Last Updated on December 29, 2024 by admin
इस संसार में व्यक्ति की यही कामना होती है कि जीवन में उसे सभी सुखों की प्राप्ति हों और मृत्यु के पश्चात मोक्ष लाभ प्राप्त हो सके। लेकिन ऐसा हर किसी के साथ संभव नहीं हो पाता। जीवन में उन्हें कई विपदाओं और दुखों का सामना करना पड़ता है, और मरने के बाद भी मोक्ष उनसे दूर ही रहता है। शिवपुराण में भोग और मोक्ष प्रदान करने में समर्थ 10 ऐसे रहस्य बताए गए हैं, जिनका पालन करने से मनुष्य दोनों फलों को एक साथ प्राप्त कर सकता है। आइए विस्तार से जानते हैं इन 10 महत्वपूर्ण बिंदुओं के बारे में।
धन संग्रह :
धन संग्रह का विषय बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान युग में धन के बिना जीवन में कुछ भी संभव नहीं है। शिवपुराण में न केवल धन कमाने बल्कि उसे बुद्धिमानी से संग्रहित करने की बात कही गई है। इसमें बताया गया है कि मेहनत से अर्जित धन को तीन भागों में विभाजित करना चाहिए। पहला भाग धन वृद्धि में लगाएं, जिससे भविष्य में आमदनी बढ़ सके। दूसरा भाग अपने और अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने में व्यय करें, ताकि जीवन सुचारू रूप से चल सके। तीसरा और अंतिम भाग धर्म, सेवा और जनकल्याण के कार्यों में लगाना चाहिए। ऐसा करने से न केवल हमारे पुण्य कर्म बढ़ते हैं, बल्कि हम विभिन्न प्रकार के ऋणों से भी मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार धन का सदुपयोग जीवन को सुखद और सार्थक बना सकता है।
क्रोध का त्याग :
क्रोध मनुष्य के लिए सबसे अधिक विनाशकारी है। जब हम क्रोधित होते हैं, तो हमारी सोचने-समझने की क्षमता यानी विवेक समाप्त हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप हमारे जीवन में अनेक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। क्रोध की स्थिति में हम अपने प्रियजनों को भी अपना शत्रु मानने लगते हैं।
शिवपुराण हमें सिखाता है कि क्रोध का त्याग करना बेहद आवश्यक है। आत्मचिंतन के माध्यम से हम अपने भीतर क्रोध की भावनाओं को नियंत्रित कर सकते हैं। यदि कभी क्रोध आ भी जाए, तो उस समय हमें कोई ऐसा शब्द नहीं बोलना चाहिए जो दूसरे को आहत करे। क्रोध में कही गई अप्रिय बातें केवल विवाद को बढ़ाती हैं और बाद में हमें पछतावा करना पड़ता है। इसीलिए शिवपुराण में क्रोध पर नियंत्रण को आत्मकल्याण के लिए अनिवार्य बताया गया है।
आहार संयम :
भोजन हमारे जीवन का आधार है। यही हमारे शरीर को ऊर्जा देता है और हमें दैनिक कार्यों को संपन्न करने में सहायक बनाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अत्यधिक या अनियमित भोजन हमारे शरीर को नुकसान पहुंचा सकता है? आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि अधिक खाने से शरीर में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। शिवपुराण में यह बताया गया है कि समय-समय पर भोजन का त्याग या व्रत करना हमारी आत्मशुद्धि और स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। व्रत से प्राप्त ऊर्जा भोजन से मिलने वाली ऊर्जा की तुलना में कहीं अधिक होती है। यदि नियमित व्रत संभव न हो, तो वर्ष में कम से कम एक बार महाशिवरात्रि का व्रत अवश्य करना चाहिए। इस व्रत से न केवल भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है, बल्कि भगवान शिव की विशेष कृपा भी प्राप्त होती है। इस प्रकार व्रत हमें आत्मिक और शारीरिक लाभ प्रदान करता है।
संध्याकाल का महत्व :
हिंदू धर्म में किसी भी कार्य को शुभ मुहूर्त में करने पर विशेष बल दिया गया है ताकि वह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सके। दिन और रात के मिलन का समय, यानी जब सूर्य अस्त होने की प्रक्रिया में होता है और चंद्रमा उदय होने को तैयार होता है, वह समय संध्याकाल कहलाता है। शिवपुराण में इस समय के महत्व को विशेष रूप से वर्णित किया गया है। इस समय भगवान शिव अपने दिव्य नेत्रों से तीनों लोकों का निरीक्षण कर रहे होते हैं। शिवपुराण के अनुसार, संध्या काल में क्रोध करना, कटु वचन कहना, भोजन करना, सहवास या यात्रा जैसे कार्य करने से बचना चाहिए, क्योंकि ये कार्य इस समय अशुभ माने जाते हैं और व्यक्ति पाप का भागी बनता है। शिव के कोप से बचने और अपनी जीवनशैली को शुभ बनाने के लिए संध्या काल में जप और ध्यान जैसी सात्विक प्रवृत्तियां करनी चाहिए।
सत्य बोलना :
झूठ बोलना अक्सर आसान लगता है और कई बार इससे तुरंत लाभ भी मिल सकता है। लेकिन शिवपुराण स्पष्ट करता है कि असत्य बोलने का परिणाम अंततः आत्मघातक होता है। झूठ का सहारा लेने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे अधर्म, अहंकार और अंधकार के रास्ते पर बढ़ता है, जहां से वापसी मुश्किल हो जाती है। सत्य ही वह आधार है जो व्यक्ति को उज्ज्वल भविष्य और स्थायी शांति प्रदान करता है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी सत्य का पालन करना ही मनुष्य का परम धर्म है। सत्य बोलने से न केवल आत्मबल और विश्वसनीयता बढ़ती है, बल्कि यह व्यक्ति को जीवन में सच्ची उपलब्धियों तक भी पहुंचाता है। शिवपुराण में सत्य को धर्म का सबसे बड़ा स्तंभ बताया गया है, जो हर मनुष्य को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
निष्काम कर्म :
प्रत्येक मनुष्य अपने कार्य को स्वार्थ और व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षाओं के साथ करता है, लेकिन इसी कारण उसे अपने कर्म का फल भी सीमित मात्रा में ही मिलता है। साथ ही, अक्सर लोग अपने कर्म करने से पहले ही उसके परिणाम को लेकर चिंतित हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यापारी व्यापार करता है, तो वह पहले से ही लाभ और हानि की आशंका में उलझा रहता है। हालांकि, वह जानता है कि व्यापार में लाभ और हानि स्वाभाविक हैं। इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है, यह मानते हुए कि वह मात्र एक माध्यम है और सारा कार्य परमात्मा का है। तो न केवल उसकी चिंता कम हो जाती है, बल्कि उसे लाभ और संतोष का अनुभव भी होता है। शिवपुराण सिखाता है कि हर कार्य को निष्काम भाव से करना चाहिए, चाहे वह व्यापार हो या कोई और कर्म। जब हम फल की चिंता छोड़कर अपना कर्म करते हैं, तो जीवन की व्यर्थ चिंताओं से मुक्ति पाते हैं और सफलता की ओर अग्रसर होते हैं।
अनावश्यक इच्छाओं का त्याग :
मनुष्य के दुख का सबसे बड़ा कारण उसकी असीमित इच्छाएं होती हैं। एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है, और यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता। इस तरह, मनुष्य इच्छाओं के इस अंतहीन चक्र में उलझकर अपने पूरे जीवन को खपा देता है। शिवपुराण में स्पष्ट कहा गया है कि अनावश्यक और असमर्थनीय इच्छाओं का त्याग करना ही सच्चा सुख प्राप्त करने का मार्ग है। जब कोई व्यक्ति अपनी सभी अनावश्यक इच्छाओं को त्याग देता है, तब उसे जो सुख प्राप्त होता है, वह साधारण सुख नहीं, बल्कि महासुख होता है। यही वह स्थिति है, जब व्यक्ति वास्तविक आनंद और आत्मिक शांति का अनुभव करता है।
मोह का त्याग :
इस संसार में कई लोग किसी व्यक्ति, वस्तु, या परिस्थिति से आवश्यकता से अधिक मोह बांध लेते हैं, और यही मोह उनके दुख और असफलता का प्रमुख कारण बनता है। उदाहरण के तौर पर, जब कोई शख्स अपने पति-पत्नी या बच्चों से अत्यधिक मोह कर लेता है, तो उनकी हर छोटी-बड़ी गतिविधि उसकी खुशी और दुख का आधार बन जाती है। यदि बच्चा परीक्षा में अच्छे अंक लाता है या पति-पत्नी के साथ दिन अच्छा बीतता है, तो शख्स को असीम सुख की अनुभूति होती है, लेकिन अगर बच्चा बीमार पड़ जाए या पति-पत्नी से किसी बात पर मतभेद हो जाए, तो वह गहरे दुख और चिंता में डूब जाता है। शिवपुराण हमें इस मोह से मुक्त होने की शिक्षा देता है। यह सिखाता है कि जब हम राग और मोह से मुक्त हो जाते हैं, तभी हमारे जीवन में परमात्मा के प्रति सच्चा समर्पण और प्रीति उत्पन्न होती है। परमात्मा न तो कभी दुख देते हैं, न ही कभी हमें छोड़ते हैं। जब जीवन में केवल ईश्वर से प्रीति होती है, तभी हमें सच्चे आनंद और शाश्वत सुख की अनुभूति होती है।
सकारात्मक कल्पना :
आज के युग को आविष्कारों और खोजों का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन सबके पीछे कौन-सी शक्ति कार्यरत है? शिवपुराण में इसका उत्तर दिया गया है। इसमें बताया गया है कि किसी भी आविष्कार या खोज के पीछे कल्पना शक्ति का योगदान होता है। भगवान शिव का कहना है कि ज्ञान से अधिक कल्पना का महत्व है। जिस प्रकार की कल्पना या विचार हम अपने मन में संजोते हैं, उसी के अनुरूप हम बन जाते हैं। महादेव ने योग और ध्यान की 112 विधियां बताई है, जो मानव मन की कल्पना और शक्ति को सही दिशा देने में समर्थ है। इसलिए हमें सदैव उत्कृष्ट और सकारात्मक कल्पना करनी चाहिए। सकारात्मक कल्पना ही हमारे विचारों को साकार रूप देकर संसार को नई दिशा प्रदान कर सकती है।
पशु नहीं, आदमी बनो :
शिव पुराण में एक महत्वपूर्ण शिक्षा दी गई है, जो कहती है कि जब तक मनुष्य अपने मन के अधीन रहता है, तब तक वह ईर्ष्या, राग, द्वेष और हिंसा जैसी पाश्विक प्रवृत्तियों से घिरा रहता है। ज्ञानियों ने इसे पशुवत अवस्था कहा है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने सबसे बुरे स्वभाव से घिरा रहता है और उसे सही-गलत का भेद समझ नहीं आता है। लेकिन जब वह इन नकारात्मक भावनाओं और प्रवृत्तियों को छोड़ देता है, तो वह उच्चतम अवस्था में पहुंचता है, जिसे सच्चिदानंद कहा जाता है। भगवान शिव का कहना है कि इस पशुता से मुक्ति पाने के लिए भक्ति और ध्यान जरूरी हैं। जब हम ध्यान और भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं, तब ही हमारी चेतना शुद्ध होती है और हम अपने भीतर के सच्चे आत्म सुख को पहचान पाते हैं। ये थी वे दस बातें जो शिव पुराण में बताई गई हैं, जिनका पालन करके कोई भी मनुष्य इसी जीवन में भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकता है। आशा करते हैं कि यह जानकारी आपके लिए लाभकारी रही होगी।
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