ज्योतिष कुंडली के अनुसार रोग विचार | Jyotish Aur Rog Vichar

Last Updated on July 22, 2019 by admin

आयुर्वेदशास्त्र और ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध है।आयुर्वेद में आयुतत्त्व के घटकों का विवेचन है और ज्योतिर्विद्या में कालतत्त्व-समय-चक्र का निरूपण रहता है। दोनों का सम्बन्ध मानव से है। ज्योतिर्विद्या के अनुसार तारापुञ्जों के तीन समुदाय हैं, जिनका सम्बन्ध आयुर्वेद के त्रिदोष से है। उदाहरणार्थ यदि किसी व्यक्ति का जन्म
वात-समुदाय के नक्षत्रों में हुआ है तो वह उन रोगों से अधिकतर पीडित रहेगा, जो वातजनित हैं। ठीक इसी प्रकार ग्रहों और चिह्नों के प्रभाव भी तीनों धातुओं पर होते हैं।
जन्म-कुण्डली का अध्ययन करके वैद्य यह निर्धारित कर सकता है कि अमुक व्यक्ति दुर्बल संकल्पवाला है,
निराशावादी है अथवा भावुक है। रोगी के बाह्य लक्षण उस आन्तरिक बीमारी के परिचायक हैं, जो स्थूल रूप में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जन्म-कुण्डली रोग की सम्पूर्ण अवस्थाओं का उद्घाटन कर सकती है।

उदाहरणार्थ –
जन्म-कुण्डली में यदि शनि तुला राशि में हो और बुध पर उसकी दृष्टि हो तो वह गुर्दे की रक्त-कोशिकाओं में तीव्र अकडन पैदा कर सकती है। इसे प्रायः रासायनिक विश्लेषण के द्वारा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि यह स्थिति कभी बनती है और कभी नहीं। डॉक्टर तो केवल रोग होने पर ही परीक्षण करके यह बता सकता है कि इसे अमुक रोग है, जबकि सुयोग्य दैवज्ञ रोग होने के पूर्व ही यह घोषित कर सकता है कि इसे अमुक समयमें अमुक रोग होगा और इतनी अवधितक रहेगा।

जन्म-कुण्डली के समान ही हस्तरेखा भी रोगनिदान में सहायक होती है। रोगी जिस समय चिकित्सक के पास आता है, उस समय की प्रश्न-कुण्डली बनाकर भी यह जाना जा सकता है कि रोगी स्वस्थ होगा या नहीं? यदि कोई वैद्य किसी रोगी की चिकित्सा प्रारम्भ करनेके पूर्व ही यह ज्ञात कर ले कि अमुक व्यक्तिकी आयु शेष है; अमुक ग्रह-दशा में जो रोग उत्पन्न हुआ है, वह प्रायः समाप्त है तो वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ चिकित्सा कर के यश कमा सकता है। यदि वैद्य को चिकित्सा के पूर्व ही यह ज्ञात हो जाय कि इसकी मारकेश की दशा चल रही है तो वह दैवव्यपाश्रय चिकित्सा का परामर्श दे सकता है।

किस ग्रह से कौन सा रोग देखा जाता है :

चन्द्रमा पृथ्वी के समीप होने से मानवजीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। समुद्र में उठनेवाला लघु-ज्वार एवं बृहद्-ज्वार चन्द्र एवं सूर्य की गतिविधियों के कारण आता है। जब चन्द्र और सूर्य एक-दूसरे से समकोण बनाते हैं, तब लघु-ज्वार तथा सूर्य-चन्द्र जब एक-दूसरे के आमने-सामने होते हैं तब बृहद्-ज्वार आता है। मनोविकारों के सम्बन्ध में अनुसन्धान करनेवाले चिकित्सकों का एक दल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि चन्द्रमा की कलाओं और फ्लोरिडा (सं० रा० अमेरिका) के डेड काउण्टी क्षेत्र में होनेवाली हत्याओं का सीधा सम्बन्ध है। मियामी विश्वविद्यालय के मेडिकल स्कूल के मनोवैज्ञानिक डॉ० आर्नल्ड एल० लाइबर का कहना है कि मियामी क्षेत्रमें हुई हत्याओं के चार्ट का समुद्री ज्वारभाटे से विचित्र मेल बैठता है। इस दल ने कम्प्यूटर की सहायता से सन् १९५६-७० ई० के बीच हुई लगभग १९०० हत्याओं का विश्लेषण किया। इससे पता चला कि पूर्णिमा से २४ घण्टे पूर्व हत्या की दर में वृद्धि हुई, पूर्णिमा जब चरम सीमापर पहुँच गयी, उसके बाद यह दर कम हो गयी। मानव-शरीर में पानी की मात्रा अधिक होती है, अतः चन्द्रमा मानव-शरीर को सर्वाधिक प्रभावित करता है। जलोदर आदि बीमारियाँ पूर्णिमा को अधिक बढ़ जाती हैं।

ग्रहों का सम्बन्ध सामान्यतया निम्नाङ्कित रोगों से है।

१-सूर्य-

सूर्य का सम्बन्ध सिर-दर्द, नेत्र-पीडा, ज्वर, पित्त और हृदय-रोग से है। जन्मपत्री में सूर्य के निर्बल होनेसे हड्डियाँ कमजोर होंगी। यदि सूर्य बारहवें भाव में पापग्रह से दृष्ट होगा तो बायीं आँख और द्वितीय भावमें होनेपर दायीं आँख कमजोर होगी।

२-चन्द्रमा-

चन्द्रमा का सम्बन्ध कफ से है। इससे पीडित होने से जातक को क्षय, दमा, खाँसी, निमोनिया और हृदयरोग होते हैं। जलीय रोग और मानसिक रोग भी चन्द्रमा उत्पन्न करता है।

३-मंगल-

मंगल का रक्त-विकार, घाव, फोड़े फुसी, बवासीर, चेचक, स्त्रियों के रज-सम्बन्धी दोष, आँव-विकार और ब्लड प्रेशर तथा चोट लगने आदि से सम्बन्ध है।

४-बुध-

बुध का सम्बन्ध वाणी से है। इसके निर्बल होनेसे बालक गूंगा हो सकता है, हकलाता है। अथवा तुतलाता है। बुध-ग्रह नपुंसकता एवं चर्मरोग भी उत्पन्न करता है।

५-गुरु-

गुरु का सम्बन्ध पीलिया, हार्ट-अटैक तथा (वायुजनित) संनिपात आदिसे है।

६-शुक्र-

यह वीर्य-सम्बन्धी विकार, मूत्र एवं मूत्रेन्द्रिय के रोग, चीनी की बीमारी तथा नेत्ररोग उत्पन्न करता है। पेशाब की थैली में पथरी का होना भी शुक्र से सम्बन्ध रखता है।

७-शनि-

यह गैस-ट्रबल, लकवा तथा भ्रम से उत्पन्न रोगों से सम्बन्ध रखता है।

८-राहु-

यह फूड-पॉयजनिंग (भोजनकी विषाक्तता), सर्प-दंश, दन्त-पीडा आदि उत्पन्न करता है।

९-केतु-

केतु-ग्रह निमोनिया, भगंदर आदि रोग उत्पन्न करता है।

इसी प्रकार बारह राशियाँ तथा जन्मपत्री के बारह भाव भी कालपुरुष के विभिन्न अङ्गों के प्रतिनिधि होते हैं।
पहला भाव सिर, दूसरा मुख एवं दाहिनी आँख, तीसरा गला और बाँह, चौथा छाती, पाँचवाँ उदर, छठा पेड़, सातवाँ गुप्ताङ्ग, आठवाँ गुदा, नवाँ जाँघ, दसवाँ घुटना, ग्यारहवाँ पिण्डली तथा बारहवाँ पाँव एवं बायीं आँखका प्रतिनिधित्व करता है।

यदि किसी भाव में पाप-ग्रह या नीच-ग्रह हो तथा उसका भावेश भी कमजोर हो तो उस भावेश की दशा में उस भावसम्बन्धी अङ्गों में रोग होगा। जैसे यदि तीसरा भाव और भावेश कमजोर हो तो भावेश-दशामें गलेकी बीमारी, श्वास-रोग या कर्ण-रोग भी हो सकता है।

रोग-सम्बन्धी कतिपय योग :

१-यदि जन्म-कुण्डली के किसी भाव में चन्द्र बुध की युति हो और वे सूर्य, मंगल तथा शनि से दृष्ट हों तो जातक मानसिक रोगी होगा।

२-छठे भाव में राहु और मंगल हों तो आँत-वृद्धि होती है।

३-चौथा भाव चतुर्थेश, कर्क राशि तथा चन्द्र पाप-ग्रहके प्रभावमें हों तथा लग्नेश एवं शुक्र छठे या बारहवें भाव में हों तो क्षय-रोग होता है।

४- यदि चन्द्र चतुर्थेश होकर छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो और उस पर राहु की दृष्टि हो तो मृगीरोग होता है।

५-लग्नेश बुध चन्द्र के साथ अथवा लग्नेश चन्द्र बुध के साथ हो तथा इनपर राहु एवं शनि की पूर्ण दृष्टि हो तो कुष्ठ-रोग होता है।

रोग कब होता है ? :

रोगकारक ग्रह की महादशा में तथा अन्य पीडाकारक ग्रह की अन्तर्दशा में बीमारी आती है। दूसरे, छठे, आठवें एवं बारहवें भावों के स्वामी अपनी महादशा एवं अन्य ग्रहों की अन्तर्दशा तथा प्रत्यन्तर्दशा में बीमारी लाते हैं। दो केन्द्रों का स्वामी शुभ ग्रह भी अपनी दशामें पीडा देता है। यदि लग्नेश छठे भाव में हो या षष्ठेश लग्न में हो तो ऐसा व्यक्ति प्रायः बीमार रहता है। यदि लग्नेश लग्न में हो अथवा लग्न को देखता हो या केन्द्र में मित्र राशि में हो तो ऐसा व्यक्ति अधिकतर स्वस्थ रहता है। इसके साथ साथ यदि अष्टमेश स्वग्रही हो, केन्द्र में हो या अष्टम भाव में शनि हो तो जातक दीर्घायु होता है।

इस प्रकार रोगी की जन्मकुण्डली में ग्रहों की स्थिति को देखकर तथा वर्तमान में चल रही महादशा, अन्तर्दशा एवं प्रत्यन्तर्दशा ज्ञात कर और गोचर का विचार कर ज्योतिष का ज्ञाता चिकित्सक रोग का सही निदान कर सफल चिकित्सा कर सकता है।

ज्योतिर्विज्ञान का प्रादुर्भाव भारत में हुआ। पाराशर,जैमिनी, वाराहमिहिर आदि महान् ज्योतिर्विद् भारत में हुए; पर खेद का विषय है कि भारतवासी ज्योतिष से उतना लाभ नहीं उठा रहे हैं, जितना आज विदेशों में लोग लाभ उठा रहे हैं। इंग्लैण्ड, जर्मनी, अमेरिका आदि उन्नत देशों में चिकित्सक, पुलिस-अधिकारी एवं मनोवैज्ञानिक ज्योतिषशास्त्र से मार्गदर्शन ले रहे हैं।

स्वीडन के एक वैज्ञानिक सावन्ते आर हेन्थसने वैज्ञानिक खोज के आधारपर प्रमाणित किया है कि स्त्रियों में मासिकधर्म चन्द्रमास की विशेष तिथियों में ही प्रकट होता है। वाराहमिहिरने भी यही कहा है कि स्त्रियों का मासिक धर्म चन्द्र-मंगल से प्रभावित होता है। स्त्री रोग विशेषज्ञ ओगिनो एवं नौसका कहना है कि गर्भाधान के लिये सर्वश्रेष्ठ समय मासिक धर्म से चौदहवाँ, पंद्रहवाँ और सोलहवाँ दिन होता है। हमारा जातक पारिजात ग्रन्थ इसी बात को बहुत पहले से ज्ञान में होना बताता है। डॉक्टर एडसन एण्ड्रसने प्रमाणित किया है। कि रक्तस्रावका ८२ प्रतिशत चन्द्र के पहले और तीसरे सप्ताह में होता है।

कार्ल जंगने रोग-निदान के लिये पश्चिम में ज्योतिविद्या का व्यापक प्रयोग किया है। आज भारतीयों से भी
अधिक पश्चिमी देशों के लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं। अतः भारतीय चिकित्सकों को भी रोग-निदान | और चिकित्सामें भारत के प्राचीनतम ज्ञान-ज्योतिर्विज्ञान से मार्गदर्शन लेकर लाभ उठाना चाहिये।

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