Last Updated on July 22, 2019 by admin
रेकी रोगों से मुक्ति की नवीन पद्धति :
रेकी का प्रचार आज अपने चरम पर है, अतः इनके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। परन्तु सबसे पहले हमें इसकी सफलता के कारणों को जानना होगा। रेकी से पूर्व लोगों के लिये सबसे सरल और सस्ती चिकित्सा पद्धति प्राकृतिक चिकित्सा थी, जिसका स्थान आज रेकी ने ले लिया है। दोनों चिकित्साओं का उद्देश्य मानव जाति को कम मूल्य में अच्छा उपचार देना है। वास्तव में रोग हमारे शरीर में है न कि जीवाणुओं के आक्रमण में। डॉ. हैरी के इन शब्दों से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि ऐलोपैथी का यह क्रम और चिकित्सा पद्धति को पश्चिमी देशों में पसंद नहीं किया गया। वे लोग लम्बे समय से सोच रहे | थे कि किस प्रकार ऐलोपेथी की दवाओं से मक्ति मिल जाए।
ड़ॉ. हैरी और डॉक्टर द्राल जैसे डॉक्टरों ने जब ऐलोपैथी चिकित्सा का विरोध किया तो विज्ञान के क्षेत्र में काफी हलचल उतपन्न हो गयी, परन्तु उस समय उनके सामने मुंह फाड़े खडी सबसे बड़ी समस्या थी कि वे लोग दुखी होकर जाएं तो आखिर कहां? जिन लोगों को अधिक समय तक मलेरिया बुखार का सामना करना पड़ता है, जिनका जिगर तथा अन्य पाचन शक्तियां गंदगी से भर जाती है और स्नायुतंत्र ढीले पड़ जाते है, उन्हें तीसरे दिन का बुखार पकड़ लेता है। इस प्रकार के रोग मानव शरीर को घेरे रहते है, और रोगी तरह तरह की औषधि खाकर इन्हें दबाये रखते हैं। वास्तव में इन सब रोगों ने ही डॉ. यूसूई के मन पर गहरा प्रभाव डाला, मानव की इस पीड़ा को देखकर युसुई इतने व्यथित हो गए कि हर हमय सोचते रहते कि लोग इतने दुखी क्यों रहते हैं? ईश्वर ने जिस संसार को बड़े, प्यार से सजाया है, उसमें रहने | वाले लोगों को वह इतना दुखी क्यों रखता है। इस प्रकार सोच विचार करते करते डॉ. युसुई भ्रमण पर निकल गये। इस यात्रा के मध्य उनकी भेंट एक बौद्ध भिक्षुक से हो गयी। वास्तव में वह एक बौद्ध मठ के मठाधीश थे। उन्होंने जब युसुई के विचार जाने तो उन्हें यह जानकर कि वह मानव में होने वाले रोगों से चिन्तित हैं तो अपने पुस्तकालय में ले जाकर बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन करने का परामर्श दिया। युसुई काफी समय तक उस मठ में रहकर महात्मा बुद्ध की रचनाओं का अध्ययन करते रहे, परन्तु वह जो चाहते थे, अर्थात जिस उपचार की उन्हें खोज थी, वह उन्हें नहीं मिल पा रहा था। युसुई की हार्दिक इच्छा यही थी कि उन्हें भी कोई ज्ञान प्राप्त हो। आध्यात्मिक ज्ञान, जिसकी शक्ति से वह रोगों से तड़पती जनता को राहत दे सकें।
यही सोचकर उन्होंने महात्मा बुद्ध की शरण में जाने का निश्चय किया। युसुई के मन में जो लगन उत्पन्न हो चुकी थी उसे भला कौन रोक सकता था। अपने जीवन की कोई चिंता न करते हुए उन्होंने | यह निश्चय कर लिया था कि वह आत्मिक शक्ति के बल पर पूरी मानवता को रोग मुक्त करके रहेंगे। एलेकिन उनके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तो यह थी कि वह सारा साहित्य, संस्कृत तथा चीनी भाषा में ही था। बौद्ध शिक्षा प्राप्त करने के लिये उन्होंने संस्कृत और चीनी भाषा सीखकर अपने लिये ज्ञान प्राप्ति का मार्ग साफ कर लिया था। सत्य बात तो यह थी कि संस्कृत और चीनी भाषा सीख लेने के उपरान्त जैसे उनके दिव्य ज्ञान के द्वार खुल गए। भारतीय ऋषियों का ऐसा साहित्य उन्हें पढ़ने को मिला, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उनकी यही हार्दिक इच्छा थी कि मानव अपने ह्रदय में छुपी हुई आत्मिक शक्ति को पहचान सके, जिस शक्ति के बल पर मानव हर प्रकार के रोगों से मुक्त हो सकता है। उस शक्ति का नाम है.. “ध्यान’।
इस बात का ज्ञान तो डॉ. युसुई को मिल चुका था कि रोगों का उपचार करने की क्षमता को या तो कुछ आध्यात्मिक समूहों द्वारा गोपनीय बौद्ध तकनीक के रूप में रखा गया था या फिर प्रयोग के अभाव में यह विधि लगभग लुप्त हो चुकी थी। डॉ. युसुई उसी उपचार पद्धति की खोज में घूम रहे थे, इस कार्य के लिये उन्होंने समस्त बौद्ध मठों का भ्रमण कर डाला, परन्तु उन्हें फिर भी ऐसा कोई भिक्षु नहीं मिला जो मानव रोगों के उपचार में उनकी सहायता कर सकता। इस प्रकार से डॉ. युसुई भ्रमण करते चले गए। जिस मठ से, बौद्ध धर्माचार्य से ज्ञान की बात मिलती उसे वह अपनी डायरी में लिख लेते। उनका लक्ष्य था मानव रोगों का उपचार किसी ऐसे ढंग से हो जिसका लाभ निर्धन रोगी को भी मिल सके। उनकी इच्छा यही थी कि लोगों को महंगी चिकित्सा से मुक्ति दिलायी जा सके। क़हा गया है कि दर्द का हद से बढ़ जाना रोगों का अंत माना जाता है। यही स्थिति हो रही थी उस समय युसुई की, जो देखने में किसी महात्मा से कम नहीं लगते थे। उन्होंने मन में सोचा कि अगर प्राचीन काल में हमारे महात्माओं के पास सब रोगों का उपचार था, मानव जाति के सब कष्टों को दूर करने में वे सक्ष्म थे तो आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
अब तक डॉ. युसुई जान चुके थे कि मन के जीत है और मन के हारे हार, हम आध्यात्मिक शक्ति से ही इस मन को जीत सकते हैं। डॉ. युसुई के ह्रदय में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी थी, जो कुछ वे चाहते थे उसे पाने की आशा उनके हृदय में उत्पन्न हो चुकी थी। अब उन्हें यह भी विश्वास हो चला था कि वह सस्ता उपचार कर सेकेंगे। ऐसा उपचार जो बिना धन के हो सकता है, परन्तु इस कार्य के लिये आत्म शुद्धि की आवश्यकता थी, जैसा कि महात्मा बुद्ध ने सब कुछ त्याग कर किया था। इस विषय में डॉ. युसुई ने अपने जीवन का जो सबसे महत्वपूर्ण निर्णय लिया वह था सत्य की खोज का। इस कार्य के लिये युसुई की कीरोयामा पर्वत पर चले गए क्योंकि उन्होंने बौद्ध दर्शन में पढ़ा था कि महात्मा बुद्ध को भी ज्ञान प्राप्त करने के लिये “गया’ के जंगलों में समाधि लेनी पड़ी थी।
डॉ. युसुई संत या महात्मा तो नहीं बने पर उनसे कम भी नहीं थे। अब तक वह ध्यान, साधना, पास, आध्यात्मिक ज्ञान जैसे दिव्य गुणों को प्राप्त हो गयी थी। उसी के साथ, उन्होंने अपने हाथ में पकड़ा इक्कीसवां पत्थर फेंक दिया। वह दिव्य ज्योति धीरे-धीरे युसुई की और बढ़ रही थी, जैसे उन पर प्रहार करना चाहती हो। उनके स्थान पर कोई भी दूसरा होता तो उस ज्योति के इस आक्रमण के भयभीत होकर भाग खड़ा होता। लेकिन युसुई ने तो उस ज्योति का स्वागत किया, क्योंकि वह जानते थे कि यही वह
पवित्र ज्योति है जिसके दर्शन महात्मा बुद्ध ने किए थे। वह दिव्य, पवित्र ज्योति रेकी थी। रेकी द्वारा उपचार का नाम सुनते ही कुछ लोग भ्रम में पड़ जाते हैं, कि यह कौन सी नई चिकित्सी प्रणाली | उत्पन्न हो गई है, क्योंकि लोग अभी तक ऐलोपैथी के जाल से बाहर नहीं निकल पाए हैं, जबकि हमारे सामने आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली भी है, जो ऐलोपैथी से कहीं अधिक प्राचीन है। यूनानी चिकित्सा प्रणाली भी प्राचीन काल से चली आ रही है। चुम्बक चिकित्सा भी ब्राचीन पद्धति है।
‘रेकी’ द्वारा चिकित्सा का नाम भी किसी ने नहीं सुना था। ऐसी किसी चिकित्सा की लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे, जिसे दवा की ही आवश्यकता नहीं थी। ऐसी चिकित्सा तो केवल हमारे आध्यात्मिक गुरूओं के पास थी। युसुई में भी भारतीय साहित्य का अध्ययन करते समय यह जाना था कि महात्मा बुद्ध केवल अपने हाथों के स्पर्श से ही रोगियों को स्वस्थ करते थे। उनके पास कोई औषधि नहीं, आध्यात्मिक शक्ति थी। ऐसी ही शक्ति को पाने के लिये उन्होंने कीरी यामा पर्वत पर तपस्या की थी। रेकी’ द्वारा उपचार इस बात का सब से बड़ा प्रमाण है, यह बिना पवित्र आध्यात्मिक शक्ति के पूरा हो ही नहीं सकता। डॉ. युसुई ने जो कठोर तपस्या कीरीयामा पर्वत पर जाकर की, वह उसी का फल था कि उन्हें दिव्य ज्योति मिली जो महात्मा बुद्ध को मिली थी।
रेकी का आविष्कार :
रेकी का आविष्कार डॉ. युसुई ने किया था, बौद्ध शिक्षा और प्राचीन ग्रन्थों को आधार मानकर चलने वाले युसुई ने पूरे विश्व को एक सबसे सस्ती चिकित्सा प्रणाली दी। इसे में रेकी का पुनर्जन्म भी मानता हूं क्योंकि तिब्बत के कुछ बौद्ध ग्रन्थों से यह बात स्पष्ट होती है कि यह एक तिब्बती उपचार है, जो बौद्ध औषधि कहलाती है। इसमें रेकी की ही भांति हाथ का स्पर्श किया जाता है। यह कार्य आध्यात्मिक गुरू करता है। यह उपचार पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है। ऐसे ही रेकी परिवार के लोग अपने स्थान पर अपनी ही किसी संतान को बिठाते है, जिनके भीतर आध्यात्मिक शक्ति होती है। यही लोग तिब्बत के डॉक्टर माने जाते हैं, जो सभी रोगों का उपचार करते हैं।
रेकी जापानी भाषा है, इसका प्रयोग जापान में अधिकतर आध्यात्मिक उपचार के लिये किया जाता है। जापान में इसे केवल डॉ. युसुई के साथ ही नहीं जोड़ा गया, बल्कि डॉ. युसुई के उपचार को तो प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली के साथ ही जोड़कर इसका नाम “युसुई शिकीरयोही’ रखा गया है, जिसका अर्थ प्राकृतिक चिकित्सा ही निकलता है। आप यह तथ्य ना भूले प्राकृतिक चिकित्सा और हिप्नोटिज्म चिकित्सा रेकी शिक्षा से अधिक दूर नहीं किया जा सकता है। रेकी में दवाओं का कोई स्थान नहीं, हमारे पास तो प्राकृतिक शक्ति है। हमारे युसुई ने महात्मा बुद्ध से यह शक्ति प्राप्त की थी। हर मनुष्य के भीतर एक प्राकृतिक ऊर्जा होती है जिसे आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं। बस, उसी शक्ति के प्रयोग से हम मानव शरीर के प्रत्येक रोग को दूर करते हैं। मानव हाथों में प्राकृतिक शक्ति है। यही हाथ आत्मा के प्रकाश से उस मानव के भीतर आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न कर देते है, जिसका मन शद्ध हो, जो सच्चे मन से ईश्वर को स्मरण करता है और यह प्रतिज्ञा करता है कि हे प्रभू में जो कुछ भी कर रहा हूं वह सब केवल मानवता की भलाई के लिए कर रहा हूं। यही सिद्धांत है हमारी ‘‘रेकी” द्वारा चिकित्सा का, इसी को हम आध्यात्मिक शक्ति मानते हैं।
रैकी जब इतनी लोकप्रिय हो गई तो कुछ लोगों ने बड़ी गंभीरता | से यह सोचना प्रारम्भ कर दिया कि इस विषय पर अगर कोई | पुस्तक होती तो वे इस विद्या को घर बैठे प्राप्त कर लेते, परन्तु खेद की बात यह है कि डॉ. युसुई से लेकर तकाता तक किसी ने भी इस विषय पर कोई पुस्तक लिखी, न ही कोई नियम बनाए। बस सबकी जुबान से यही सुना जाता रहा कि यह युसुई की देन है, यही शुद्ध रेकी है। रेकी सीखने वाले सब शिक्षार्थियों को यह बात स्मरण रखनी होगी कि उन लोगों में आध्यात्मिक शक्ति का होना बहुत आवश्यक है। मगर केवल आध्यात्मिक शक्ति का नाम लेने से ही आदमी आध्यात्मिक नहीं बन जाता। इसके लिए मन तथा विचारों का शुद्ध होना भी अनिवार्य है। युसुई ने जो कुछ भी पाया और जो कुछ भी सोचा, उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं था। उनके ह्रदय में जो एकमात्र भावना यही थी कि पूरी मानव जाति को पूरी तरह स्वस्थ रखा जाए।
रेकी कैसे करें ?
रेकी देने वाले को सर्वप्रथम अपने ह्रदय और वातावरण को पवित्र करें। इसके पश्चात हाथ के माध्यम से रेकी की शक्ति को प्रवाहित करें। यह क्रिया बार बार करें। यह भावना भी करें कि रोगी स्वस्थ हो रहा है। रेकी में जब हाथ का प्रयोग करते हैं तो हमारे शरीर की रेकी ऊर्जा उस समय हाथ में उतर आती है। रेकी कल्पना शक्ति से उत्पन्न होती है. अब इसका प्रवेश रोगी के शरीर में कैसे हो? इस कार्य के लिये हाथ ही रेकी का एक मात्र सबसे बड़ा साधन है, इस कार्य के लिये अपने हाथ की उंगलियों को आपस में जोड़े रखें और अपनी उस चेतना तथा आध्यात्मिक शक्ति को इसमें घोलते रहे तो यह अपना कार्य और भी सफलता से कर लेगी। रेकी प्रवाह के समय आपका मस्तिष्क रेकी के लिये ही जागरूक होना आरंभ हो जाएगा।
अब यह प्रश्न भी पूछा जा सकता है कि रेकी उपचार में कितनी बार हम यह ऊर्जा दे सकते हैं? इसका उत्तर तो यही है कि रेकी जो एक आध्यात्मिक शक्ति द्वारा प्रभू की ओर से ही जन्म लेती है. ऐसी शक्ति कभी भी मानव जाति को हानि नहीं पहुंचा सकती। परंतु फिर भी इसे आप न तो कम दें और न ही अधिक। कुछ साधारण रोगों में रेकी उपचार कुछ मिनट तक ही दो-तीन मध्य में रुक रुक कर दिया जाता है।