शुभचिन्तन का प्रभाव (प्रेरक कहानी) | Prerak Hindi Kahani

Last Updated on July 22, 2019 by admin

हिंदी कहानी : Hindi Kahani

सेठ गंगासरन जी काशी में रहते थे। वे भगवान् शंकरजी के सच्चे भक्त थे। सोमवती अमावस्या का प्रात:काल था। मणिकर्णिकाघाट पर अनेक नर-नारी, साधु-संन्यासी स्नान कर रहे थे। ‘जय गंगे’, ‘जय ‘शंकर’ और ‘जय सूर्यदेव’ के नारे लगाये जा रहे थे। भक्त गंगासरनजी भी स्नान कर रहे थे। तबतक अलवर के मन्दिर पर से कोई गंगामें कूदा और डुबकियाँ खाने लगा। किसीकी हिम्मत न पड़ी, जो उस डूबने वाले को बचाने की कोशिश करता, क्योंकि कभी-कभी डूबनेवाला अपने बचानेवालेको इस तरह पकड़ता है कि दोनों डूब मरते हैं; परंतु सेठजीका हृदय करुणासे भर गया। वे तैरना भी जानते थे। चार हाथ मारे और डूबनेवाले को जा थामा। किनारे पर लाकर देखा तो वह सेठजीका ही मुनीम नन्दलाल था। पेटसे पानी निकालनेके बाद जब नन्दलालको होश में देखा, तब भक्तजी ने कहा-
‘मुनीमजी ! आपको किसने गंगाजी में फेंका था?
‘किसीने नहीं।’
‘तो क्या किसी का धक्का खाकर आप गिरे थे?
‘नहीं तो।’
‘फिर क्या बात थी?’
‘मैं स्वयं ही आत्महत्या करना चाहता था।’
‘वह क्यों?’
‘मैंने आपके पाँच हजार रुपये सट्टे में बरबाद कर दिये हैं। मैंने सोचा कि आप मुझे गबन के अभियोग में गिरफ्तार कराकर जेल में बंद करा देंगे। अपनी बदनामी से बचनेके लिये मैंने मर जाना उत्तम समझा था।’
एक शर्त पर मैं तुम्हारा अपराध क्षमा कर सकता हूँ।
‘वह शर्त क्या है?’
प्रतिज्ञा करो कि आजसे किसी प्रकारका कोई जुआ नहीं खेलोगे-सट्टा नहीं करोगे।
प्रतिज्ञा करता हूँ और जगद्गुरु शंकरभगवान्की शपथ खाता हूँ।
‘जाओ, माफ किया । पाँच हजारकी रकम मेरे नाम घरेलू खर्चमें डाल देना।’
‘परंतु अब आप मुझे अपने यहाँ मुनीम नहीं रखेंगे?’
‘रखूँगा क्यों नहीं। भूल हो जाना स्वाभाविक है। फिर तुम नवयुवक हो। लोभ में आकर भूल कर बैठे। नन्दलाल ! मैं तुम्हें अपना छोटा भाई मानता हूँ। चिन्ता मत करो।’
मुनीम ने अपने दयालु मालिकके चरणों में सिर रख दिया।

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अगले वर्ष सेठ गंगासरनजीको कपड़े के व्यापार में एक लाख का मुनाफा हुआ। मुनीम नन्दलाल को फिर लोभके भूतने घेरा। अबकी बार सेठजी के प्राण लेनेकी तरकीब सोची जाने लगी। उसने सोचा–यदि सेठजी बीचमें ही उठ जायँ तो विधवा सेठानी और बालक शंकरलाल मेरे ही भरोसे रह जायँगे। वे दोनों क्या जानें कि ‘मिती काटा और तत्काल धन’ किसे कहते हैं। बुद्धिमानी से भरे हीलेहवाले से यह एक लाख मेरी तिजोरी में जा पहुँचेगा। किसीको कुछ खबर भी न होगी, अन्त में घाटा दिखला दूंगा। व्यापार में लाभ ही नहीं होता, घाटा भी तो होता है।
संध्याका समय था। नन्दलाल अपने घरसे एक गिलास दूध संखिया डालकर सेठके पास ले गया और बोला-‘दस दिन हुए मेरी गायने बच्चा दिया था। आजसे दूध लेना शुरू किया जायेगा। आपकी बहूने कहा-‘पहला गिलास मालिक को पिला आओ। तब हम लोग दूध का उपयोग करेंगे।’
सेठजी बोले-‘गिलास मेजपर रखकर घर चले जाओ।’ मैं भी भोजन करने जा रहा हूँ। सोते समय तुम्हारा लाया हुआ यह दूध मैं अवश्य पी लूंगा।’
मेजपर वह विषाक्त दूध रखकर दुष्ट मुनीम चला गया।

भोजन करके सेठजी आये तो देखा गिलास खाली पड़ा है। सारा दूध पड़ोस की पालतू बिल्ली पी गयी। सुबह सुना कि पड़ोसी की बिल्ली मर गयी। वह क्यों मरी, कैसे मरी-इस बातकी छानबीन नहीं की गयी। पशुके मरने-जीनेकी चिन्ता मनुष्य नहीं करता। दूकानपर सेठको गद्दीपर बैठा देख मुनीमको महान् आश्चर्य हुआ, परंतु वह बोला कुछ नहीं।
रातको स्वप्न में सेठजी को भगवान् शंकरजी के दर्शन हुए। भगवान् कह रहे थे—’तुमने जिस दुष्ट मुनीमको पाँच हजारके गबनके मामले में क्षमा कर दिया था, उसने दूधमें संखिया मिलाकर तुमको समाप्त करनेको षड्यन्त्र रचा था। मैंने प्रेरणा करके बिल्ली भेजी थी और तुम्हारे प्राण बचाये थे। उसी विषसे पड़ोसीकी बिल्ली मरी थी।’
सेठने उसी समय जाकर सेठानी को अपना सपना सुनाया। सुनकर बेचारी सेठानी सहम गयी। फिर सँभलकर बोली-‘जब वह तुम्हारा ऐसा अशुभ चिन्तक है, तब उसे निकाल बाहर करो, कोई दूसरा ईमानदार मुनीम रख लो।’
‘मैं अपने शुभचिन्तनके द्वारा उसका अशुभचिन्तन नष्ट कर डालूंगा। सेठने दृढताके साथ कहा।
‘यह कैसे हो सकता है?’ सेठानीने आश्चर्यचकित होकर प्रश्न किया।
‘मैं अपने मनमें उसके प्रति वैरभावना नहीं रखूँगा, बल्कि प्रेमभावनाको बढ़ाता रहूँगा।’
‘इससे क्या होगा?
‘जब हम किसीके प्रति शत्रुताके विचार रखते हैं, तब वह भावना उसके पास जाकर उसकी शत्रुताको और भी बढ़ा देती है। दिल को दिलसे राह होती है।’
‘मैं नहीं समझी।’

एक दृष्टान्त सुनाता हूँ, तब तुम समझ जाओगी। एक बार बादशाह अकबर प्रधान मन्त्री बीरबल के साथ सैर करने शहर से बाहर निकले। सामने एक लकड़हारा आता दिखायी पड़ा। बादशाह ने पूछा-‘यह लकड़ हारा मेरे प्रति कैसा विचार रखता है ?’ बीरबलने उत्तर दिया-‘जैसे विचार आप उसके प्रति रखेंगे, वैसे ही वह भी रखेगा; क्योंकि दिलकी दिलसे राह है।’ बादशाह एक पेड़ पर चढ़ गये
और कहने लगे-‘साला लकड़ हारा मेरे जंगलकी लकड़ियाँ बिना इजाजत चुराकर काट लाता है और अपना खर्च चलाता है। कल इसे फाँसी देंगे।’ तब तक वह लकड़हारा पास आ पहुँचा। बीरबलने कहा-‘लकड़ हारे ! तुमने सुना या नहीं कि आज बादशाह अकबर मर गया।’ लकड़ हारेने लकड़ी का गट्टा फेंक दिया और वह नाचते हुए बोला-‘बड़ा अच्छा हुआ। बड़ा बदमाश बादशाह था। मीना बाजारमें एक राजपूतनीको बुरी नजरसे देखा तो उसने छाती में कटार घुसेड़ दिया होता, परंतु ‘माता’ कहकर क्षमा माँगी, तब प्राण बचे थे। मैं तो प्रसाद बाँटूगा। खूब मरा !’ बादशाह ने बीरबलका सिद्धान्त मान लिया।
‘फिर क्या हुआ?’ सेठानीकी उत्सुकता बढ़ी।
उसी समय एक वृद्धा घास लिये आती दिखलायी पड़ी। बादशाह पेड़पर ही छिपा बैठा रहा; क्योंकि वह शुभचिन्तन और अशुभचिन्तन का प्रभाव देखना चाहता था। अशुभचिन्तन का प्रभाव वह देख चुका था। अबकी बार शुभचिन्तनका प्रभाव देखनेके लिये बादशाहने कहा‘बीरबल ! वह देखो, बेचारी वृद्धा आ रही है। कमर झुक गयी है,मुँहमें दाँत भी न होंगे। लाठीके सहारे चल रही है। अपनी गायके लिये थोड़ी घास छील लायी है। दस रुपये माहवारी इसकी पेंशन आज से बाँध दो-वजीरे आजम !’ जब बुढिया पास आयी, तब बीरबल कहने लगे–“बूढ़ी माई ! तुमने सुना कि आज आधी रात के समय बादशाह अकबरको काला नाग सूंघ गया। सुबह कबर भी लग गयी।’
बुढ़ियाने घास पटक दिया और रो-रोकर कहने लगी-‘गजब हो गया, राम राम, बड़ा बुरा हुआ। ऐसा दयालु बादशाह अब कहाँ मिलेगा। हिंदू मुसलमान दोनों उसकी दो आँखें थीं। बीरबल प्रधान मन्त्री, मानसिंह सेनापति और टोडरमल खजाना-मन्त्री। फिर गोवध कतई बंद । मजाल क्या कि कोई किसी गायकी पूँछका एक बाल भी खींच ले ! भगवान्, तुम मेरे प्राण ले लेते, बादशाहको न मारते।’
प्रात: स्नानके बाद भक्तजी विश्वनाथ-मन्दिर में गये। पूजन करके हाथ जोड़कर बोले-‘अन्तर्यामी भोलानाथ ! मुझे अपने मुनीम के पतनका आन्तरिक दु:ख है, परंतु मेरे मनमें उसके प्रति जरा भी द्वेष देखें तो बेशक मुझे दण्ड दें। भगवन्! आप मेरे मुनीम का चित्त शुद्ध कर दीजिये। यदि उसकी लोभ-भावना दूर न हुई तो मेरी भक्तिका क्या फल हुआ? काम, क्रोध, लोभ-ये ही तीन मानवके प्रबलतम शत्रु हैं। मुझे अपने जीवनका भय नहीं है; क्योंकि‘तुम रहते जिसके मन भीतर उसको परवाह नहीं होती, जंगलमें कितने काँटे हैं, पैरोंमें कितने छाले हैं।’ मैं तो आत्मसमर्पण करके निश्चिन्त हो गया हूँ।

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साँझको एक सँपेरा मुनीमजी के घरके सामने से निकला। मुनीमने उसे बुलाकर कहा-‘तुम्हारे पास कोई ऐसा साँप है, जिसके विषदाँत तोड़े न गये हों?’
‘जी हाँ, इसी पेटीमें मौजूद है। कल ही पकड़ा था।’
‘तुम उसे बेच दो। ये लो पाँच रुपये।’
सँपेरे ने वह विषधर फणिधर एक मिट्टीकी हाँड़ीमें बंद कर दिया और मुँहपर कपड़ा बाँध दिया।
जब रातके दस बजे, तब हाँड़ी लेकर नन्दलाल सेठजीके मकान पर पहुँचा। जिस कमरेमें सेठजी सोते थे, उसकी खिड़की का एक शीशा टूटा हुआ था। खिड़कीके नीचे ही भक्तजीका पलंग रहता था। नन्दलालने उसी खिड़कीके द्वारा वह काला साँप अन्दर फेंक दिया, जो सेठजीकी रजाई के ऊपर जा गिरा। हँसता हुआ नन्दलाल लौट गया।

प्रात: जब सेठजी रजाईसे बाहर निकले तब सेठानी भी वहीं खड़ी थी। उसी रजाईमेंसे एक काला साँप निकला और पलंगपर से नीचे उतर गया। सेठानी चीख पड़ी। नौकरको बुलाने लगी।
‘नौकरको क्यों पुकारती हो’ सेठजी बोले। ‘इस साँपको मरवाऊँगी। आपको काटा तो नहीं!’ सेठानी ने कहा।
‘मेरी प्रेमपरीक्षा लेनेके लिये भगवान् भोलानाथ ने अपने गलेका हार भेजा था। रातभर साथ सोता रहा। कभी मेरा हाथ पड़ गया तो कभी पैर भी पड़ गया; परंतु काटता तो रातभरमें सौ बार काट सकता था।’ सेठने कहा।

तबतक लाठी लेकर नौकर आ गया। सेठजी बोले-‘हीरा ! लाठी रख दो। एक कटोरा दूध लाओ। दूध पिलाकर सर्पदेवता को जाने दो, जहाँ वे जाना चाहें। खबरदार, मारना मत ।’
और वह इसी घरमें रहने लगे। सेठानीने व्यंग्य किया।
कोई परवा नहीं रहने दो। भला, साँप कहाँ नहीं रहते। साँपपर ही पृथ्वी टिकी है।’ सेठजीने कहा।
रातको सेठजीने सपनेमें फिर भोलानाथको बैलपर चढ़े हुए। मुसकराते देखा। भगवान्ने मुनीमवाली सर्प-क्रिया बयान कर दी । सेठने कहा- कुछ हो, अपने शुभचिन्तन के द्वारा मुनीम के अशुभचिन्तन को नष्ट करना है। आपका आशीर्वाद है, इस परीक्षा में पास हो ही जाऊँगा। आप भी इसमें मेरी सहायता करें।

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अपने दोनों अशुभ चिन्तन विफल देख मुनीम नन्दलालने तीसरी स्कीम सोची। उसने दो नामी चोरोंसे दोस्ती गाँठी। एक दिन आधी रातके समय नन्दलाल उन दोनों चोरोंको लेकर सेठजीके मकानके पीछे जा पहुँचा। सेंध लगवाकर तीनों भीतर घुसे। सेठजीकी तिजोरी जिस कमरे में रहती थी, उस कमरेको मुनीम जानता था। ज्यों ही मुनीम उस कमरे में पहुँचा, उसने सामने काशीके कोतवाल भगवान् काल भैरवको त्रिशूल लिये खजानेके पहरेपर खड़ा देखा; भय खाकर भागना चाहा तो भगवान्ने उसे पकड़ लिया। दो तमाचे लगाकर कहा- ‘कमीने, जिसने तुझे आत्महत्यासे बचाया, उसके प्रति बदमाशी-पर-बदमाशी करता ही चला जा रहा है। आज तुझे खतम करूंगा।’

दोनों चोर भाग गये। मुनीमने भगवान् भूतनाथके चरण पकड़ लिये और गिड़गिड़ाने लगा- आज मेरा सारा अशुभचिन्तन मर गया। मैं अभी सेठजीसे माफी माँगता हूँ। अपने सुधारके लिये यह एक मौका दीजिये।
वही हुआ। मुनीमने जाकर सेठजीको जगाया और उनके चरण पकड़कर अपने तीनों अपराधोंको स्वीकार करते हुए क्षमा माँगी। सेठजीने हँसकर मुनीम को छाती से लगा लिया और कहा-‘मेरे शुभचिन्तन की विजय हुई ।’
और वास्तवमें नास्तिक मुनीम ईमानदार आस्तिक बन गया था।

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