित अन्न का उपयोग कर लेते थे । होम, हवन, यज्ञ-याग करके इतनी पवित्रता से वे जीते थे कि उनकी आहुतियों को ग्रहण करने के लिए देवताओं सहित इन्द्र भी उपस्थित हो जाते थे । वे ऐसे उत्कृष्ट महर्षि थे ।
★ अतिथि-सत्कार के प्रति वे बडे ही निष्ठावान थे । अतिथि-सत्कार में उनकी कीर्ति देश-देशांतर, लोक-लोकांतर तक विख्यात थी । महर्षि मुद्गल के पास एक बार दुर्वासा ऋषि का आगमन हुआ । दुर्वासा सदा भक्तों की कसौटी करते हुए उनकी भक्ति और यश अभिवृद्धि के लिए निमित्त ढूँढा करते थे । जैसे सुवर्ण को तपाया जाता है तो उसका विजातीय तत्त्व विनष्ट हो जाता है । वजन तो घटता है लेकिन कीमत बढती है ।
★ ऐसे ही दुर्वासा जहाँ-जहाँ देखते कि कोई भक्ति में, योग में, साधन में आगे है तो उसकी कसौटी करके उसे परिशुद्ध बनाते और भक्ति, ज्ञान और तपस्या को निखार दिया करते । उनके अंतर में करुणा उमडती रहती थी, पर बाहर से क्रोधावेश की ज्वालाएँ दिखाते । अभक्तों को एवं संसारियों को ईश्वर की एवं भक्तों की महिमा का प्रतिबोध देने के लिए ऐसी लीलाएँ किया करते थे ।
★ महर्षि मुद्गल ( Maharishi Mudgal )यज्ञ करके भोजन की तैयारी में थे उसी समय दुर्वासाजी का आगमन हुआ । उन्होंने कहा :
‘‘मुद्गल ! मैं भूखा और प्यासा हूँ । मेरे भोजन और जलपान की व्यवस्था कर ।
कटु, तिक्त वचन, पागलों सा वेश, बिखरे बाल… इस वेश-भूषा में दुर्वासा ऋषि डाँट, फटकार बताते हुए मुद्गल ऋषि के पास आये । मुद्गल ऋषि ने बडे ही स्नेह से उनके चरण पखारे, उन्हें भोजन कराया और शीतल जल पिलाया । पूरा परिवार जो अन्न पंद्रह दिन में खाकर परितृप्त होता वह सब दुर्वासा की प्रथम सेवा में समाप्त हो गया । पूरा परिवार भूखा रहा ।
★ पंद्रह दिन पश्चात् पुनः परीक्षा की घडी आयी । ३४ सेर अन्न इकट्ठा हुआ था । वे उससे अमावस्या और पूर्णिमा को यज्ञ किया करते थे । फिर से दुर्वासाजी पहुँच गये और पहले की भाँति ही सब अन्न खा-पीकर रवाना हो गये । इसी प्रकार वे छः छः बार आते रहे और मुद्गल के परिवार को विकट उपवास-व्रत के चपेट में डालते रहे । तीन महीने तक पूरा परिवार भूखा ही रहा । लेकिन दुर्वासा के इस कोप युक्त अनपेक्षित व्यवहार पर भी मुद्गल या उनकी पत्नी और बच्चों के चित्त में शोक, घृणा या साधु के प्रति कोई दुर्भाव उत्पन्न न हुआ । किसीके भी चित्त में अशांति नहीं, हृदय में क्षोभ नहीं । निष्काम सेवा से उनके चित्त में भूख और प्यास निवृत्त करने की एक रसायनी शक्ति उत्पन्न होने लगी ।
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★ दुर्वासा हैरान हुए कि तीन-तीन महीने से यह परिवार भूखा है और मैं अपने बेढंगे आचरणों से उन्हें परेशानी में डालता रहा हूँ फिर भी इस परिवार में किसीका मन क्षुब्ध नहीं हुआ । किसीके भी चित्त में मेरे प्रति असम्मान पैदा नहीं हुआ । दुर्वासा प्रसन्न हो गये और बोल उठे : ‘‘क्या चाहिए वत्स ! बोलो ?
मुद्गल : ‘‘महाराज ! आपकी प्रसन्नता ही हमारे लिए सब कुछ है ।
इतनी सेवा करने के पश्चात् भी महर्षि मुद्गल ने कुछ माँगा नहीं । विचार कीजिए कि कितनी निष्कामता रही होगी उनकी विशुद्ध अंतःकरण में ! दुर्वासा ऋषि उनसे प्रसन्न होकर वापस चले गये । दुर्वासा की प्रसन्नता से देवताओं को और भी अपार तसल्ली मिली ।
★ देवताओं के राजा इन्द्र ने दूत भेजा कि आप सशरीर स्वर्ग में पधारें । अब मृत्युलोक में आपको रहने की कोई आवश्यकता नहीं । महर्षि मुद्गल ने देवदूत से कहा कि : ‘‘पहले आप स्वर्ग में क्या-क्या सुख है और क्या-क्या दुःख है यह तो बता दीजिए । सात कदम जो एक दूसरे के साथ चलते हैं तो मित्र बन जाते हैं और सदा एक दूसरे का हित चाहते हैं । आप मेरे पास आये, मेरे लिए आये तो कृपा करके मुझे स्वर्ग का लाभ-हानि, सुख-दुःख क्या है यह तो बताइये ।
★ तब देवदूत ने कहा कि :
‘‘वहाँ सोमपान करने को मिलता है । स्वर्ग में नंदनवन है, कामधेनु जैसी गौ है, अप्सराएँ सदैव सेवा में तत्पर रहती हैं । आदि आदि सुख सुविधाओं का बयान देवदूत ने किया और आगे कहा कि :
‘‘बडे में बडा स्वर्ग का दोष यह है कि पुण्य खत्म होने पर आदमी को मृत्युलोक में गिराया जाता है, उसका पुनः पतन होता है ।
महर्षि मुद्गल ने कहा : ‘‘मुझे ऐसा स्वर्ग नहीं चाहिए कि जहाँ से फिर पतन हो । मुझे ऐसी कोई चीज नहीं चाहिए जिसको पाने के बाद फिर मुझे संसार में लौटना पडे ।
यत्र गत्वा न शौचन्त न व्यथन्ति चरन्ति वा ।
तदहं स्थानमन्यन्तं मार्गदिष्यामि केवलम् ।।
★ जहाँ जाने के बाद व्यथा नहीं होती, पतन नहीं होता उसी मार्ग को मैं पाना चाहता हूँ । मुद्गल ने कहा : ‘‘आप आये हैं, मुझे इन्द्रदेव ने आदर से बुलावा भेजा है सबको धन्यवाद ! लेकिन मैं अपनी सेवा का पुरस्कार स्वर्ग नहीं चाहता… ऐसा स्वर्ग जहाँ जाने के पश्चात् व्यथा और चिंता हो । मेरे लिए मेरे सेव्य की प्रसन्नता ही मेरी सेवा का पुरस्कार है । आपको धन्यवाद ! आप जहाँ से आये हों, कृपया वहाँ जा सकते हैं । और देवदूत को सम्मान सहित विदा दी ।
★ महर्षि मुद्गल ने स्वर्ग का त्याग किया, पर उसका अहंकार तक उनके मन में नहीं जगा । ऐसे ही भगवान के जो सच्चे भक्त होते हैं, वे दुःख सहते हैं, कष्ट सहते हैं लेकिन मन में कभी फरियाद नहीं करते क्योंकि अंतर में निष्कामता अधिक होगी उतना ही परिशुद्ध आत्मरस उनमें प्रकट होता रहेगा । अतः मन में दृढ निश्चय एवं सद्भावना भरते चलो कि भगवद् सेवार्थ ही आज से सारे कर्तव्य कर्म करूँगा । वाहवाही के लिए नहीं, किसीको हल्का दिखाने के लिए नहीं, कोई नश्वर चीज पाने के लिए नहीं, जो भी करूँगा परमात्मा के प्रसाद का अधिकारी होने के लिए, परमात्मा को प्रेम करने के लिए परमात्मा के दैवी कार्य सम्पन्न करने के लिए ही करूँगा । इस प्रकार परमात्मा और ईश्वर-सम्प्राप्त महापुरुषों के दैवी कार्यों में अपने आप को सहभागी बनाकर उस परमदेव के प्रसाद से अपने आपको पावन बनाता रहूँगा ।
श्रोत – ऋषि प्रसाद मासिक पत्रिका : Hindi Storie with Moral