Last Updated on July 24, 2019 by admin
शास्त्रों में दिए गए इस महा वाक्य का क्या मतलब है;- “ब्रह्म (ईश्वर) सत्य, जगत मिथ्या” ?
यह मात्र कोई उपदेश नहीं है …………… यह एक 100 प्रतिशत शुद्ध सच है जिसे कोई आदमी सिर्फ तभी महसूस कर पाता है जब या तो उसकी खुद की मेहनत (हठ योग, राज योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि) से या गुरु/दैवीय कृपा से उसकी आँखों पर से माया का चश्मा उतर जाता है !
सभी जीवात्माएं एक हैलूसिनेशन (भ्रम, कल्पना, स्वप्न) में ही जी रहीं हैं ठीक उसी तरह जैसे एक वर्चुअल रियलिटी का गेम खेलने वाला लड़का, उस नकली संसार में असली सुख, दुःख, उत्साह, तनाव आदि भावनाएं महसूस करता है !
और जब वो लड़का उस गेम को खेलना बन्द कर आँखों से स्पेशल चश्मा और इलेक्ट्रॉनिक सेन्सर्स आदि हटा देता है तो अब उसे यह प्रत्यक्ष दिखने वाला संसार ही असली लगने लगता है …………… पर वो लड़का अभी भी गलत समझ रहा है …………….. और मजे की बात है कि सिर्फ वो लड़का ही नहीं बल्कि हम सभी भी इस प्रत्यक्ष दिखने वाले संसार को असली समझने की गलती करते हैं ……………….. क्योंकि साधारण आँखों से दिखने वाला यह संसार भी असली नहीं है …………….. क्योंकि साधारण इन्सानी आँखों के ऊपर तो हमेशा एक स्पेशल चश्मा लगा हुआ रहता है ……………….. और यह अपनी इच्छा पर भी नहीं होता है कि जब मन किया तब इस चश्मे को उतार दिया ……………………. क्योंकि यह चश्मा किसी भी जीव के जन्म लेते ही उसकी आँखों पर और सोच पर भी इतना ज्यादा मजबूती से फिट हो जाता है कि उसे निकालने के लिए बेहद कड़ी मेहनत करनी पड़ती है ……………… अगर मेहनत नहीं की तो यह चश्मा अगले जन्म में भी पैदा होते ही लग जाता है ………………. इसी चश्मे का नाम है – “माया” !
यह माया का चश्मा उतारकर असली संसार का दर्शन तभी होता है जब किसी मानव की कुण्डलिनी शक्ति फुफकार कर जाग उठती है …………….. इसलिए हमारे वेरी साइंटिफिक धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि कुण्डलिनी जागने पर ही कोई इन्सान वास्तव में जागता है और उससे पहले तक तो हर मानव केवल सोता ही रहता है !
कुण्डलिनी जगा पाने की सुविधा बड़े से बड़े देवताओं तक को भी उपलब्ध नहीं है ……………………. क्योंकि यह सुविधा सिर्फ और सिर्फ मानव शरीर में ही उपलब्ध है इसलिए मानव शरीर को सबसे ज्यादा कीमती कहा गया है ……………………….. और इसीलिए भी सृष्टि के प्रारम्भ में इस मानव शरीर का आविष्कार करने के लिए स्वयं ब्रह्मा जी को कई हजार साल तक अनुसन्धान करना पड़ा था !
यह वास्तव में बहुत दुखद है कि इस दुर्लभ मानव शरीर की अधिकाँश नादान लोग असली कीमत नहीं समझ पाते और पूरी जिंदगी सिर्फ साधारण सांसारिक भोगों के पीछे भागते भागते ही इसका अन्त कर डालते हैं !
आज के समाज में कुण्डलिनी शक्ति जागरण का नाम सुनते ही कई लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने लगता है यह सोचकर कि अरे ये सब कठिन साधनाएँ तो हम लोगों के बस की बात है ही नहीं …………… पर ये सोच एकदम गलत है ……………. वास्तव में यह साधना हर आम आदमी और औरत के बिल्कुल बस की बात है ……………… क्योंकि इस कलियुग में जन्म लेने वाले मानवों को जहाँ एकतरफ पूरे जीवन कई तरह की नारकीय समस्याओं का सामना करना पड़ता है ……………….. वहीँ दूसरी तरफ इस कलियुग में भगवान् की ओर से मानवों को कई विशेष सुविधायें भी हासिल है, जिसमें से एक है कि, अलग से बिना किसी विशेष मेहनत को किये हुए कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया की शुरुवात कोई भी आम इन्सान निश्चित ही कर सकता है !
इसमें सबसे मुख्य बात यह है कि यह कर्मक्षेत्र कुछ भी हो सकता है, जैसे – कोई नौकरीपेशा कर्मचारी या व्यापारी बेहद ईमानदारी से अपनी नौकरी या व्यापार कर रहा हो और साथ ही अपने विनम्र स्वभाव से, सिर्फ अपने परिवार की ही नहीं बल्कि हर परिचित अपरिचित व्यक्तियों की यथासंभव उचित सहायता भी कर रहा हो, तो यह निश्चित है कि उचित समय आने पर उस कर्मयोगी की कुण्डलिनी जागेगी …………….. ठीक इसी तरह किसी गृहिणी ने बिना किसी दबाव के, अपनी इच्छा से आजीवन अपनी सभी जिम्मेदारियों को बेहद ईमानदारी से निभाया हो तो निश्चित है कि उचित समय आने पर उसकी कुण्डलिनी जागने की प्रक्रिया शुरू होगी !
कुण्डलिनी जागने में तो इतना कम समय लगता है कि उसकी गणना भी नहीं की जा सकती लेकिन उसके जागने के पहले की प्रक्रिया (जैसे चक्रों का जागना आदि) काफी लम्बी होती है जिसमे कुछ वर्ष से लेकर कई वर्ष तक लग सकते हैं ……….. और ऐसा भी हो सकता है कि यदि व्यक्ति थोड़ी भी शिथिलता बरते तो यह प्रक्रिया पूरी होने में एक जन्म और लग सकता है !
यह प्रक्रिया शुरू होने के कुछ विशेष लक्षण होते हैं जैसे – रीढ़ की हड्डी के आस पास अक्सर कुछ रेंगने जैसा महसूस होना, स्वप्न में अक्सर देवी देवताओं के विभिन्न रूपों के दर्शन होना, सांसारिक सुखों के प्रति एकदम उदासीनता पैदा होते जाना, भविष्य में होने वाली घटनाओं का अक्सर अपने आप पूर्वानुमान हो जाना, स्वभाव धीरे धीरे अति पवित्र और मृदुल होते जाना आदि आदि !
प्राणायाम इतनी ज्यादा शक्तिशाली प्रक्रिया है कि दुनिया का बड़े से बड़ा पापी आदमी भी रोज इसे आधा घंटा से एक घंटा (कपालभाति, अनुलोमविलोम आदि) तक करे तो एक ना एक दिन उसका पापी स्वाभाव निश्चित बदलेगा और साथ ही साथ एक ना एक दिन उसकी भी कुण्डलिनी की प्रक्रिया शुरू होकर ही रहेगी ……………… क्योंकि ईश्वर के नाम स्मरण की ही तरह व् सेवा धर्म की ही तरह, प्राणायाम भी शरीर के पापों का तेजी से नाश करता है !
निष्कर्ष यही है कि, कभी भी, किसी भी समान्य व्यक्ति को यह समझकर हीन भावना में नहीं आना चाहिए कि कुण्डलिनी साधना उसके जैसे आम आदमी के लिए नहीं बल्कि सिर्फ विशेष किस्म के योगियों के लिए ही बनी है !
हर कोई आदमी, चाहे वह विद्यार्थी हो या कर्मचारी, सैनिक हो या राजनेता, गृहिणी हो या साधू, यदि अपने कर्तव्यों को वाकई में एकदम ईमानदारी से निभा रहा है तो वह निश्चित अप्रत्यक्ष रूप से अपनी कुण्डलिनी साधना को ही आगे बढ़ा रहा है ……………….. इसी को बोलते हैं सहज योग, जो कि किसी भी मामले में भक्ति योग, हठ योग या राज योग से कम नहीं है !
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