Last Updated on July 23, 2019 by admin
सत्य कथा पर आधारित मधुर प्रसंग :
पण्डित श्रीरामजी महाराज संस्कृतके महान् विद्वान् थे। संस्कृत आपकी मातृभाषा थी। आपका सारा परिवार संस्कृत में ही बातचीत करता था। आपके यहाँ सैकड़ों पीढ़ियों से इसी प्रकार संस्कृत में ही बातचीत करनेकी परम्परा चली आयी थी। आपके पूर्वजों की यह प्रतिज्ञा थी कि हम न तो संस्कृत को छोड़कर एक शब्द दूसरी भाषाका बोलेंगे और न सनातनधर्म को छोड़कर किसी भी मत-मतान्तरके चक्कर में फँसेंगे। मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगकर पेट भरना पड़े तो भी चिन्ता नहीं, भिखारी बनकर भी देववाणी संस्कृतकी, वेद-शास्त्रों की और सनातनधर्म की रक्षा करेंगे। इस प्रतिज्ञाका पालन करते हुए पं० श्रीरामजी महाराज अपनी धर्मपत्नी तथा बाल-बच्चों को लेकर श्रीगङ्गाजी के किनारे किनारे विचरा करते थे। पाँच-सात मील चलकर सारा परिवार गाँवसे बाहर किसी देवमन्दिरमें या वृक्षके नीचे ठहर जाता। ये गाँवमें जाकर आटा माँग लेते और रूखा-सूखा जैसा होता, अपने हाथों से बनाकर भोजन पा लेते। अगले दिन फिर श्रीगङ्गाजी के किनारे आगे बढ़ जाते। अवकाशके समय बच्चों को संस्कृत के ग्रन्थ पढ़ाते जाते तथा स्तोत्र कण्ठस्थ कराते।
एक बार श्रीराम जी महाराज घूमते-घामते एक राजा की रियासत में पहुँच गये और गाँवसे बाहर एक वृक्षके नीचे ठहर गये। दोपहर को शहरमें गये और मुट्ठी-मुट्ठी आटा कई घरोंसे माँग लाये। उसीसे भोजन बनने लगा। आपकी धर्मपत्नी भी पतिव्रता थीं और बच्चे भी ऋषि-पुत्र थे। अकस्मात् राजपुरोहित उधर आ निकले। उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मणपरिवार वृक्षके नीचे ठहरा हुआ है। माथे पर तिलक,गले में यज्ञोपवीत सिरपर लम्बी चोटी, ऋषि-मण्डली-सी प्रतीत हो रही है। पास आकर देखा तो रोटी बनायी जा रही है। छोटे बच्चे तथा ब्राह्मणी सभी संस्कृत में बोल रहे हैं। हिन्दी का एक अक्षर न तो समझते हैं, न बोलते हैं। राजपुरोहित को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजपुरोहितजी ने पं० श्रीराम जी महाराज से संस्कृत में बातें कीं। उनको यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि आज से नहीं, सैकड़ों वर्षोंसे इनके पूर्वज संस्कृतमें बोलते चले आ रहे हैं और संस्कृत की, धर्मकी तथा वेद-शास्त्रोंकी रक्षा के लिये ही भिखारी बने मारे-मारे डोल रहे हैं। राजपुरोहितने आकर सारा वृत्तान्त राजा साहब को सुनाया तो राजा साहब भी सुनकर चकित हो गये। उन्होंने पुरोहित से कहा कि ऐसे ऋषि-परिवारको महलों में बुलाया जाय और मुझे परिवारसहित उनके दर्शन-पूजन करनेका सौभाग्य प्राप्त कराया जाय।
राजा साहब को साथ लेकर राजपुरोहित उनके पास आये और उन्होंने राजमहल में पधारने के लिये हाथ जोड़कर प्रार्थना की।
पण्डितजीने कहा कि ‘हमें राजाओं के महलों में जाकर क्या करना है। हम तो श्रीगङ्गाजी के किनारे विचरनेवाले भिक्षुक ब्राह्मण हैं।’ राजा साहबके बहुत प्रार्थना करने पर आपने अगले दिन सपरिवार राजमहल में जाना स्वीकार कर लिया। इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने स्वागतकी खूब तैयारी की। अगले दिन जब यह ऋषि परिवार आपके यहाँ पहुँचा, तब वहाँ हजारों स्त्री-पुरुषों का जमघट हो गया। बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ श्रीरामजी महाराज, आपकी धर्मपत्नी और बच्चोंको लाया गया और सुवर्णके सिंहासनोंपर बैठाया गया। राजा साहबने स्वयं अपनी रानीसहित सोने के पात्रों में ब्राह्मणदेवता, ब्राह्मणी तथा बच्चोंके चरण धोकर पूजन किया, आरती उतारी और चाँदीके थालों में सोनेकी अशर्फियाँ और हजारों रुपयोंके बढ़िया-बढ़िया दुशाले लाकर सामने रख दिये। सबने यह देखा कि उस ब्राह्मण-परिवारने उन अशर्फियों और दुशालोंकी ओर ताकातक नहीं। जब स्वयं राजा साहबने भेंट स्वीकार करनेके लिये करबद्ध प्रार्थना की, तब पण्डितजीने धर्मपत्नीकी ओर देखकर पूछा कि ‘क्या आजके लिये आटा है ?’ ब्राह्मणीने कहा-‘नहीं तो।’ आपने राजा साहबसे कहा कि ‘बस आजके लिये आटा चाहिये। ये अशर्फियों के थाल और दुशाले मुझे नहीं चाहिये।’
राजा साहब- ‘महाराज! मैं क्षत्रिय हूँ, दे चुका, स्वीकार कीजिये।
पण्डितजी- मैं ले चुका, आप वापस ले जाइये।
राजा साहब- क्या दिया हुआ दान वापस लेना उचित है?
पण्डितजी- त्यागी हुई वस्तुका क्या फिर ग्रहण करना उचित है?
राजा साहब- महाराज ! मैं अब क्या करूं?
पण्डितजी- मैं भी लाचार हूँ।
राजा साहब- यह आप ले ही लीजिये।
पण्डितजी- राजा साहब ! हम ब्राह्मणोंका धन तो तप है। इसीमें हमारी शोभा है, वह हमारे पास है। आप क्षत्रिय हैं, हमारे तपकी रक्षा कीजिये।
राजा साहब- क्या यह उचित होगा कि एक क्षत्रिय दिया हुआ दान वापस ले ले? क्या इससे सनातनधर्मको क्षति नहीं पहुँचेगी?
पण्डितजी- अच्छा इसे हमने ले लिया, अब इसे हमारी ओरसे अपने राजपुरोहितको दे दीजिये। हमारे और आपके दोनों के धर्मकी रक्षा हो गयी।
सबने देखा कि ब्राह्मण-परिवार एक सेर आटा लेकर और सोनेकी अशर्फियों से भरे चाँदी के थाल, दुशालोंको ठुकराकर जंगल में चला जा रहा है और फिर वेदपाठ करने में संलग्न है!
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