Last Updated on July 22, 2020 by admin
पंचकर्म चिकित्सा क्या है ? : What is Panchakarma Treatment in Hindi
आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में पंचकर्म को एक अलग स्थान प्राप्त है तथा यह एक वैशिष्टपूर्ण चिकित्सा पद्धति है । पंचकर्म रोग निवारक चिकित्सा तो है ही साथ ही यह स्वास्थ्य रक्षण के लिए भी उपयुक्त है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा को दो वर्गो में विभाजित किया गया है – शोधन तथा शमन ।
शरीर मे बढे हुए दोषों को साम्यावस्था प्रदान करना शमन है। शोधन से दोष शरीर से बाहर निकल जाते हैं इसलिए व्याधि के फिर से होने की सम्भावना नष्ट हो जाती है। पंचकर्म चिकित्सा का अन्तर्भाव शोधन चिकित्सा में किया जाता है तथा शोधन चिकित्सोपरान्त की जाने वाली शमन चिकित्सा (औषधोपचार) त्वरित फलदायी ठहरती है।
पंचकर्म चिकित्सा से पूर्व की प्रकियाएँ : Panchkarma se pahle kya kare
पंचकर्म चिकित्सा को आरंभ करने से पूर्व मरीज को इसके लिए तैयार किया जाता है। ऐसा करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इससे पता चलता है कि रोगी पंचकर्म को सहन करने के लायक है या नहीं।
ओलिएशन थेरेपी (स्नेह कर्म) –
मरीज को 7 दिनों तक शुद्ध घी या औषधयुक्त घी दिया जाता है। यह दोषों को शांत करता है और पाचन-क्रिया (digestion process) को संतुलित करता है। यह गैस्ट्रिक ,अल्सर (Ulcer) तथा आँत के अल्सर में प्रभावी होता है।
औषधियुक्त घी का प्रयोग कुछ विशिष्ट बीमारियों में किया जाता है। त्वचा की बीमारी में तिक्त घृत, खून की कमी में दाडिमादि घृत, क्रॉनिक कोलाइटिस में शतावरी घृत का इस्तेमाल किया जाता है।
ओलिएशन थेरैपी के बाद सुडेसन थेरैपी (स्वेद चिकित्सा) से लसीका, रक्त, पेशी ऊतक, वसा ऊतक तथा अस्थि मज्जा में मौजूद दोष तरल होकर गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल (आमाशय) नली में वापस चले जाते हैं। सुडेसन थेरैपी दोषों को तरल करने में मदद करती है । यह भाप द्वारा शरीर में पसीना लाने का काम करती है ।
अभियंगा (तेल मालिश) –
अभयंग में शरीर पर तेल लगाकर हलकी मालिश की जाती है । यह स्वस्थ (healthy) और रोगी, दोनों प्रकार के लोगों के लिए एक दैनिक चिकित्सा है। मालिश के लिए तिल के तेल (sesame oil) का उपयोग किया जाता है। इस तेल मालिश के अनेक लाभ हैं –
इससे त्वचा चिकनी बनती है ,थकान व पीड़ा दूर होती है तथा अच्छी दृष्टि, हृष्ट पुष्ट शरीर, अच्छी नींद और स्वच्छ त्वचा प्रदान करती है, जो दोषों को आहार नली की ओर भेज देता है। यदि दोष कफ है तो वमनकारी औषधि दी जाती है, पित्त की दशा में विरेचन (दस्तावर) दिया जाता है और यदि वात उत्तेजित हो तो वस्ति (एनीमा) दी जाती है। जब पित्त दोष उत्तेजित होता है तो उसकी चिकित्सा विरेचनों द्वारा की जाती है। यह दोषों को गैस्ट्रो-इंस्टेस्टाइनल ट्रैक्ट से बाहर निकाल देता है और पाचकाग्नि को कम करता है ।
पंचकर्म चिकित्सा में शामिल प्रक्रियाएं : Panchakarma chikitsa
इस शोधन चिकित्सा में पांच क्रियाएं की जाती हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं –
- वमन (Vamana)
- विरेचन (Virechana)
- बस्ती (Basti)
- नस्य (Nasya)
- रक्त मोक्षण (Raktamokshan)
रसायन या वाजीकरण जैसे प्रयोग करने से पहले तो पंचकर्म चिकित्सा अत्यावश्यक कही गयी है क्योंकि जिस तरह मलिन वस्त्र पर लगाये गये रंगों का उचित परिणाम नही आता उसी तरह जब तक शरीर शुद्ध न हो तब तक रसायन औषधियां फायदा नहीं करती।
आज की सदी के भयंकर तथा साक्षात मृत्युवत समझे जाने वाले रोग एड्स या केंसर जैसे विकार भी प्राथमिक अवस्था में सुनियोजित पंचकर्म उपचार तथा उचित औषधियों का सेवन करने से,ठीक हो सकते हैं।
स्वस्थ अवस्था में शरीर की शुद्धि करने से शरीर के सभी अवयव अपने अपने कार्य नियमित रूप से करते हैं। शरीर का स्वास्थ्य कायम रहता है जैसे यन्त्रों (कार, गाडी) को नियमित समय पर सर्विसिंग करने से उन यंत्रों की कार्य क्षमता बढ़ने वे ज्यादा समय तक अच्छा कार्य करते हैं वैसे ही पंचकर्म चिकित्सा का प्रयोग केवल व्याधि अवस्था में नहीं परन्तु स्वस्थ व्यक्ति के भी स्वास्थ्य के रक्षणार्थ करना आवश्यक है। इस शोधन चिकित्सा से शरीर के सभी अवयव और कोषाणु उत्तेजित होने से शारीरिक बल तथा व्याधि नाशक शक्ति की वृद्धि होती है।
आइए हम पंचकर्म चिकित्सा के प्रत्येक चरण को विस्तार से समझते हैं –
1. पहला चरण – वमन कर्म :
विशिष्ट प्रक्रिया से ‘उलटी’ करवाना, इसे वमन कहते हैं तथा रोगों को व्याधि की वजह से जो उलटी होती हैं उसे ‘छर्दि’ कहते हैं। कफदोषप्रधान व्याधियों के लिए वमन एक श्रेष्ठ चिकित्सा है। अनेक व्याधियों में यह चिकित्सा दी जाती है। वमन से सिर्फ आमाशय के ही कफदोष तथा मलों का निर्हरण नहीं होता बल्कि शरीर के प्रत्येक पेशी का मल (Endotoxins) या कफ दोष आमाशय में लाकर वमन प्रक्रिया द्वारा बाहर निकाला जाता है ।
इस चिकित्सा से शरीर के सभी स्त्रोतसों (Channels & cells) की शुद्धि होती है तथा उन्हें उत्तेजित कर अग्नि प्रदीप्त की जाती है। इससे सभी अवयवों की प्राकृत कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। इस तरह से प्रतिरोधक शक्ति (Resistancepower) का निर्माण किया जाता है इसलिए यह चिकित्सा स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी उपयोगी है ।
किन्हें वमन कराया जा सकता है –
यह चिकित्सा स्वस्थ व्यक्ति को वसन्त ऋतु में देना चाहिए। व्याधिग्रस्त अवस्था में किसी भी समय में वमन कराया जा सकता है। इन व्याधियों के नाम इस प्रकार है –
1) श्वास 2) कास 3) प्रतिश्याय (4) अपस्मार 5) विसर्प 6) कुष्ठ 7) मेदोरोग 8) विषपीडित 9) अम्लपित्त 10) अन्नवशूल 11) अग्निमांद्य 12) सभी कफज व्याधियां 13) सभी प्रकार की चर्म व्याधियां और 14) युवान पिटिका
किन रोगों में वमन निषेध है –
वृद्धावस्था, बचपन, हृदय रोग, फेफड़ों का क्षय रोग, गरदन के ऊपर रक्तश्राव , मोटापा, कमजोरी तथा गर्भावस्ता में यह वमन उपचार नहीं करना चाहिए।
2. दूसरा चरण – विरेचन कर्म :
शरीरस्थ दोष, मल, अथवा पुरीष, इनका मलविसर्जन प्रक्रिया द्वारा गुदमार्ग से निकालने को विरेचन कहते हैं। विरेचन पित्तदोषप्रधान व्याधियों को दूर करने के लिए श्रेष्ठ चिकित्सा हैं।
विरेचन से सिर्फ आंतों के ही मल का नहीं बल्कि प्रत्येक पेशी के मल का निकास होता है। इस चिकित्सा द्वारा शरीर के सभी स्त्रोतसों की शुद्धि होती है तथा उन्हें उत्तेजित कर अग्नि प्रदीप्त की जाती है। इससे सभी अवयवों की प्राकृत कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। इस तरह से रोग प्रतिरोधक शक्ति (ResistacePower) का निर्माण किया जाता है। यह चिकित्सा पित्तज व्याधियों को दूर रखने के लिए परम उपयोगी है।
रोग तथा आवश्यकता के अनुसार विरेचन चिकित्सा कभी भी कर सकते हैं। स्वास्थ्य रक्षणार्थ स्वस्थ व्यक्ति में विरेचन कर्म शरद ऋतु (अगस्त से अक्टूबर) में करना चाहिए। महीने में एक बार विरेचन कर्म करने से स्वास्थ्य का रक्षण होता है तथा अनेक पित्त तथा वातदोषप्रधान व्याधियों को दूर रखा जा सकता है।
किन्हें विरेचन थेरेपी दी जाए –
विरेचन कर्म नीचे दी हुई व्याधियों में उपयुक्त है।
1) अम्लपित्त 2) मलबद्धता 3) आनाह 4) अर्श 5) भगंदर 6) सभी वात व्याधियां जैसे, सन्धिवात, आमव, पक्षाघात, गृध्रसी 7) यकृत विकार 8) प्लीहा विकार 9) त्वचा विकार जैसे, कण्डू (खुजली), विचर्चिका (सोरायसिस), विसर्प (erysipelas), पामा (एक्जीमा) 10) कुष्ठ 11) जलोदर 12) कृमी 13) गुल्म 14) उन्माद (मेनिया) 15) अपस्मार (मिर्गी) आदि।
किन्हें विरेचन वर्जित है –
बच्चों, वृद्धों, तेज बुखार, गुदा, गर्भाशय या मूत्रमार्ग से रक्तस्राव, फेफड़ों की टी.बी., अल्सरेटिव कोलाइटिस, गुदा का खिसक जाना, डायरिया तथा निम्न पाचक अग्नि से प्रभावित लोगों का विरेचक पद्धति से उपचार नहीं करना चाहिए।
3. तीसरा चरण – बस्ती कर्म :
बस्ती यन्त्र द्वारा तरह तरह के औषधि सिद्ध तैल, घृत, क्वाथ का गुदमार्ग से प्रयोग करना बस्ती कहलाता है। सभी व्याधियों में बस्ती चिकित्सा अत्यन्त उत्तम चिकित्सा है। विशेषतः वातप्रधान व्याधियों के लिए तो यह अनुपम चिकित्सा है।
एनीमा तथा बस्ती चिकित्सा का कार्यक्षेत्र पूर्णतः भिन्न है । बस्ती का कार्य सार्वदैहिक है । बस्ती में सर्वदोष विकृतिजन्य व्याधियों को (वात, पित्त, कफ, रक्त तथा दोषों का संसर्ग या सन्निपात अवस्था) नष्ट करने की क्षमता है। एनीमा से सिर्फ आंतों के मल को ही निकाला जाता है।
बस्ती चिकित्सा से सिर्फ आंतों का ही मल निकास नहीं होता, बल्कि प्रत्येक पेशी (Cell) का मल (Endotoxins भी आंतों में लाकर गुदमार्ग से बाहर निकाला जाता है। इस चिकित्सा से शरीर के सभी स्त्रोत (Cells, Tissues, Organsand Systems) की शुद्धि करके उन्हें उतेजित्त किया जाता है जिससे अग्नि प्रज्वलित होती है । इससे सभी अवयवों की प्राकृत कार्य करने की क्षमता बढ़ती है तथा रोग प्रतिरोधक शक्ति का निर्माण होता है। बस्ती का कार्य “आपाद मस्तक” अर्थात् सिर से पांव तक उत्पन्न होने वाली व्याधियों में दिखायी देता है।
बस्ती चिकित्सा स्वास्थ्य रक्षण के लिए तथा रोगप्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाने के लिए किसी भी समय किसी भी व्यक्ति को दे सकते हैं।
बस्ती के मुख्यतः दो प्रकार होते हैं – शोधन और अनुवासन बस्ती
- शोधन बस्ती – इसमें औषधि द्रव्यों का क्वाथ अधिक मात्रा में रहता है तथा इस बस्ती से शरीर की शुद्धि होती है। इस बस्ती के अनेक प्रकार हैं जैसे – यापन बस्ती, मधुतेलीक बस्ती, लेखन बस्ती।
- अनुवासन बस्ती – यह बस्ती स्नेहद्रव्य युक्त होती है तथा शरीर में रह कर बृहंण (धातुपुष्टि) करती है। इस बस्ती के भी कुछ प्रकार हैं जैसे – मात्रा बस्ती और स्नेह बस्ती।
बस्ती गुदा मार्ग के अलावा मूत्र-मार्ग से भी दे सकते है। इसे “उत्तरबस्ती” कहते हैं। इसके अलावा क्षीरबस्ती, पिच्छा बस्ती व्याधि के अनुसार अनेक प्रकार की बस्तियां दी जाती हैं। बस्ती आठ दिन, पन्द्रह दिन और एक महिने तक व्याधि के अनुसार दी जाती है।
किन्हें बस्ती थेरेपी दी जाए –
बस्ती चिकित्सा सभी तरह की वात व्याधियां, सन्धिवात, पक्षाघात, पोलियो, गृध्रसी, कटिशूल, मधुमेह, ग्रहणी, परिणाम शूल, मेदविकार, Osteoporosis, All types of Anaemias, All types of Gynaecological disorders व्याधियों में दी जाती है।
4. चौथा चरण – नस्य कर्म :
औषधिसिद्ध स्नेह को नाक में विशिष्ट विधि से डालना – इसे नस्य कहते हैं । गर्दन तथा सिर इनके सभी विकारों में नस्य अत्यन्त उपयुक्त है। ‘नासा हि शिरसो दारम्’ ऐसा कहा गया है अर्थात् नाक, सिर का दार है इसलिए नासामार्ग से प्रविष्ट की जाने वाली औषधियां सुक्ष्म स्त्रोतों में प्रवेश कर सभी ज्ञानेंद्रियों से (चक्षु, रसना, श्रोत्र, घ्राण, स्पर्श) मस्तिष्क तथा Nervous System में से मल को निकाल कर उन्हें उत्तेजित करती हैं और सिर्फ सिर की ही नही अपितु सार्वदैहिक व्याधियां भी नष्ट करती हैं।
किन्हें नस्य थेरेपी दी जाए –
सभी मानस रोगों में नस्य चिकित्सा अत्यन्त उपयुक्त है इसी तरह शिरशूल (सरदर्द), अर्दित (चेहरे का लकवा), पक्षाघात (लकवा), पीनस (साइनस), अर्धावभेदक (माईग्रेन), उन्माद, अपस्मार, सभी मेद विकार, कास(खाँसी), श्वास, राजयक्ष्मा (टीबी), मुखरोग, मूर्छा व्याधियों में नस्य कर्म अत्यन्त उपयोगी है।
5. पाँचवा चरण – रक्त मोक्षण :
चिकित्सा के रूप में शरीर से अशुद्ध रक्त बाहर निकाल देने को रक्तमोक्षण कहते हैं। थोड़ी मात्रा में रक्त निकाल देने से रक्त वह स्त्रोतों में नई रक्तधातु निर्मिति को चालना मिलती है। दूषित रक्त के साथ पित्तदोष का शोधन हो जाने से पित्तज तथा रक्त प्रदोषज व्याधियों का शमन होता है। इसके बाद जो नई रक्त धातु होती है इससे शरीर का पोषण, बलवर्धन कार्य अधिक गति से होने लगते हैं। पाचन शक्ति तथा वर्ण में सुधार होता है। योग्य समय पर रक्तमोक्षण करवाने वाले को त्वचा रोग, ग्रन्थि, रक्तज व्याधि कभी भी नही होती।
काय चिकित्सा में बस्ती उपक्रम को चिकित्सा का अर्धभाग कहा गया है उसी तरह रक्त मोक्षण को शल्यतंत्र में चिकित्सार्ध करते हैं।
साध्यस्थिति में सिरोव्याधि तथा जलौकावचरण – इन दो प्रकारों से रक्तमोक्षण करते हैं ।
किन्हें रक्त मोक्षण थेरेपी दी जाए –
निम्नलिखित व्याधियों की चिकित्सा में रक्त मोक्षण पद्धति का प्रयोग किया जाता है –
1) All types of Skin disease 2) कुष्ठ 3) विसर्प (Erysipelas) 4) कण्डू (खुजली) 5) वैवर्ण्य (वर्णांधता) 6) श्वित्रकुष्ठ 7) विद्रधी (फोड़ा) 8) मषक 9) गुल्म 10) प्लीहाविकृति 11) अर्श (बवासीर)12) शिरशूल (सरदर्द) 13) अर्बुद (गांठ) 14) वातरक्त ।
पंचकर्म चिकित्सा के फायदे : Panchkarma Chikitsa ke Fayde in Hindi
पंचकर्म चिकित्सा के लाभ निम्नलिखित है –
- पंचकर्म चिकित्सा आपके शरीर और रक्त से विषाक्त (जहरीले) पदार्थ को बाहर निकलता है।
- पंचकर्म चिकित्सा शरीर को निरोगी बना आपके स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है।
- पंचकर्म चिकित्सा आपके इम्युनिटी पॉवर (प्रतिरक्षा) को मजबूत बनाता है।
- पंचकर्म चिकित्सा आपकी बढ़ती उम्र के लक्षणों को जल्दी आने से रोकता है।
- पंचकर्म चिकित्सा आपके शरीर को विश्रांति पहुंचाता है।
- पंचकर्म चिकित्सा आपके पूरे शरीर को शुद्ध करता है।
- पंचकर्म चिकित्सा आपके पाचन तंत्र को मजबूत व सबल बनाता है।
पंचकर्म के नुकसान और सावधानियां : Panchkarma Chikitsa ke Nuksan aur Sawdhaniya
पंचकर्म चिकित्सा के दौरान कुछ सावधानियां जरूर रखनी चाहिए जैसे –
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान नहाने और अन्य काम के लिए केवल गर्म पानी का ही इस्तेमाल करें व गर्म पानी पीएं ।
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान सुपाच्य आहार का सेवन करें ,देरी से पचने वाले खाद्य पदार्थों को न खाएं।
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान मानसिक तनाव से बचें ।
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान सहवास (मैथुन) न करें।
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान दिन में शयन (नींद) न करें।
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान अचानक तापमान परिवर्तन से बचना चाहिए।
- पंचकर्म चिकित्सा के दौरान रात्रि में देर तक जागना उचीत नही।
निम्न व्यक्ति पंचकर्म चिकित्सा को उपयोग में न लाएं –
- पीरियड्स या माहवारी (Menstural Cycle or MC) के दौरान
- जो महिलाएं शिशु को दूध पिलाती हैं
- बहुत अधिक कमजोर व्यक्ति
- गर्भवती महिलाएं (Pregnant Ladies)
- किसी संक्रमित बीमारी से ग्रसित व्यक्ति
- फेफड़ों के कैंसर (Lung Cancer) के रोगी
- एड्स (HIV) से ग्रसित स्त्री या पुरूष
- अत्यधिक मोटापे से ग्रसित पुरूष या स्त्री
- हाई बीपी (High BP) के मरीज
- दिल के मरीज (Heart patients)
i want to take panchkarma ,from ehere i can take it
I am suffering from ankylosing spondylitis and cervical problem at 20 years