Last Updated on July 22, 2019 by admin
स्वस्थ निरोगी जीवन के सरल वास्तु उपाय : vastu tips for health and wealth in hindi
‘वास्तु’ शब्दको अर्थ है-निवास करना। जिस भूमि पर मनुष्य निवास करते हैं, उसे वास्तु’ कहा जाता है। वास्तु शास्त्र में गृह-निर्माण सम्बन्धी विविध नियमों का प्रतिपादन किया गया है। उनका पालन करने से मनुष्य को अन्य कई प्रकारके लाभों के साथ-साथ आरोग्यलाभ भी होता है। वास्तु शास्त्र का विशेषज्ञ किसी मकान को देखकर यह बता सकता है कि इसमें निवास करनेवालेको क्या-क्या रोग हो सकते हैं। इस लेखमें संक्षिप्त रूपसे ऐसी बातोंका उल्लेख करनेकी चेष्टा की जाती है, जिनसे पाठकोंको इस बातका दिग्दर्शन हो जाय कि गृह-निर्माणमें किन दोषोंके कारण रोगोंकी उत्पत्ति होना सम्भव है।
१. भूमि परीक्षा –
✶भूमिके मध्यमें एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा गड्डा खोदे। खोदनेके बाद निकाली हुई सारी मिट्टी पुनः उसी गड्डेमें भर दे। यदि गड्डा भरनेसे मिट्टी शेष बच जाय तो वह उत्तम भूमि है। यदि मिट्टी गड्के बराबर निकलती है। तो वह मध्यम भूमि है और यदि गड्डेसे कम निकलती है तो वह अधम भूमि है।
✶दूसरी विधि-उपर्युक्त प्रकार से गड्डा खोदकर उसमें पानी भर दे और उत्तर दिशाकी ओर सौ कदम चले, फिर लौटकर देखे। यदि गड्डे में पानी उतना ही रहे तो वह उत्तम भूमि है। यदि पानी कम (आधा) | रहे तो वह मध्यम भूमि है और यदि बहुत कम रह जाय तो वह अधम भूमि है।
✶अधम भूमि में निवास करनेसे स्वास्थ्य और सुख की हानि होती है।
✶ऊसर, चूहों के बिल वाली, बाँबी वाली, फटी हुई, ऊबड़-खाबड़, गड्डों वाली और टीलों वाली भूमिका त्याग कर देना चाहिये।
✶जिस भूमिमें गड्डा खोदनेपर कोयला, भस्म, हड्डी, भूसा आदि निकले, उस भूमिपर मकान बनाकर रहनेसे रोग होते हैं तथा आयुका ह्रास होता है।( और पढ़े – वास्तु शास्त्र में भवन निर्माण के लिए ‘जीवंत भूखंड’ अनिवार्य क्यों है ?)
२. भूमि की सतह –
✶पूर्व, उत्तर और ईशान दिशा में नीची भूमि सब दृष्टियों से लाभप्रद होती है। आग्नेय,
दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य और मध्यमें नीची भूमि रोगोंको उत्पन्न करने वाली होती है।
✶दक्षिण तथा आग्नेय के मध्य नीची और उत्तर एवं वायव्यके मध्य ऊँची भूमिका नाम ‘रोगकर वास्तु’ है,
जो रोग उत्पन्न करती है। ( और पढ़े – वास्तु के अनुसार कैसा हो आपका रसोईघर)
३. गृहारम्भ –
✶वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष और फाल्गुनमास में करना चाहिये। इससे आरोग्य तथा धन-धान्य की प्राप्ति होती है।
✶नींव खोदते समय यदि भूमि के भीतर से पत्थर या ईंट निकले तो आयु की वृद्धि होती है।
✶ यदि राख, कोयला, भूसी, हड्डी, कपास, लोहा आदि निकले तो रोग तथा दुःखकी प्राप्ति होती है।
४. वास्तु पुरुष के मर्म स्थान-
✶वास्तुपुरुषके मर्म स्थान-सिर, मुख, हृदय, दोनों स्तन और लिङ्ग-ये वास्तुपुरुषके मर्म-स्थान हैं। वास्तुपुरुष का सिर ‘शिखी’ में, मुख ‘आप’ में, हृदय ‘ब्रह्मा’ में, दोनों स्तन ‘पृथ्वीधर’ तथा ‘अर्यमा’ में और लिङ्ग ‘इन्द्र’ तथा ‘जय’ में है (देखें-वास्तुपुरुषका चार्ट)।
✶ वास्तुपुरुष के जिस मर्म-स्थानमें कील, खम्भा आदि गाड़ा जायगा, गृहस्वामीके उसी अङ्गमें पीडा या रोग उत्पन्न हो जायगा।
✶ वास्तुपुरुष का हृदय (मध्यका ब्रह्म-स्थान) अति मर्मस्थान है। इस जगह किसी दीवार, खम्भा आदिका निर्माण नहीं करना चाहिये। इस जगह जूठे बर्तन, अपवित्र पदार्थ भी नहीं रखने चाहिये। ऐसा करनेपर अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं।
५. गृहका आकार –
✶चौकोर तथा आयताकार मकान उत्तम होता है। आयताकार मकानमें चौड़ाईकी दुगुनीसे अधिक लम्बाई नहीं होनी चाहिये।
✶ कछुए के आकार वाला घर पीडादायक है।
✶ कुम्भ के आकार वाला घर कुष्ठरोग प्रदायक है।
✶ तीन तथा छः कोनवाला घर आयुका क्षयकारक है।
✶ पाँच कोनवाला घर संतान को कष्ट देनेवाला है।
✶ आठ कोनवाला घर रोग उत्पन्न करता है।
✶ घरको किसी एक दिशामें आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशाओं में
समानरूपसे बढ़ाना चाहिये।
✶ यदि घर वायव्य दिशामें आगे बढ़ाया जाय तो वात-व्याधि होती है।
✶ यदि वह दक्षिण दिशामें बढ़ाया जाय तो मृत्यु-भय होता है।
✶ उत्तर – दिशामें बढ़ानेपर रोगोंकी वृद्धि होती है। ( और पढ़े – व्यापारिक प्रतिष्ठानों एवं दुकानों में वास्तुदोष दूर करने के उपाय)
६. गृहनिर्माण की सामग्री –
✶ईंट, लोहा, पत्थर, मिट्टी और लकड़ी-ये नये मकानमें नये ही लगाने चाहिये।
✶ एक मकान में उपयोग की गयी लकड़ी दूसरे मकान में लगानेसे गृहस्वामी का नाश होता है।
✶ मन्दिर, राजमहल और मठ में पत्थर लगाना शुभ है, पर घरमें पत्थर लगाना शुभ नहीं है।
✶ पीपल, कदम्ब, नीम, बहेड़ा, आम, पाकर, गूलर, रीठा, वट, इमली, बबूल और सेमल के वृक्षकी लकड़ी घरके काममें नहीं लेनी चाहिये।
७. गृह के समीपस्थ वृक्ष –
✶ आग्नेय दिशामें वट, पीपल, सेमल, पाकर तथा गूलरका वृक्ष होनेसे पीडा और मृत्यु होती है।
✶ दक्षिणमें पाकर-वृक्ष रोग उत्पन्न करता है।
✶ उत्तरमें गूलर होनेसे नेत्ररोग होता है।
✶ बेर, केला, अनार, पीपल और नीबू-ये जिस घरमें होते हैं, उस घरकी वृद्धि नहीं होती।
✶ घरके पास काँटेवाले, दूधवाले और फलवाले वृक्ष हानिप्रद हैं।
✶ पाकर, गूलर, आम, नीम, बहेड़ा, पीपल, कपित्थ, बेर, निर्गुण्डी, इमली, कदम्ब, बेल तथा खजूर-ये सभी वृक्ष घरके समीप अशुभ हैं।
८. गृह के समीपस्थ अशुभ वस्तुएँ –
✶ देवमन्दिर, धूर्तका घर, सचिवका घर अथवा चौराहेके समीप घर बनानेसे
दुःख, शोक तथा भय बना रहता है।
९. मुख्य द्वार –
✶जिस दिशामें द्वार बनाना हो, उस ओर मकान की लम्बाई को बराबर नौ भागों में बाँटकर पाँच भाग दायें और तीन भाग बायें छोड़कर शेष (बायीं ओरसे चौथे) भागमें द्वार बनाना चाहिये। दायाँ
और बायाँ भाग उसको माने, जो घरसे बाहर निकलते समय हो।
✶ पूर्व अथवा उत्तर में स्थित द्वार सुख-समृद्धि देनेवाला होता है।
✶ दक्षिण में स्थित द्वार विशेषरूप से स्त्रियों के लिये दुःखदायी होता है।
✶ द्वारका अपने-आप खुलना या बंद होना अशुभ है। द्वारके अपने-आप खुलनेसे उन्माद-रोग होता है। और अपने-आप बंद होनेसे दुःख होता है।
१०. द्वार-वेध –
✶ मुख्य द्वारके सामने मार्ग या वृक्ष । होनेसे गृहस्वामीको अनेक रोग होते हैं।
✶ कुआँ होनेसे मृगी तथा अतिसाररोग होता है।
✶ खम्भा एवं चबूतरा होनेसे मृत्यु होती है।
✶ बावड़ी होनेसे अतिसार एवं संनिपातरोग होता है।
✶ कुम्हारका चक्र होने से हृदय रोग होता है।
✶ शिला होने से पथरी रोग होता है।
✶ भस्म होनेसे बवासीर रोग होता है।
✶ यदि घर की ऊँचाई से दुगुनी जमीन छोड़कर वेध वस्तु हो तो उसका दोष नहीं लगता।
११. गृह में जल –
✶जल स्थान-कुआँ या भूमिगत टंकी । पूर्व, पश्चिम, उत्तर अथवा ईशान दिशामें होनी चाहिये। जलाशय या ऊर्ध्व टंकी उत्तर या ईशान दिशामें होनी चाहिये।
✶ यदि घरके दक्षिण दिशामें कुआँ हो तो अद्भुत रोग होता है।
✶ नैर्ऋत्य दिशामें कुआँ होनेसे आयुका क्षय होता है।
१२. घरमें कमरों की स्थिति –
✶ यदि एक कमरा पश्चिम में और एक कमरा उत्तर में हो तो वह गृहस्वामी के लिये मृत्युदायक होता है।
✶ इसी तरह पूर्व और उत्तर दिशामें कमरा हो तो आयुका ह्रास होता है।
✶ पूर्व और दक्षिण दिशामें कमरा हो तो वातरोग होता है।
✶ यदि पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशामें कमरा हो, पर दक्षिण में कमरा न हो तो सब प्रकारके रोग होते हैं।
१३. गृहके आन्तरिक कक्ष –
✶ स्नानघर ‘पूर्व’ में, रसोई ‘आग्नेय’ में, शयनकक्ष ‘दक्षिण’ में, शस्त्रागार, सूतिकागृह, गृह-सामग्री और बड़े भाई या पिताका कक्ष ‘नैऋत्य’ में, शौचालय नैऋत्य’, ‘वायव्य’ या ‘दक्षिणनैऋत्य’ में, भोजन करनेका स्थान ‘पश्चिम’ में, अन्नभण्डार तथा पशु-गृह ‘वायव्य’ में, पूजागृह ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में, जल रखनेका स्थान ‘उत्तर’ या ‘ईशान’ में, धनका संग्रह ‘उत्तर’ में और नृत्यशाला ‘पूर्व, पश्चिम, वायव्य या आग्नेय’ में होनी चाहिये।
✶ घरका भारी सामान नैऋत्य दिशामें रखना चाहिये।
१४. जानने योग्य आवश्यक बातें-
✶ ईशान दिशामें पति-पत्नी शयन करें तो रोग होना अवश्यम्भावी है।
✶ सदा पूर्व या दक्षिणकी तरफ सिर करके सोना चाहिये। उत्तर या पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे शरीरमें रोग होते हैं तथा आयु क्षीण होती है।
✶ दिन में उत्तर की ओर तथा रात्रि में दक्षिण की ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये।
✶ दिनमें पूर्वकी ओर तथा रात्रिमें पश्चिमकी ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करनेसे आधासीसीरोग होता है।
✶ दिन के दूसरे और तीसरे पहर यदि किसी वृक्ष, मन्दिर आदि की छाया मकान पर पड़े तो वह रोग उत्पन्न करती है।
✶ एक दीवार से मिले हुए दो मकान यमराज के समान गृहस्वामी का नाश करने वाले होते हैं।
✶ किसी मार्ग या गली का अन्तिम मकान कष्टदायी होता है।
✶ घर की सीढ़ियाँ (पग), खम्भे, खिड़कियाँ, दरवाजे आदिकी ‘इन्द्र-काल-राजा’-इस क्रमसे गणना करे। यदि अन्तमें ‘काल’ आये तो अशुभ समझना चाहिये।
✶ दीपक (बल्ब आदि)-का मुख पूर्व अथवा उत्तरकी ओर रहना चाहिये।
✶ दन्तधावन (दातुन), भोजन और क्षौरकर्म सदा पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके ही करने चाहिये।