असीम शांति का सफर – Paramahansa Yogananda | Autobiography of a Yogi

Last Updated on December 27, 2024 by admin

जब परमहंस योगानंद जी ने सुना कि एक संत ऐसे भी हैं जो बिना सोए लगातार ध्यान में लीन रहते हैं, तो उनका जिज्ञासु मन इसे जानने के लिए बेचैन हो उठा। यह महज साधारण उत्सुकता नहीं थी, बल्कि उनके भीतर बचपन से ही संतों और योगियों के प्रति एक गहरा खिंचाव था। 

योगानंद जी को इन महापुरुषों से वही आकर्षण महसूस होता था, जैसा किसी पतंगे को दीये की रोशनी से होता है। उनका मन हमेशा ऐसे योगियों से मिलने और उनके ज्ञान के सागर में डूब जाने के ख्वाब देखा करता था। यही वजह थी कि वह बिना किसी झिझक के लंबी और कठिन यात्राओं पर निकल पड़ते थे, सिर्फ इन महापुरुषों का दर्शन करने और उनके अनुभवों से कुछ सीखने के लिए। 

लेकिन इस बार की उनकी यात्रा कुछ अलग थी। यह यात्रा न केवल रोमांच से भरी थी, बल्कि इसमें आत्मिक ज्ञान का ऐसा प्रकाश मिलने वाला था, जो उनके जीवन को हमेशा के लिए बदलने वाला था।

योगानंद जी अपने गुरु श्री युक्तेश्वर जी के आश्रम में केवल छह महीने ही रहे थे, लेकिन इस दौरान उनके मन में एक गहरे असंतोष की भावना उभरने लगी। आश्रम की जिम्मेदारियां और कॉलेज की पढ़ाई में वह इतने व्यस्त हो गए कि ध्यान के लिए मुश्किल से समय निकाल पाते। जब भी वह ध्यान करने बैठते, उनका मन काम और पढ़ाई की उलझनों से भर जाता। धीरे-धीरे यह असंतोष बढ़ता गया और उन्हें लगने लगा कि ऐसी जीवनशैली में वे कभी गहरे ध्यान की अवस्था तक नहीं पहुंच पाएंगे। 

आखिरकार एक दिन, उनके सब्र का बांध टूट गया। बेचैनी से भरे मन के साथ वे अपने गुरु श्री युक्तेश्वर जी के पास पहुंचे और विनती करते हुए बोले- “गुरुदेव, कृपया मुझे हिमालय जाने की अनुमति दीजिए, जहां मैं पहाड़ों की शांति में ध्यान कर सकूं।” युक्तेश्वर जी ने उनकी बात बहुत ध्यान से सुनी और फिर एक शांत स्वर में कहा- “लोग हिमालय में सालों तक रहते हैं, फिर भी आत्मसाक्षात्कार नहीं प्राप्त कर पाते। पहाड़ों से ज्ञान पाने की अपेक्षा, एक आत्मसाक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति से ज्ञान पाना बहुत बेहतर है।” 

यह बात युक्तेश्वर जी के लिए स्पष्ट थी- सच्ची शांति और ज्ञान बाहरी दुनिया से नहीं, बल्कि भीतर से प्रगट होता है। लेकिन उस वक्त योगानंद जी का मन इसे स्वीकारने को तैयार नहीं था। उनका दिल हिमालय की ओर जाने की जिद पर अड़ा रहा। 

लगातार मिन्नतें करने के बाद जब श्री युक्तेश्वर जी ने मौन धारण कर लिया, तो योगानंद जी ने इसे उनकी स्वीकृति मान ली। उन्होंने फौरन अपनी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी।

अगली सुबह योगानंद जी ने अपने मन में एक नई उमंग के साथ कॉलेज के प्रोफेसर से उस निद्राहीन संत का पता पूछा। जैसे ही उन्हें वह पता मिला, उन्होंने तुरंत निर्णय लिया कि पहले तारकेश्वर जाएंगे और फिर रणबाजपुर गांव की ओर बढ़ेंगे। उनके दिल में यह विश्वास था कि इस यात्रा से उन्हें वह आंतरिक शांति और आध्यात्मिक ज्ञान मिलेगा, जिसकी उन्हें बरसों से तलाश थी।

मंदिर में हुई गलती और उसकी सजा

जब योगानंद जी तारकेश्वर पहुंचे, तो उस प्रसिद्ध मंदिर को देखने का उत्साह उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था। यह वही जगह थी, जहां हर साल हजारों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते थे। लेकिन जैसे ही वह उस पवित्र मूर्ति के सामने खड़े हुए, उनके मन में अचानक से वैराग्य के विचार उमड़ने लगे। उन्होंने सोचा, “ईश्वर को खोजने का असली मार्ग तो अपने भीतर है, बाहर नहीं।” 

इस विचार के प्रभाव में, उन्होंने न तो मूर्ति के सामने झुकने की जरूरत समझी और न ही प्रार्थना की। वे सीधा मंदिर से बाहर निकल आए। इस बारे में योगानंद जी ने बाद में लिखा- “मंदिर को पीछे छोड़ते हुए, मैंने रणबाजपुर गांव की ओर कदम बढ़ाए। लेकिन मुझे बिलकुल अंदाजा नहीं था कि मेरी इस घमंड भरी सोच के कारण आगे क्या होने वाला है।” 

रास्ते में एक बड़े पेड़ के नीचे बैठे एक आदमी से योगानंद जी ने गांव का रास्ता पूछा। आदमी ने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा- “आगे एक चौराहा आएगा, वहां से बाएं मुड़ जाना और सीधे चलते रहना।” योगानंद जी ने उसकी बात मान ली और बताई गई दिशा में चल पड़े। 

रास्ता भटकना और चोर समझा जाना

कुछ देर चलने के बाद योगानंद जी को आभास हुआ कि यह रास्ता गलत है। चारों ओर घना अंधेरा था, न कोई गांव नजर आ रहा था, न कोई इंसान। जंगल से सियारों की डरावनी आवाजें भी आने लगीं। हालात ऐसे थे कि लौटना भी संभव नहीं था। योगानंद जी ने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो, आगे बढ़ना ही होगा। चांद की हल्की रौशनी में वह वीराने में घंटों तक भटकते रहे। 

करीब दो घंटे बाद, दूर एक झोपड़ी दिखाई दी। उम्मीद की किरण लिए उन्होंने आवाज लगाई। थोड़ी देर में झोपड़ी से एक किसान बाहर निकला। योगानंद जी ने उससे संत के गांव का रास्ता पूछा, लेकिन किसान का चेहरा गुस्से से भर गया। वह चिल्लाया, “यहां कोई संत-वंत नहीं रहते! तुम जरूर कोई चोर हो, जो रात में इधर-उधर घूम रहा है।” 

योगानंद जी ने तुरंत अपनी स्थिति समझाई और पूरा किस्सा कह सुनाया। किसान का गुस्सा थोड़ा कम हुआ। उसने गहरी सांस लेते हुए कहा, “तुम गलत रास्ते पर चले आए हो। चौराहे से तुम्हें बाएं नहीं, दाएं मुड़ना चाहिए था।” 

यह सुनकर योगानंद जी जाने के लिए तैयार हो गए, लेकिन किसान ने उन्हें रोक लिया। उसने कहा, “अब तो रात का घना अंधेरा है। तुम फिर से भटक जाओगे। बेहतर होगा कि रात यहीं गुजार लो। सुबह मैं तुम्हें सही रास्ता दिखा दूंगा।” 

किसान के इस प्रस्ताव के लिए योगानंद जी ने आभार व्यक्त किया और रात उस किशान के छोटे से कमरे में गुजार ली।

सुबह की पहली किरण के साथ, योगानंद जी ने किसान का आभार प्रकट किया और अपने सफर पर फिर से निकल पड़े। इस बार रास्ता मुश्किल और कंटीला था, लेकिन उनके मन में सुकून था कि वह सही दिशा में बढ़ रहे हैं। करीब दो घंटे की कठिन मेहनत के बाद, उन्हें वह रास्ता मिल गया जो उन्हें उनकी मंजिल तक ले जाने वाला था। 

बस दो मील की दूरी और संत का गहरा ज्ञान 

सही रास्ता पाकर योगानंद जी का उत्साह चरम पर था। तेज कदमों से आगे बढ़ते हुए, उन्होंने एक राहगीर से पूछा, “अब कितनी दूरी बची है?”  राहगीर ने मुस्कुराते हुए कहा, “बस दो मील और।” 

योगानंद जी ने उस जवाब पर विश्वास करते हुए चलना जारी रखा। एक घंटे की यात्रा के बाद जब उन्होंने किसी और से पूछा, तो वही जवाब मिला, “बस दो मील और।” यह सिलसिला लगातार चलता रहा। पूरे छह घंटे बीत चुके थे, लेकिन “बस दो मील” की दूरी जैसे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। 

थकान और निराशा ने उनके शरीर और मन को जकड़ लिया। ऐसा लग रहा था जैसे यह सफर कभी खत्म नहीं होगा। हार मानने की कगार पर पहुंचकर, उन्होंने ठहरकर अपनी आंखें बंद कीं। मन ही मन उन्होंने संत से प्रार्थना की, “हे प्रभु, मुझे इस यात्रा को पूरा करने की शक्ति प्रदान करें।” 

इस प्रार्थना के बाद, योगानंद जी ने महसूस किया कि उनके शरीर में एक नई ऊर्जा भर गई है और वह अब तेज़ी से चल रहे थे। तभी अचानक उन्होंने अपने कंधे पर किसी का हाथ महसूस किया। चौंक कर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, तो एक छोटे पत्थर पर खड़ा एक आदमी दिखा, जिसका रंग सांवला था और उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी। बिना किसी हिचकिचाहट के उस आदमी ने पूछा- तुम यहाँ किस लिए आए हो?  अपनी जिद की वजह से, है न?” 

तुम्हारे प्रोफेसर को तुम्हें मेरा पता देने का कोई हक नहीं था। योगानंद जी हतप्रभ रह गए। ये आदमी कौन है? यह आदमी उनके बारे में कैसे जानता है?

और फिर उन्हें अहसास हुआ कि यह वही निद्राहीन संत है, जिनकी तलाश में वे यहाँ तक आयें है। संत ने फिर योगानंद जी से पूछा, “तो बताओ, तुम्हारे हिसाब से ईश्वर कहाँ है?” 

योगानंद जी ने धीरे से जवाब दिया, “ईश्वर हमारे अंदर और बाहर हर जगह है।” 

संत मुस्कराए और कहा, “ईश्वर हर जगह है, तो फिर जब तुम मंदिर के सामने से गुज़रे थे, तो बिना प्रणाम किए क्यों चले गए? क्या तुम्हें उस पत्थर में ईश्वर नहीं दिखाई दिए?” 

शायद तुम्हारे इसी घमंड की वजह से उस राहगीर ने तुम्हें गलत रास्ता दिखा दिया? जिससे तुम कल से आज सुबह तक परेशान हो।

फिर संत ने एक गहरी और शांत आवाज में कहा, “मेरे गुरु लाहिड़ी महाशय हमेशा कहा करते थे कि हर इंसान को लगता है कि उसका चुना हुआ रास्ता ही ईश्वर तक पहुँचने का एकमात्र तरीका है। लेकिन सच तो यह है कि ईश्वर तक पहुँचने के कई रास्ते होते हैं। इसलिए कभी अपने रास्ते पर घमंड मत करो। जब तुम सच में अपने अंदर ईश्वर को खोजोगे, तो तुम जल्दी ही समझ जाओगे कि वो हर जगह है, तुम्हारे अंदर भी और बाहर भी।

इस घटना ने योगानंद जी को बहुत ही महत्वपूर्ण सबक दिया। उन्होंने जान लिया की अध्यात्म के मार्ग पर घमंड सबसे बड़ा दुश्मन होता है।  अहंकार के त्याग के बिना सच्ची समझ नहीं आ सकती।

अब तक संत का गुस्सा भी शांत हो चूका था। संत ने बिल्कुल शांत भाव से योगानंद जी के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, “युवा महोदय, आप अपने गुरु से क्यों भाग रहे हैं? जो कुछ भी आप पाना चाहते हैं, वह आपके गुरु के पास ही है। बाहर के पर्वत और गुफाएँ आपको सच्चा ज्ञान नहीं दे सकतीं।”

योगानंद जी चौंक गए। यह वही बातें थीं जो उनके गुरु श्री युक्तेश्वर जी ने उन्हें कही थीं। संत ने फिर पूछा, “आपको ध्यान करने के लिए एकांत की आवश्यकता है, है ना? क्या आपके पास कोई शांत कमरा है, जहाँ आप ध्यान कर सकें?”

योगानंद जी ने सिर हिलाकर हाँ कहा। संत मुस्कुराते हुए बोले, “तो वही कमरा आपका हिमालय है। जब आप अपनी आँखें बंद करते हैं, तो कल्पना करें कि आप एक गहरी, शांत गुफा में हैं। वहीं पर शांत होकर ध्यान करें।”

संत के शब्दों का तात्कालिक प्रभाव पड़ा। योगानंद जी को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह वास्तव में एक शांत गुफा में प्रवेश कर गए हों। अब हिमालय की ओर उनकी दीवानगी पूरी तरह से समाप्त हो चूकी थी।

फिर संत ने योगानंद जी को अपने कुटिया में आमंत्रित किया। गहरे ध्यान से बाहर आने के बाद, योगानंद जी ने उत्सुकता से पूछा, “लोग आपको निद्राविहीन संत क्यों कहते हैं? क्या आप सच में कभी सोते नहीं?”

संत ने बहुत शांत भाव से कहा, “मैंने 20 साल तक एक शांत गुफा में रोज 18 घंटे ध्यान किया, फिर 25 और सालों तक बिना सोए पहाड़ों पर 20 घंटे रोज़ ध्यान किया। इस अवस्था में मुझे सोने से कहीं ज्यादा शांति और आराम मिला। जब हम सोते हैं, तो केवल हमारा शरीर सोता है, लेकिन हमारे अंदर के कई अंग सक्रिय रहते हैं, जिससे हमें अधूरा आराम मिलता है। लेकिन गहन ध्यान में जब हम अति अवचेतन अवस्था में पहुँच जाते हैं, तो सभी अंग शांत हो जाते हैं और मैं पूर्ण विश्राम की अवस्था में पहुँच जाता हूँ।”

योगानंद जी ने जब इस गहरे अवचेतन अवस्था के बारे में सुना, तो उन्होंने संत से विनम्रता से पूछा, “महाराज, मुझे भी आप समाधि क्यों नहीं लगवा देते?”

संत ने मुस्कुराते हुए समझाया, “अभी तुम उस स्तर तक नहीं पहुंचे हो, जहाँ तुम इसे धारण कर सको। यानी तुममें अब तक वह क्षमता नहीं आई है, जिससे तुम इस स्थिति की पूरी शक्ति को संभाल सको। पहले तुम्हें अपने शरीर और मन को मजबूत करना होगा।”

निद्राहीन संत ने योगानंद जी की ओर शांत नजरों से देखा और कहा, “तुम्हारी सेहत अच्छी है और भगवान के प्रति तुम्हारा समर्पण सराहनीय है, लेकिन याद रखो, जो तुम पाना चाहते हो, वह बाहर नहीं मिलेगा। इसके बजाय, जो तुम बनना चाहते हो, उस पर ध्यान दो। हम वही प्राप्त करते हैं जिसके लिए हम सच में तैयार होते हैं। जब सही समय आएगा, तो ज्ञान और शक्ति स्वाभाविक रूप से तुम्हारे अंदर से प्रगट होगी। यह इस ब्रह्मांड का एक अटल नियम है।”

अगली सुबह, योगानंद जी ने संत से विदा ली। विनम्रता और आभार से भरे दिल के साथ, उन्होंने मन ही मन अपने गुरु श्री युक्तेश्वर जी से माफी मांगी और अपने आश्रम की ओर लौट गए।

योगानंद जी की आध्यात्मिक यात्रा हमें कुछ बेसक़ीमती शिक्षा देती है, जो हमारी जिंदगी को नई दिशा दे सकती है। आइए, इन चार महत्वपूर्ण शिक्षाओं को समझते हैं।

नंबर एक “विनम्र रहना”


सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यह है कि हमें अपने बौद्धिक  समझ पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए। जब हम अपने ज्ञान पर गर्व महसूस करते हैं, तो हमारी विकास की प्रक्रिया रुक जाती है। जैसा कि कहा गया है, “विद्या ददाती विनयम्”। विद्या विनम्रता देती है। इसलिए अहंकार रहित विनम्र बने और हमेशा खुले मन से सीखते रहें।

नंबर दो- “ध्यान के साथ जिएं” 

ध्यान का मतलब सिर्फ एक जगह बैठकर आंखे बंद कर लेना ध्यान नहीं है। यह जीवन के हर पल में पूरी तरह से उपस्थित रहने के बारे में है। जब आप किसी कार्य में पूरी तरह से लीन होते हैं, तो वह भी एक प्रकार का ध्यान है। इसे हम “माइंडफुल लिविंग” भी कह सकते हैं। इस सबक से हम यह समझते हैं कि हर एक पल को ध्यान की तरह जियो ।

नंबर तीन- “आंतरिक शांति पाएं”

आंतरिक शांति यानी इन्नर पीस, एक ऐसी चीज़ है जो बाहरी शांति से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। कल्पना कीजिए कि आपका मन एक विशाल पर्वत है – अडिग, अटल और शक्तिशाली। आपकी बंद आंखें एक शांत गुफा जैसी हैं, जहां कोई भी व्यवधान या परेशानी आपको छू नहीं सकती। यही वास्तविक एकांत है। जब हम अंदर की शांति से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं, तब कोई भी बाहरी हलचल हमें परेशान नहीं कर सकती।

नंबर चार- “योग्य बने, फिर इच्छा करें” 

हमारी जिंदगी में जो कुछ भी मिलता है, वह हमारी आंतरिक स्थिति का ही प्रतिबिंब होता है। इसलिए, बाहरी चीजों के पीछे दौड़ने के बजाय, हमे स्वयं के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यही सही तरीका है। हिमालय की तरह मजबूत, शांत और अडिग बनिए। जब आप अपने भीतर की शक्ति को पहचानते हैं और उसे विकसित करते हैं, तो आपको वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है जिसकी आपको जरूरत है। योगानंद जी की यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि असली विकाश बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही होता है।

DISCLAIMER:  हमारा उद्देश्य सनातन धर्म को बढ़ावा देना और समाज में धर्म के प्रति जागरूकता बढ़ाना है। हमारे द्वारा प्रस्तुत किए गए तथ्य वेद, पुराण, महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता, और अन्य धार्मिक ग्रंथों से लिए गए हैं। इसके अतिरिक्त, जानकारी का स्रोत इंटरनेट, सोशल मीडिया, और अन्य माध्यम भी हैं। हमारा एकमात्र उद्देश्य हिंदू धर्म का प्रचार करना है।यहां प्रस्तुत जानकारी सामान्य मान्यताओं और स्रोतों पर आधारित है,  और ” mybapuji.com” इसकी सत्यता की पुष्टि नहीं करता है।

Leave a Comment

Share to...