Last Updated on July 18, 2019 by admin
तपोमूर्ति पं० श्रीजीवनदत्तजी महाराज के जीवन की सत्य घटना :
पूज्यपाद प्रात:स्मरणीय अनन्तश्रीविभूषित नैष्ठिक बालब्रह्मचारी, महान् संस्कृतज्ञ, तपोमूर्ति पं० श्रीजीवनदत्तजी महाराज (कुलपति-संस्थापक श्रीसाङ्गवेदविद्यालय, नरवर)-का पुण्यसंस्मरण सबको पवित्र करनेवाला है।
आपका जन्म आश्विन शुक्ल ४, संवत् १९३४ विक्रमीमें अलीगढ़ में हुआ था। आपके पूज्य पिताजीका शुभ नाम पं० श्रीरामप्रसादजी महाराज था, जो बड़े ही कुलीन, परम तपस्वी ब्राह्मण थे और वैद्यक का कार्य करते थे तथा बरौलीके रावसाहब करणसिंहजी के राजपुरोहित थे। आप अपने पिताकी एकमात्र संतान थे। एक बार जब कि आप केवल पाँच वर्षके ही थे; अलीगढ़में स्वामी दयानन्द सरस्वती पधारे। आपके पूज्य पिता पं० श्रीरामप्रसादजी आपको अपने साथ दयानन्दजी के पास ले गये। स्वामीजीने आपको आदेश दिया कि आप अपने इस बालकको आर्षग्रन्थ पढ़ाना और इसका पचीस वर्षसे पूर्व विवाह न करना। आपने उनकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और ऐसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की। सर्वप्रथम आपको पं० श्रीजीपालालके साथ भेजा गया और पूज्य पं० श्रीबद्रीप्रसादजी शुक्लके द्वारा आपका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया गया तथा उन्हींके द्वारा गायत्रीमन्त्रकी दीक्षा भी दी गयी। बादमें आपको सुप्रसिद्ध महान् विद्वान् सनातनधर्मकेसरी वेदभाष्यकार पूज्य पं० श्रीभीमसेनशर्मा शास्त्रीजी महाराजके पास इटावा विद्याध्ययन करने भेज दिया गया। श्रीशर्माजी महाराजसे आपने अष्टाध्यायी और महाभाष्यकी पूर्ण शिक्षा प्राप्त की। आपने पूर्णरूपेण शास्त्राध्ययन करनेके पश्चात् यह निर्णय किया कि सनातनधर्म ही एकमात्र सत्य धर्म है और सनातनधर्मकी शरणमें रहनेसे ही जीवका कल्याण हो सकता है, आजके मनमाने मनुष्यकृत पन्थ, मत, समाज, मज़हबोंके चक्करमें फँसकर सनातनधर्मसे विमुख होनेसे कोई लाभ नहीं।
आजन्म बालब्रह्मचारी रहनेकी प्रतिज्ञा :
आपके पूज्य पिताजीने सोचा कि अब आप पूर्ण विद्वान् हो गये हैं और इधर आपकी अवस्था भी पचीस वर्षकी हो गयी है, इसलिये अब आपका विवाह कर देना चाहिये। चारों ओर से सम्बन्ध वाले भी आने-जाने लगे और जब आपको यह मालूम हुआ कि पिताजी विवाह बन्धनमें बाँधकर मुझे संसारके मायाजाल में फाँसने जा रहे हैं, तब आपको बड़ा दु:ख हुआ।
आपने अपने पूज्य पिताजीसे स्पष्ट शब्दोंमें निवेदन कियापूज्य पिताजी ! मैं अपना विवाह नहीं कराऊँगा, मैं आजन्म नैष्ठिक बालब्रह्मचारी रहूँगा और अपना सारा जीवन गायत्रीके जपमें, भजन-पूजनमें, शास्त्राध्ययन में, देववाणी संस्कृतविद्याका प्रचार करनेमें और सत्य-सनातनधर्म की, वर्णाश्रमधर्म की रक्षा करने में व्यतीत करूंगा। आपके मनमें सनातनधर्मकी दुर्दशा देखकर बड़ी पीड़ा हो रही थी। अतएव आपने कहा
मैं सनातनधर्म की रक्षा करना चाहता हूँ और सनातनधर्म की रक्षा तभी होगी जब कि मेरे धर्मप्राण भारत के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालक अपनी देववाणी संस्कृतविद्या पढ़ेंगे, अपने वेद
शास्त्रोंका अध्ययन करेंगे, शास्त्रानुसार अपना जीवन बनायेंगे तथा ब्रह्मचारी, सदाचारी, त्यागी, तपस्वी बनेंगे। यह सब कुछ तभी होगा जब कि मैं स्वयं एक आदर्श तपस्वी बालब्रह्मचारी बनकर सच्चे रूप में जगत के सामने आऊँगा। तभी मैं दूसरोंपर भी अपना प्रभाव डाल सकेंगा और सच्चे रूपमें संस्कृतविद्या का प्रचार तथा सनातनधर्म की रक्षा कर सकेंगा। जबतक कथनी और करनी एक नहीं होती, तबतक कुछ भी नहीं होता। | पूज्य पिताजी ने यह बात सुनी तो बड़े ही प्रसन्न हुए, पर आप ही उनकी एकमात्र संतान थे, दूसरा कोई भाई नहीं था। इसलिये जब आपके सामने पिताजीने यह प्रश्न रखा कि आगेका वंश कैसे चलेगा, तब पं० श्रीजीवनदत्तजी महाराजने अपने पूज्य पिताजीको समझाते हुए कहा-पिताजी! यदि मैं विवाह कर लँगा तो मुझे गृहस्थके निर्वाहके लिये वृत्तिके निमित्त विद्याविक्रय करना पड़ेगा। सो क्या ब्राह्मणकुलमें पैदा होनेपर विद्याविक्रय करना उचित होगा? यह सुनकर पिताजीने सहर्ष अपना आग्रह छोड़ दिया।
बरौलीके परित्यागकी घटना :
आप परम त्यागी, तपस्वी, महान् विद्वान् ब्राह्मण थे और बरौली जि० अलीगढ़में रहते थे। बरौलीके राजा उस समय परम तेजस्वी क्षत्रियकुलभूषण राजा राव करणसिंहजी महाराज थे। आप उनके राजपुरोहित थे। बरौलीका आपने किस प्रकार परित्याग किया, यह घटना हमें राजा राव करणसिंहजीके दत्तकपुत्र स्वर्गीय बरौलीनरेश राव राजकुमारसिंहजी एम०एल०ए० ने सुनायी थी, जो इस प्रकार है-
राजा करणसिंहजी बड़े ही कट्टर सनातनधर्मी राजा थे और श्रीरामानुजसम्प्रदाय के श्रीवृन्दावन के श्रीरंगाचार्य जी महाराजके शिष्य श्रीवैष्णव थे। परंतु किसी कारणवश एक बार किसी बात को लेकर उनकी पं० श्रीजीवनदत्तजी के पिता पं० श्रीरामप्रसादजी से कुछ बात में खटपट हो गयी। पूज्य पं० श्रीजीवनदत्तजी महाराजको अपने पूज्य पिताका अपमान सहन नहीं हुआ। उसी समय आपने बरौलीका परित्याग कर दिया और अपने पूज्य पिताजी को साथ लेकर चले गये। राजा साहबने आपसे करबद्ध क्षमा माँगी, पर आप लौटकर नहीं आये।
संवत् १९६० में आप अपने साथ अपने पूज्य पिताजी को लेकर नरवर (जिला बुलन्दशहर) चले आये। नरवर उस समय एक निर्जन स्थान था। चारों ओर घोर जंगल-ही-जंगल था। आपने उस निर्जन स्थानमें देखा कि एक टूटा-फूटा भगवान् । शंकरका मन्दिर है और सामने पतितपावनी, कलिमलहारिणी, जगज्जननी श्रीगङ्गाजी बह रही हैं। बस, इसे ऋषिभूमि समझकर और पाँच छात्रोंको लेकर विश्वविश्वेश्वरी’ पाठशाला, नरवरके नामसे पाठशाला आपने प्रारम्भ कर दी। फूसकी झोंपड़ियाँ डाल लीं और उन्हीं में रहकर इस महर्षिने घोर तपस्या, निरन्तर गायत्रीका जप, त्रिकाल संध्या, त्रिकाल श्रीगङ्गाका स्नान, ध्यान, भजन-पूजन और भगवान् शंकरका भजन-पूजन करना प्रारम्भ कर दिया। पूज्य ब्रह्मचारी जी स्वयंपाकी थे। स्वयं भोजन तैयार कर उसे भगवान के प्रसाद के रूपमें ग्रहण करते थे। न किसीसे कुछ माँगना और न किसीसे कुछ कहना। बस, श्रीभगवदिच्छा से बिना माँगे जो कुछ मिल गया, उसे स्वयं अपने हाथोंसे बनाना, भगवान को भोग लगाकर पहले पूज्य पिताजीको भोजन कराना
और फिर जो बच गया उसे पा लेना-यह नियम हो गया। प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त में उठते और शौच आदि से निवृत्त होकर पतितपावनी श्रीगङ्गाजी महारानी के स्नानको जाते और बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे श्रीगङ्गाजीका स्नान, पूजन, संध्या-वन्दन करके अपनी कुटिया में आकर ग्यारह बजे तक गायत्री का जप करते, किसी से भी नहीं बोलते। कभी यदि बोलना भी पड़ जाता तो संस्कृत में ही बातें करते और फिर दोपहरको श्रीगङ्गा-स्नान और मध्याह्नकी संध्या करते। मन्दिरपर आकर श्रीशंकरजी का दर्शन करते और फिर अपने हाथों भोजन बनाते। दिनमें छात्रोंको पढ़ाते और संध्याको फिर स्नान-संध्या करते और रात्रिको दस बजेतक जप करते तथा महाभारत की, श्रीमद्भागवत आदि पुराणोंकी कथाएँ सुनते। इस प्रकार इस महर्षिका सारा समय पवित्र ब्राह्मणोचित तपस्यामें व्यतीत होने लगा।
धीरे-धीरे पाँच छात्रोंसे बढ़कर पंद्रह छात्र हो गये और कुटियाँ भी बढ़ने लगीं तथा भारतके कोने-कोने से छात्रोंका आना प्रारम्भ हो गया। श्रीगङ्गा, गायत्री, भगवान् आशुतोष शंकरजी महाराज की ऐसी अद्भुत कृपा हुई कि जंगलमें मङ्गल होने लगा। फूसकी कुटियों की जगह धीरे-धीरे पक्की कुटियाँ बनने लगीं। वेदभवन बन गया, श्रीशंकरजी का मन्दिर फिर से बड़ा सुन्दर बन गया। सैकड़ों विद्यार्थी लम्बी-लम्बी चोटी लटकाये, गलेमें यज्ञोपवीत धारण किये और माथेपर तिलक लगाये वेदध्वनि करते, श्रीगङ्गातटपर बैठे संध्या-वन्दन करते, श्रीशंकरजीके मन्दिरपर एक साथ उच्चस्वरसे श्रीशंकरस्तोत्रका पाठ करते और रुद्रीका पाठ करते हुए सत्ययुगी दृश्य उपस्थित करने लगे। अब तो वह पाठशाला श्रीसाङ्गवेद-महाविद्यालयके नामसे भारतके कोने-कोने में विख्यात हो गयी। खुर्जाके परम भक्त स्व० सेठ सूरजमलजी आपके परम भक्त बन गये और धनद्वारा विद्यालयकी सेवा करने लगे। बड़े-बड़े विद्वान् शास्त्री, आचार्योंको बुलाबुलाकर अध्यापक रखा गया। इस प्रकार विद्यालय दिनोदिन उन्नति करने लगा। बड़े-बड़े धनी, अधिकारी, राजा, महाराजा, धर्माचार्य, विद्वान् विद्यालयकी ख्याति सुनकर दर्शनार्थ आने लगे और अद्भुत सत्ययुगी दृश्य देखकर और कुटियामें बैठे घोर तपस्या करते, गायत्रीका जप करते महर्षिको देखकर प्रभावित होने लगे।
महात्माओं का शुभागमन :
एक बहुत ही उच्चकोटि के महान् धुरन्धर विद्वान् परम त्यागी तपस्वी संन्यासी प्रात:स्मरणीय श्रीदण्डीस्वामी श्रीविश्वेश्वराश्रमजी महाराजने इस विद्यालयकी ख्याति सुनी और इधर पूज्यपाद ब्रह्मचारी श्रीजीवनदत्तजी महाराजने भी आपकी बड़ी प्रशंसा सुनी। पूज्य ब्रह्मचारीजी महाराज की प्रार्थनापर आप विद्यालयमें पधारे और साक्षात् ऋषि-आश्रम देखकर यहींपर निवास करने लगे। इधर भारतकी महान् विभूति परम पूज्यपाद अनन्त श्रीस्वामी श्रीहरिहरानन्द सरस्वती श्रीकरपात्रीजी महाराज जब घर-बार का परित्याग करके घरसे निकले, तब आपने किसी से नरवर-विद्यालयका नाम सुना। फिर क्या था, आप सीधे नरवर चले आये। आपने इस ऋषि-आश्रमकी एक कुटियामें बालब्रह्मचारी ब्राह्मणश्रेष्ठको गायत्री जप और घोर तपस्यामें तल्लीन देखा और दूसरी कुटियामें उच्चकोटिके वीतराग ब्रह्मनिष्ठ सर्वशास्त्रनिष्णात दण्डी स्वामी श्रीविश्वेश्वराश्रमजी महाराजके दर्शन किये और चारों ओर वेदध्वनिका पवित्र गुञ्जार सुना। आपने यहीं रहकर विद्याध्ययन करने और घोर तपस्या करनेका निश्चय कर लिया।
आप पूज्यपाद श्रीस्वामी विश्वेश्वराश्रमजी महाराजसे विद्याध्ययन करने लगे। आपका घोर त्याग, तपस्यामय जीवन देखकर विद्यालयकी ख्याति और भी फैल गयी। जिस विद्यालयसे पूज्य श्रीकरपात्रीजी महाराज-जैसे महापुरुष निकलें, उसकी महत्ताको कोई क्या कह या लिख सकता है? जब जगद्गुरु शंकराचार्य शृङ्गेरीपीठाधीश्वरजी महाराजको पता लगा, तब आप भी कृपाकर पधारे और चार महीने ठहरे। जगद्गुरु शंकराचार्य गोवर्धनपीठाधीश्वर, जगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर श्रीस्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रमजी महाराज-जैसे बड़े-बड़े धर्माचार्य और पूज्यपाद श्रीस्वामी श्रीपूर्णानन्दतीर्थ उड़िया बाबाजी महाराजजैसे संत महीनों आकर ठहरने लगे।
ऐतिहासिक यज्ञके यजमान :
जिस समय पूज्य श्रीकरपात्रीजी महाराजने दिल्लीका ऐतिहासिक श्रीशतकुण्डी महायज्ञ कराया, तब आपको उसका यजमान बनाया गया। जिस समय आप यज्ञमें पधारे और भारतके कोने-कोनेसे वेदपाठी विद्वान् ब्राह्मणोंने आपकी ख्याति सुनी, तब सभी आपके दर्शनोंके लिये टूट पड़े। परम तपस्वी विशालकाय महान् तेजस्वी बालब्रह्मचारीको एक हाथ में कुशा लिये और दूसरेमें माला लिये गायत्रीका जप करते देखकर सबके मस्तक श्रद्धासे आपके श्रीचरणोंमें झुक गये। बड़े-बड़े अंग्रेजतक आपके दर्शन करके और वृद्धावस्थामें भी आपके इस प्रकारके महान् तेजस्वी शरीरको देखकर दंग रह गये। आप कैसे घोर तपस्वी और तेजस्वी हैं और बड़े-बड़े संत-महात्मा आपको किस प्रकार श्रद्धाकी दृष्टिसे देखते हैं, यह हमने उस समय देखा कि जिस समय एक बार मेरठ में पूज्यपाद श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य श्रीस्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रमजी महाराजने एक बहुत बड़ा यज्ञ कराया तथा सबसे पहले आपको सादर आमन्त्रित किया और स्पष्ट शब्दों में कहा कि जिस यज्ञमें ऐसे परम तपस्वी महर्षि पधारे हैं, इस यज्ञकी सफलता में क्या संदेह है! पूज्य श्रीउड़िया बाबाजी महाराजने अपने श्रीवृन्दावनके श्रीकृष्णाश्रमके उत्सवमें जबतक आपको नहीं बुला लिया, चैन नहीं लिया।
साक्षात् दयाकी मूर्ति :
आप साक्षात् दया-मूर्ति थे। किसीपर कभी क्रोध करना तो आप जानते ही नहीं थे। किसीको भी दु:खी नहीं देख सकते थे। जो भी दुखिया आपके सामने आ गया, उसीके दुःख दूर करनेका भरसक प्रयत्न करते थे। जहाँ आपने अपने आश्रम से हजारों बड़े-बड़े शास्त्री, आचार्य, वेदपाठी बना-बनाकर निकाले, वहाँ आपने हजारों दीन-दुःखियोंको नौकरी दिलाकर, रोगियोंको मन्त्र-जप आदि करना बताकर उनकी सहायता की। हजारों, लाखों मनुष्योंको कट्टर सनातनधर्मी, परम आस्तिक, सदाचारी बनाया और हजारोंसे बीड़ी-सिगरेट, चाय-तम्बाकू, शराब, कबाब, मांस-मछली, प्याज-लहसुन, शलजम आदि छुड़ाकर उनके जीवनको पवित्र बनाया।
राजा साहब पर कृपा :
आपने बरौलीके राव करणसिंहजीसे अप्रसन्न होकर बरौलीका परित्याग कर दिया था, यह बात राव करणसिंहजी के दत्तकपुत्र राव राजकुमारसिंहजी एम०एल०ए० को बराबर खटका करती थी और वे चाहते थे कि महाराज हमें किसी प्रकार क्षमा करें और हमारे राजमहल में पधारें। एक दिन वे श्रीरामानुजसम्प्रदाय के पण्डित श्रीभूदेवशर्माजी के साथ श्रीमहाराजजी के पास पहुँचे और श्रीचरणों में जाकर बैठ गये। तदनन्तर महाराजजी से करबद्ध प्रार्थना की कि महाराजजी ! अपराध क्षमा कीजिये और किसी प्रकार महलों में पधारकर अपनी श्रीचरणरजसे उसे पवित्र कीजिये। महाराजजी का हृदय पिघल गया। आपने कहा- अच्छा जाओ, बरौली में कोई यज्ञ आदि शुभ काम करो, जिस में हम भी आयेंगे। राजा साहबने ऐसा ही किया। उसमें ब्रह्मचारीजी महाराज पधारे। दस-बारह दिन ठहरकर खूब धार्मिक जागृति पैदा की। महाराजजीकी इस असीम कृपाको राजासाहब जीवनपर्यन्त मानते रहे।
धन छूना पाप :
आप त्याग-तपस्याकी ऐसी साक्षात् मूर्ति थे कि कभी भूलकर भी रुपये-पैसे का स्पर्शतक नहीं करते थे। कोई कुछ भी दे जाय, आप उसको हाथ नहीं लगाते थे। आश्रमका दूसरा अध्यापक या विद्यार्थी ही उसे उठाता था। कई बार ऐसा भी देखा गया कि कई बड़े-बड़े सेठ आपके दर्शनार्थ आये और
आपके श्रीचरणों में बहुत सारे रुपये रखकर चले गये, पर आपने उनकी ओर ताकातक नहीं। जब कोई आश्रमका आदमी आया, तब उसने उठाया, नहीं तो यों ही पड़े रहे। यों ही पड़े छोड़कर आप अपने जप-ध्यान में तल्लीन हो जाते। किसीसे भी आप कभी एक पाई की भी याचना नहीं करते थे। जो भी भगवदिच्छासे आ गया, उसीसे निर्वाह करते थे। विद्यालयके निमित्त जो भी आता था, उसमेंसे आप अपने लिये एक पाई भी नहीं लेते थे। वह सब अध्यापकों में, विद्यार्थियों में खर्च होता था। अपने लिये जो शिष्यों से आता था, उसीसे निर्वाह करते थे। वर्षमें जो खर्चसे बच जाता था, उस सबका भण्डारा कर विद्यार्थियों में वितरण कर देते थे। अगले वर्षके लिये एक पाई भी नहीं रहने देते थे।
शास्त्रानुसार श्राद्ध :
आप प्रतिवर्ष शास्त्रानुसार बड़ी श्रद्धा-भक्ति से अपने पूज्य माता-पिताका श्राद्ध किया करते थे, जिसमें बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे ब्राह्मण विद्यार्थियोंको पूज्य मानकर उनका पूजन करके उन्हें भोजन कराते तथा उन्हें प्रसन्न करते थे। सब कार्य शास्त्रानुसार करते थे। आपने कभी यह अभिमान नहीं किया कि मैं घोर तपस्वी हूँ, मुझे अब श्राद्धादि करनेकी क्या आवश्यकता है। आप समय-समयपर सभी कार्य शास्त्रानुसार, सनातनधर्मानुसार स्वयं श्रद्धापूर्वक करते थे तथा औरों को भी करने को कहते थे।
भक्तका काम भगवान बनाते हैं :
श्रीसाङ्गवेदविद्यालय में हमें एक पुराने विद्यार्थी शास्त्रीजीने अपनी आँखों-देखी एक आश्चर्यजनक सत्य घटना सुनायी, जो इस प्रकार है-
एक बार विद्यालयमें विद्यार्थियों के लिये खाने-पीनेका कुछ सामान नहीं रहा और सामान लाने के लिये पैसा भी किसीके पास नहीं बचा था। विद्यार्थी और अध्यापक सभी भूखे थे और लगभग दस-ग्यारह बज रहे थे। पूज्य महाराजजी उस समय पतितपावनी श्रीगङ्गाजीके परम पवित्र तटपर झोंपड़ीमें बैठे। गायत्रीके जपमें तल्लीन थे। एक अध्यापक ने जाकर प्रार्थना की कि श्रीमहाराजजी! आज तो विद्यालय में अन्नका एक दाना भी नहीं है। सभी विद्यार्थी भूखे हैं, क्या किया जाय? यह सुनकर परम तपस्वी महाराजजी तनिक भी विचलित नहीं हुए और आपने श्रीमद्भगवद्गीता (९। २२)-का यह श्लोक कहा
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
और पतितपावनी श्रीगङ्गाजी महारानी की ओर संकेत करते हुए कहा कि क्या श्रीगङ्गामाताको हमारी चिन्ता नहीं है? ऐसा कहकर ज्यों ही आप आगेको चले तो क्या देखते हैं कि श्रीगङ्गाजीमें एक नौका चली आ रही है और उसमें खाने-पीनेका कचौड़ी-पूरी, साग आदि सब सामान है। नौका आकर वहीं ठहर गयी और सब सामान ले जाकर विद्यार्थियोंको खूब छककर भोजन कराया गया। किसी भक्त सेठने यह सब सामान बिना कहे भिजवाया था। इस घटनाको देखकर सब चकित हो गये। और श्रीगङ्गाजीकी कृपाको यादकर गद्गद हो गये।
कीर्तन के साथ शास्त्रीय कर्म भी आवश्यक :
कुछ लोग भ्रमसे कहने लगे थे कि महाराजजी कीर्तनका विरोध करते हैं, पर ऐसा कहना अज्ञानताका परिचय देना है। हमारे प्रश्न करनेपर स्वयं महाराजजीने बताया था कि हम कलिकालमें संकीर्तनको एकमात्र उद्धारका मार्ग मानते हैं, पर साथ ही कीर्तन की आड़में वर्णाश्रमधर्म का विध्वंस करना, चोटी जनेऊ उतार फेंकना और संध्या-वन्दन, नित्यकर्म न करना—इसे भी घोर पाप मानते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शास्त्रानुसार अपना यज्ञोपवीत करायें, संध्या-वन्दन करें और भगवन्नाम-संकीर्तन भी करें तो सहजहीमें कल्याण हो जाता है। सब कार्य शास्त्रानुसार, सनातनधर्मानुसार और मर्यादानुसार ही होने चाहिये, तभी कल्याण होगा। मनमानी करनेसे तो लाभके बदले हानि ही होती है। आप श्रीश्रीमारुतिनन्दन भगवान् श्रीहनुमन्तलालजी महाराजके अनन्य प्रेमी थे। नित्य श्रीहनुमान्जी महाराजके चित्रका चन्दनादिसे पूजन करते थे। आपने साठ वर्षोंतक निरन्तर गायत्रीका जप किया, त्रिकाल संध्या की, श्रीगङ्गास्नान किया और बहुत बड़ी संख्यामें बड़े-बड़े यज्ञ-अनुष्ठान और दुर्गापाठ कराये तथा हजारों बड़ेबड़े वेदपाठी, शास्त्री, आचार्य, कर्मकाण्डी विद्वान् बनाये, जो भारतके कोने-कोने में फैलकर सर्वत्र सनातनधर्मका प्रचार करते रहे हैं। पूज्यपाद अनन्तश्री स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज आपके ही विद्यालयको महान् दिव्य विभूति थे।
एक ज्योतिषीद्वारा पंद्रह वर्ष पूर्व ब्रह्मलोक-प्रयाणकी तिथि बतानेकी आश्चर्यजनक सत्य घटना :
आपके पास पंद्रह-बीस वर्ष पूर्व पं० श्रीरामस्वरूप नामक एक ज्योतिषी पधारे, जो त्रिकालदर्शी माने जाते थे। उन्होंने आपके सम्बन्धमें भविष्यवाणी करते हुए अपने हाथसे लिखकर दिया था कि ‘आपका ब्रह्मलोक-प्रयाण चैत्र कृष्ण दशमी गुरुवार संवत् २०१२ को प्रात:काल ८.३० बजे होगा। उस समय आपकी कुटियामें एक एकाक्ष (काना) साधु आकर आपका दर्शन करेंगे।
उनको देखते ही आप ॐका उच्चारण करके अपना शरीर छोड़ देंगे।’
एकाक्ष साधुका आना और श्रीमहाराजजीका ब्रह्मलोक-प्रयाण करना :
भाद्रपद शुक्ला १४, संवत् २०१२ को अकस्मात् आपको शीतज्वर हो गया, जो फाल्गुन कृष्णा ३० तक बीच-बीचमें आता रहा। आपने किसी भी प्रकार नित्यकर्म करना नहीं छोड़ा, इसलिये दुर्बलता बहुत बढ़ गयी। बहुत-से बड़े-बड़े योग्य वैद्य बुलाये गये और उनकी औषधि चलती रही। विशेष लाभ कुछ भी नहीं हुआ और दुर्दैवविपाकसे दिनोदिन अवस्था क्षीण होती गयी। इधर त्रिकालदर्शी ज्योतिषीजी महाराजका बताया समय भी निकट आ पहुँचा। किसीको क्या पता था कि भारतके महान् संस्कृतज्ञ धुरन्धर विद्वान् सनातनधर्मके महान् सूर्यका अस्त होने जा रहा है? शरीर छोड़ने से ठीक एक दिन पूर्व एक एकाक्ष साधु फर्रुखाबादसे नरवरके श्रीमहाराजजीकी किसीसे प्रशंसा सुनकर दर्शनोंके लिये चले और रात्रिमें नरौरा आकर ठहर गये। प्रात:काल नरवर आकर श्रीगङ्गास्नान करके वे श्रीमहाराजजीके दर्शनोंके लिये चले। इधर श्रीमहाराजजी को गीताका दूसरा अध्याय सुनाया जा रहा था। वह पूरा हुआ। झटसे एकाक्ष साधु कुटिया में घुसे और उन्होंने ज्यों ही महाराजजी को प्रणाम किया, त्यों ही महाराजजी ने उन्हें देखते ही हरिॐका उच्चारण कर ब्रह्मलोकको प्रयाण कर दिया। ठीक वही चैत्र कृष्णा दशमी गुरुवार संवत् २०१२ को प्रात:काल ८.३० का समय था। एकाक्ष साधु को देखनेके लिये जनता उमड़ पड़ी और उनके छायाचित्र लिये गये।
पूज्य पं० जीवनदत्तजी महाराजके ब्रह्मलोक-प्रयाणकी सूचना मिलते ही शंकराचार्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर श्रीस्वामी कृष्णबोधाश्रमजी महाराज, पूज्यपाद स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज, शास्त्रार्थ महारथी पं० अखिलानन्द कविरत्नजी तथा अन्य अनेक धर्माचार्यों, संत-महात्माओं तथा विद्वानोंने नरवर पहुँचकर उन्हें श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। बादमें प्रसिद्ध पत्रकार पं० बनारसीदास चतुर्वेदीजीके सम्पादनमें उनका स्मृति-ग्रन्थ भी प्रकाशित किया गया।