Last Updated on July 22, 2019 by admin
जीवंत भूखंड क्या है ? :
जीवंत भूखंड वह है, जिसमें गति हो, जिसमें उर्वरा शक्ति हो, जिसमें प्राण वायु हो, जो मानव जीवन की आवश्यकता की पूर्ति कर सके तथा जो भूखंड मानव जीवन को समृद्ध कर सके, वही भूखंड जीवित है ।
जिस भूखंड में नकारात्मक शक्तियाँ बहुलता से पायी जाती हैं, वह भूखंड जीवित नहीं है । जिस भूखंड में पेड़-पौधे-वनस्पतियाँ न उगे, जिस भूखंड में जीव-जंतु घुटन महसूस करने लगे, जिस भूखंड में गाय-मवेशी बाँधने पर बीमार होने लगे अथवा उनमें नकारात्मक विकार दिखने लगे, ऐसे भूखंडों को मृत भूखंड माना जा सकता है । वास्तु शास्त्र में भवन निर्माण के लिए जीवंत भूखंड की बात कही गई है ।
वास्तु शास्त्र में जीवंत भूखंड का महत्व : vastu ke anusar bhumi chayan
वास्तु शास्त्र का दृष्टिकोण औपयोगिक, सामाजिक एवं सर्वजन हिताय है । वास्तु शास्त्र जीव को उसके इष्ट से मिलाने का साधन है । वास्तु शास्त्र एक ध्येय है । यह व्यक्ति, वस्तु, जीव, वनस्पति आदि सबको समृद्ध व गौरवशाली बनाता है । जहाँ तक मानव की बात है, वह अकेला किसी भी स्थान या भूखंड पर निवास नहीं कर सकता है । मानव के पेड़-पौधे, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि मित्र हैं। इनके बीच रहकर वह प्रकृति से बहुत कुछ सीखता है । उसे प्रकृति से प्रेम हो जाता है। तभी उसका जीवन समृद्ध व गौरवशाली हो जाता है । जिस भूखंड में पशु-पक्षी और वनस्पति न हों, वहाँ जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है । मानव का यह स्वभाव है। कि वह इनके बीच रहकर विकास व उत्थान की प्रेरणा ग्रहण करता है ।उनकी सहायता से अपना जीवन समृद्ध बनाता है ।
आदि काल से ही मानव के लिए गाय, बछड़े, बैल, घोड़े आदि पशु उपयोगी रहे हैं । मानव उनसे तरह-तरह के काम लेता है । ये मानव को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में मदद करते हैं। जहाँ वनस्पति, पेड़-पौधे न हों, वहाँ मानव जीवन ठहर-सा जाता है । ये सभी मानव जीवन के प्राण बिन्दु हैं । ये सभी विकास व प्रेरणा के द्योतक हैं । जिस भू-प्रदेश पर प्राकृतिक सुषमा न हो, हरे-भरे वन, जलाशय, तीर्थ आदि न हों, वन, उपवन, चारागाह, गुल्म आदि न हों, वहाँ मानव अथवा पशु का निवास असंभव ही कहा जाएगा । यही कारण है कि वास्तु शास्त्र में भूमिचयन, भूमि-परीक्षा, भूमि-शोधन आदि प्रसंगों में इस बात पर जोर दिया गया है भूमि जीवंत होनी चाहिए । जीवंत भूमि का आशय ऐसी भूमि से है, जिसके निकट या आसपास में जलाशय हों, जहाँ खेती होती हो, जहाँ पेड़-पौधे, साग-सब्जी उगाए जाते हों, जिस भूमि पर सुंदर फल लगते हों, जिस भूमि पर पाँव रखते ही मन में हर्ष व उल्लास व्याप्त हो जाता हो, ऐसी भूमि जीवंत कहलाती है । वास्तु शास्त्र में ऐसा स्थान नगर, पुर तथा गाँव बनाने के लिए उचित माना गया है । भवन-द्रव्य के लिए घने कान्तार, जहाँ बड़े सघन शीशम, सर्ज, अर्जुन आदि के वन हों, आवश्यक माने गए । दरअसल इन सबके पीछे पंच तत्त्वों की उपस्थिति व संतुलन की व्यवस्था का आग्रह है । पंच तत्त्व हैं, भूमि, जल, हवा, आग और आकाश । भूमि के पास जल हो, हवा की उत्पत्ति के लिए जल व वनों का होना जरूरी है, आग खुद एक वनस्पति है और आकाश का आशय विस्तृत व चौरस भूखंड से है । इन सबका घालमेल ही जीवंत भूखंड है ।
वास्तु शास्त्र में जल को जीवन माना गया है । जल का संस्कृत में जीवन, भुवन और वन पर्याय माना गया है। जहाँ वन होता है, वहीं वर्षा भी होती है । इस तरह से जल काफी महत्त्वपूर्ण हो जाता है । इस कारण वास्तु योजना में जलाशयों का विचार प्रथम कोटि में माना गया । आप देखते होंगे कि जहाँ जल की सुविधा होती है, वहीं जीने के साधन व स्थान भी विकसित किए जाते हैं। भारत के प्रमुख शहर नदियों के किनारे बसे हैं । दिल्ली, कोलकाता, कानपुर, पटना समेत लगभग सभी बड़े शहर किसी न किसी नदी के किनारे ही बसे हैं। प्राचीन भारत में नदी के किनारे इन शहरों को बसाने के पीछे यही तात्पर्य रहा होगा कि शहरी लोगों का जीवन उन्नत हो सके। उन्हें जीने के तमाम साधन मुहैय्या हो सके । रोजी-रोजगार व कैरियर के दृष्टिकोण से भी यह अच्छा कदम माना गया । वास्तु व विज्ञान दोनों की कसौटी पर जल अत्यंत श्रेष्ठ तत्त्व है ।
वास्तु शास्त्र में जल की महिमा व गुणों का जिस तरह से वर्णन किया गया है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस भूमि या स्थान के आसपास या निकट में सरोवर या नदी हो, वह भूमि या स्थान कभी निर्जीव हो ही नहीं सकता । जल की इन्हीं सारी विशेषताओं तथा मनुष्य के जीवन के लिए उपयोगी बताते हुए जल को पूजन की बात कही गई । जल को पूजने से जल पवित्र होता है । जिस शहर में जल स्नान व जल पूजन करते हैं, जल के देवता उस शहर तथा निवासियों की रक्षा करते हैं । ऐसी मान्यता है । आज भी हम इस परम्परा का निर्वाह करते आ रहे हैं । गंगा स्नान, कुंभ स्नान आदि पारम्परिक त्यौहारों को मनाने के पीछे हमारा मकसद जल देवता को खुश करना होता है । क्योंकि जल देवता के आशीर्वाद से मनुष्य का जीवन चलता है, सुख-समृद्धि व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि निर्जीव भूखंड मनुष्य के रहने के लिए उपयुक्त नहीं है । क्योंकि यहाँ जल की प्राप्ति नहीं होती है। और जब जल ही न होगा, तो वन भी नहीं होगा, वनस्पति नहीं होगी, वहाँ शुद्ध हवा प्राप्त नहीं होगी, वहाँ अग्नि ऊर्जा का भी अभाव रहेगा । ऐसे में मनुष्य के रहने के लिए जीवन तत्त्व रह ही नहीं जाता है। दूसरी ओर जीवंत भूखंड के पास नदी, तालाब या सरोवर का होना अनिवार्य है।