मनुष्य किसी दुसरे कारण से नहीं, अपने ही कर्मो से नाश को प्राप्त करता है। ‘चिन्ता चिता समान’ चिन्ता से सर्वप्रकार तनाव, तत्पश्चात् शारीरिक अस्वस्थतता की उत्पत्ति होती है। अतः उत्तम स्वास्थ्य के लिए परम आवश्यक है कि हम सभी प्रकार की चिन्ताओं, क्रोध, द्वेष और तनाव आदि से दूर रहें। चिन्ता त्याग कर ही हम स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकते है।
निम्न बातों का पालन करने से चिन्ता दूर हो सकती है-
- सदैव प्रसन्न रहें। संसार में अप्रसन्न रहने का कोई कारण नहीं है।
- समस्याओं से घबराएं नहीं बल्कि उनका साहसपूर्वक सामना करें।
- फल की चिन्ता छोड़कर अपने प्रत्येक उत्तरदायित्व का पालन लगन एवं सच्चाई से करें। प्रकृति स्वयं ही समय पर इसका फल देगी।
- किसी भी स्थान, व्यक्ति, परिस्थिति में कोई आसक्ति न रखें।
- निष्काम कर्म करना चिंता से दूर रखता है। निष्काम कर्म ईश्वर को अभिभूत कर देता है।
- हालात से कभी निराश न हों, चाहे जो होना है, हो जाएं।
- जीवन श्राप नहीं, सतत् वरदान है। जीवन का हर सुर प्यारा है।
- कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनें। कर्तव्यपालन मन को वास्तविक प्रसन्नता एवं तृप्ति प्रदान करता है।
- अधिकांश रोगों की उत्पत्ति मानसिक असंतोष, चिंता एवं उद्दिग्नता के कारण होती है। इससे सदैव बचें।
- कभी किसी बात का वहम न करें, उसका कोई उपचार नहीं।
- सोते समय अपने मस्तिष्क से विचार को रिक्त कर दें।
- शीघ्रता में कोई काम न करें।
- भरपूर निद्रा लें तथा आराम करें। तन-मन को अधिक न थकाये।
- सामर्थ्यानुसार रोज व्यायाम करें।
- दुर्व्यसनों से सदा दूर रहें। व्यवहार-बुद्धि बनाएं रखें।
- रोग आरोग्य,सुख-दुःख का आधार शरीर और मन ही है।
- क्रोध को पास न भटकने दें।
- वस्तुओं का उपयोग करे, किंतु आवश्यकतानुसार करें, त्याग भाव से करें।
- याद रखें निर्भीकता ही जीवन है। साहस का दामन न छोड़े।
- पर धन और परस्त्री की कामना न करें।
- अधीर न हों। उत्साही बनें रहें। भावनात्मक रूप से कहीं किसी से न जुड़ें।
- कार्य उचित समय को न त्यागें, विलंब से कार्य करने का त्याग करें।
- कार्य पूर्ण होने पर अति हर्ष और असफल होने पर अति शोक न करें।
- किसी से विवाद न करें। बस काम से काम रखें।
- सतत् स्मरण रखें जो हुआ अच्छा, जो हो रहा अच्छा, जो होगा वो भी अच्छा।
- स्त्रियों पर अति विश्वास न करे, उनकी निंदा न करें, उन्हें गुप्त रहस्य न बतायें, उन्हें बलपूर्वक अधिकार में न रखें। यूक्ति से उनका सेवन करें पर उनमें आसक्त न रहें।
- प्रातः सायं भ्रमण करें। हमेशा साक्षी भाव में रहें, द्रष्टा की तरह।
- सदा आत्मभाव से स्थित रहें, मनोरमों के पीछे शक्ति का अपव्यय न करें।
- समर्थ न होने पर भी दूसरों पर प्रहार न करें।
- निर्धन होने पर भी लोभ न करें। जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण रखें।
- विपत्ति में धैर्ययुक्त तथा संपत्ति में सरल व्यवहारयुक्त हों।
- मन, वचन तथा कर्म से स्व-धर्म का पालन करें क्योंकि सृष्टि की कोई भी वस्तु अमर्यादित और विकारग्रस्त होकर सुरक्षित नहीं रह सकती।
- आहार-विहार, आचार-विचार सात्विक रखें।
- आत्मबल को बनायें रखें, इसी से स्वस्थतता व सजीवता की प्राप्ति होती है।
- याद रखें मन सर्वस्व है, शारीरिक अपराध तभी होते हैं जब मन मलिन, निर्बल व चंचल होता हैं।
- चिन्तारहित होकर सदाचार से शरीर की रक्षा करें, क्योंकि
- शरीर रोग रहित होने पर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधना हो सकती हैं।
- सदैव ‘स्व’ में ही स्थित रहें।
- हमेशा शांत और खुश रहें। कम बोलने की आदत डालें। जरूर हो, उतना हो बोले।
- पर नारी-महामारी की भावना को बनाएं रखें।
- सदा संतुष्ट रहते हुए अच्छे विचारों को जीवन में उतारें क्योंकि उत्तम विचारों से मानसिक सुख तथा स्वास्थ्य अच्छा रहता हैं।