समीर पन्नग रस : Sameer Pannag Ras in Hindi
समीर पन्नग रस एक आयुर्वेदिक दवा है। इस दवा को जड़ी बूटियों और भस्मों के मिश्रण से तैयार किया जाता है। यह दवा गोली या पाउडर के रूप में हो सकती है। इसका उपयोग श्वसन और जोड़ों की समस्याओं से संबंधित समस्याओं के इलाज के लिए किया जाता है। यह सभी प्रकार के दोषों को नियंत्रित करने के लिए जाना जाता है।
समीरपन्नग कटु रसात्मक, कटुविपाकी, उष्ण, तीक्ष्णवीर्य, उत्तेजक, बल्य कफघ्न, कफवातघ्न और त्वचा के रोगों का नाशक है। इसका कार्य कफ और कफवात दोष, रस, रक्त और मांस ये दूष्य एवं उर, आमाशय, यकृत्, प्लीहा, वातवाहिनियां, वातवाहिनियों के केन्द्र स्थान, मस्तिष्क और त्वचा, इन स्थानों पर होता है।
समीर पन्नग रस के घटक द्रव्य व निर्माण विधि :
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध सोमल, शुद्ध मैनसिल और शुद्ध हरताल प्रत्येक १०-१० तोले लेकर कज्जली करें। फिर तुलसी के रस या घीकुंवार के रस की तीन दिन तक भावना देकर सुखा आतशी शीशी में भरकर ५० से ६० घण्टे तक अग्नि देने से काला तेजस्वी और कठोर समीरपन्नग रस शीशी के गले में तैयार होता है। लगभग १६ घण्टे तक मन्दाग्नि देने से गन्धक जारण होता है। फिर डाट लगाकर ३६ घण्टे तेज अग्नि देनी पड़ती है। मूल ग्रन्थकार ने ८ प्रहर तक क्रमाग्नि देकर तलस्थ रसायन बनाने को लिखा है। (औ.गु.ध.शा.)
वक्तव्य-
कितने ही चिकित्सक २ ½ तोले स्वर्ण वर्क मिला ४८ घण्टे की मन्दाग्नि देकर तलस्थ रसायन बनाते हैं। उसे ‘स्वर्ण समीरपन्नग’ कहते हैं उसमें सुवर्ण मिल जाने और मन्दाग्नि पर पाक होने से रसायन की उग्रता विशेष नहीं होती। उपयोग करने पर वह विशेष गुणदायक विदित हुआ है। यदि पारद पक्षच्छेदित और बुभुक्षित किया हुआ इस प्रयोग में मिलावें तो तत्क्षण गुणदायक बनता है।
मनः शिला तलस्थ समीरपन्नग में मिलाना चाहिए। कण्ठस्थ बनाना हो तो न मिलावे अन्यथा कुछ औषधि कण्ठस्थ और कुछ तलस्थ रह जाती है।
उपलब्धता :
यह योग इसी नाम से बना बनाया आयुर्वेदिक औषधि विक्रेता के यहां मिलता है।
सेवन विधि और मात्रा :
१/२ से २ रत्ती तक। दिन में २ से ३ समय, नागरबेल के पान में या अदरक के रस और शहद के साथ।
श्वासावरोध या श्वास में कफस्राव कराने के लिये वासा के पत्ते, मुलहठी, बहेडा, भारङ्गी और मिश्री के क्वाथ के साथ देवें।
समीर पन्नग रस के लाभ और उपयोग :
• यह रसायन त्रिदोष और निमोनिया में घबराहट, सन्धिवात, उन्माद, कास, श्वास, ज्वर, जुकाम आदि रोगों को शान्त करता है। इसमें सोमल, हरताल और मैनसिल मिलाया है। ये तीनों अत्यन्त उग्र और उष्णवीर्य हैं। तीनों में भी सोमल की ही प्रधानता है; फिर भी सल्लभस्म, मल्लपुष्प और मल्लसिन्दूर की अपेक्षा यह रसायन कम तीव्र है। जहाँ मल्लभस्म देने से हानि होने का भय रहता है वहां पर समीरपन्नग देने में अधिक भय नहीं है।
इस रसायन में सोमल मिला हुआ है, तथापि इस रसायन की बड़ी मात्रा देने पर (सोमल का परिमाण अधिक हो जाने पर भी) विष विकार के लक्षण प्रतीत नहीं होते। उग्रता की यह न्यूनता रासायनिक सम्मिश्रण से होती है। समीरपन्नग, मल्लसिन्दूर और पंचसूत तीनों सोमल प्रधान औषध हैं। अतः तीनों वीर्यवान हैं, तीनों के गुण धर्म में साधर्म्य हैं और वैशिष्ट्य भी। मल्लसिन्दूर अत्यन्त तीक्ष्ण, विस्फोटकारी और श्लैष्मिक कला पर उग्रता उत्पादक है। पंचसूत में मल्लसिन्दूर की अपेक्षा तीक्ष्णता न्यून है और श्लैष्मिक कला को कम हानि पहुँचाता है तथा संचित कफ का शोषण करके रूपान्तर कराता है। समीरपन्नग मल्लकल्प होने पर भी दोनों की अपेक्षा कम तीव्र गुणयुक्त, कम स्फोटोत्पादक और कम दाहक है।
• समीरपन्नग, श्वासवाहिनियों और फुफ्फुस कोषों के भीतर श्लेष्मिककला पर शोथ न लाकर कफ का स्राव कराता है और दोष निकल जाने पर उस स्थान के घटकों को सशक्त बनाने में सहायक होता है।
• समीरपन्नग के प्रयोग से श्वासनलिका के अन्तर में उत्पन्न दुष्ट व्रण कफात्मक या वातात्मक होने पर, कफस्राव कराकर उसे नष्टकर देता है। इस हेतु से जीर्णकास या कफाधिक विकार में वात और कफ की प्रधानता होने पर समीरपन्नग का अच्छा उपयोग होता है।
मल्लसिन्दूर से कफ का शोषण होता है; कण्ठ और श्वासवाहिनियाँ शुष्क हो जाते हैं। पंचसूत से संचित कफ में से दुर्गन्ध कम होती है। जलद्रव्य का रूपान्तर होकर कफ कम हो जाता है। समीरपन्नग से श्वासवाहिनियाँ और फुफ्फुस कोष उत्तेजित होते हैं; कफ छूटकर कफस्थान की शुद्धि होती है। इस हेतु से जिस स्थान पर कफस्राव कराना इष्ट हो; उस स्थान पर और कफवातज कास-श्वास में समीरपन्नग का अच्छा उपयोग होता है।
शिव यदि उरस्तोय और कुक्षिशूल हों तो वहाँ पर समीरपन्नग की अपेक्षा पञ्चसूत अधिक हितकारक है। कारण; उरस्तोय में संचित द्रव्य का रूपान्तर और संशोषण कराने के महत्व का गुण जैसा पंचसूत में है वैसा समीरन्नग में नहीं है।
• वातकफभूयिष्ठ श्वास रोग में समीरपन्नग का अच्छा उपयोग होता है। पंचसूत का अधिक उपयोग नहीं होता है। ऐसे श्वास में समीरपन्नग देने पर तत्काल कफस्राव होने लगता है। इसके लिये समीरपन्नग १/२ से १ रत्ती और सोहागे का फूला ३ रत्ती मिलाकर शहद के साथ देवें । ऊपर मुलहठी, बहेड़ा, मिश्री और अडूसे के पत्ते का क्वाथ पिलावें। आवश्यकता पर क्वाथ आधा-आधा घण्टे पर २-३ बार देवें। यह क्वाथ श्वास वेग शामक और कफस्राव कराने वाला है। यह क्वाथ रसायन के साथ सम्मिलित होने से कफ जल्दी-जल्दी निकलने लगता है और | श्वास का वेगशमन हो जाता है। तीक्ष्ण वेगशमन होने पर फिर उसे नागरबेल के पान में देने से आंतरिक शक्ति प्रबल बनती है।
• समीरपन्नग उत्तेजक और बलवर्द्धक होने से पाण्डु और विषमज्वर के पश्चात् आयी हुई निर्बलता में अति कम मात्रा (१८ रत्ती) में दिन में दो बार लोहभस्म के साथ मिलाकर देने से अच्छा लाभ पहुँचाता है।
• जीर्णकास में अनेक प्रकार हैं। कितने ही व्यक्तियों को यह विकार वर्षाऋतु में उत्पन्न होता है। कितनों ही को शीतकाल में और किसीकिसी को उष्णऋतु में हो जाता है। जैसे कारण हों, उनके अनुरूप दोष प्रकुपित होते हैं। कभी व्याधि कुछ काल तक शमन हो जाने का भास होता है। दोष धातुओं में लीन हो जाता है, जिससे पुनः पुनः विवक्षित दोष-प्रकोप काल में उनके लक्षणों से युक्त होकर आक्रमण करता है। उदाहरणार्थ-शीतलवायु में रहना, लूणेवाले मकान अर्थात् जिनकी दीवारों से लवण निकलता रहता हो, ऐसे स्थान में या सीलयुक्त मकान में रहना आदि कारणों से कफभूयिष्ठ कास हो जाती है। इस प्रकार की कास तत्काल कम हुई तो अच्छा; अन्यथा दोष लीन हो जाता है। फिर सामान्य प्रतिकूलता होने पर (रोग की अनुकूलता मिलने पर) रोग बार-बार आक्रमण करता रहता है। इस हेतु से मकान सदोष हो तो मकान का त्यागकर देना चाहिये अन्यथा वर्षा की शीतल वायु लगने पर एवं शीतकाल में वर्षा होने पर बार-बार व्याधि त्रास देती रहती है; शनैः शनैः रोग जीर्ण होता जाता है और जीवनीय शक्ति को निर्बल बनाता है। फिर चाहे स्थान परिवर्तन करें चाहे जितना पथ्यपालन करें तो भी रोग से मुक्ति नहीं मिलती क्योंकि दोष का अत्यन्त सूक्ष्म अंश बीजरूप में देह में दृढ़ हो जाता है। यथार्थ में जिस समय पहली बार दोष दुष्ट होकर कासोत्पत्ति हुई है; उसी समय इन सबका विशिष्ट सम्मिलन हुआ है। फिर इस सम्मिलन के अनुरोध से दोष-दूष्य संयोग का परिणाम शारीरिक घटक पर होता है; इसी हेतु से बार-बार समान लक्षण उपस्थित होते रहते हैं।
विपरीत कारणों से उत्पन्न हुई शारीरिक परिस्थिति में दोष-दूष्य संयोग दबा हुआ रहता है। परन्तु उसके बीजों को थोड़ी-सी अनुकूलता मिलने पर अपना प्रभाव दर्शा देते हैं।
जिस तरह घास के बीज ग्रीष्मऋतु के ताप से अग्नि से जल जाने पर भी वर्षा ऋतु में पुनः सजीव हो जाते हैं। उसी तरह इस रोग के बीज भी पुनः रोग स्वरूप को धारण करते रहते हैं। इस दृष्टि में यह रोग प्राकृतिक बन जाता है। प्राकृतिक रोग अनेक हैं। इनमें जीर्ण कास अति त्रासदायक है। कफस्थान का स्वभाव कफस्राव कराने का हो जाने पर बार-बार श्लैष्मिक कला में से कफस्राव होता रहता है। जीर्ण कासविकार में श्वासनलिका, श्वास प्रणालिका, श्वासवाहिनी जाल और फुफ्फुस कोषगत श्लैष्मिक त्वचा, ये सब दुष्ट हो जाते हैं। कला में कुछ उग्रता आती है या सूक्ष्म-सूक्ष्म व्रण होते हैं। अतः कफ संचय होने पर उपचार करने से कफस्राव हो जाता है और किञ्चित् काल
स्वस्थता का भ्रम होता है। किन्तु रोगबीज जैसा का वैसा ही सुप्तावस्था में रह जाता है। ऐसी स्थिति में बीज को ही नष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिये।
• प्राकृतिक रोग के अन्य भी अनेक प्रकार हैं। इन में से एक चर्मरोग भी है। कितने ही कण्डू, पामा, ब्यूची, दाद, चर्मदल, विस्फोटक, पिटिका आदि पीड़ित रोगियों को बाल्यावस्था में उत्पन्न चर्मरोग समग्र जीवन पर्यन्त त्रास देता रहता है। कभी-कभी एक रूप में एक स्थान में होता है तो दूसरी बार दूसरे रूप में अन्य स्थान पर हो जाता है। इनकी खुजाने की रीति, चलने की शैली, मन्दता, अस्थिरता, मानसिक चंचलता और बर्ताव में कुछ उतावलापन भासता है। ऐसे जीर्ण रोग में एक प्रकार की विशिष्टता प्रतीत होती है। वह यह है कि कास और चर्मरोग क्रमशः आक्रमण करते रहते हैं। जब तक त्वचा सबल है; तब तक कास कम रहती है या बिल्कुल नहीं रहती। फिर चर्मरोग दब जाने पर आंतरिक दोष से कफभूयिष्ठ विकार बलवान् बन जाता है। त्वचा पर स्फोट रूप से उत्पन्न होने वाले लक्षण और भावी कफ के लक्षण, दोनों एक ही प्रकार के दोष-दूष्य विकृति से उत्पादित होते हैं। इस तरह कफ और कफवात प्रकोप से उत्पन्न इन विकारों में समीरपन्नग अच्छा उपयोगी है। समीरपन्नग दिन में एक बार ही देना चाहिये; और अन्य कोई भी औषध नहीं देना चाहिए। अन्य औषध मिला देने से समीरपन्नग के कार्य में प्रतिबन्ध होता है।
• यह रसायन उपदंश या पूयमेह के उपद्रवरूप सन्धिवात, रक्तविकार, त्वचारोग, जीर्ण पक्षाघात और अन्य उपद्रवों का नाश करता है। अर्दित, जिह्वास्तम्भ, धनुर्वात या अन्य वातरोगों में जब कफ दोष सम्मिलित हुआ हो तब इस समीरपन्नग के सेवन से अच्छा लाभ पहुँचता है। वात आक्षेप के लिये भी समीरपन्नग अति हितकर है।
• इस तरह स्तम्भ, संकोच, शूल आदि विकारों में भी यह अच्छा उपयोगी है। बृंहण अनुपान के साथ देना चाहिये। कफप्रधान उन्माद में भी वात कफ वृद्धि का शमन करके रोग को दबा देता है। रसाजीर्ण में प्रायः पित्त स्राव कम होता है। उदर में जड़ता, अन्नविद्वेष, उबाक, मुँह में मीठापन, चिपचिपा थूक, उदर में वातसंचय आदि लक्षण होने पर समीरपन्नग अति उपयुक्त है।
• विसूचिका रोग में वमन-विरेचन अधिक हो जाने पर शक्तिपात हो जाता है। हाथ पैरों में शीतलता, नाडी अति मन्द हो जाना, निश्चेष्टता और सर्वांग प्रस्वेदपूर्ण हो जाता है। ऐसी स्थिति में सोंठ और कायफल की मालिश कराई जाती है तथा समीरपन्नग रस, मण्डूरभस्म, सुवर्णमाक्षिक भस्म और प्रवालपिष्टी मिला तुलसी का रस, अदरक का रस और शहद मिलाकर १०-१० मिनट पर देते रहने से रोगी सचेत हो जाता है। और देह उष्ण हो जाती है। फिर सूतशेखर और संजीवनी वटी देने से रोगी की स्थिति सुधर जाती है।
• मलावरोध दीर्घकाल तक रहने पर कीटाणुओं की आबादी दृढ़ हो जाती है। फिर उस हेतु से किसी-किसी में आक्षेप आने लगता है। तीव्रावस्था में छाती की धड़-धड़, श्वासोच्छवास में कष्ट, शिरदर्द और घबराहट आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं । झटकों की इस तीव्रावस्था में समीरपन्नग १/४ रत्ती मात्रा में लहसुन के रस के साथ दिन में ३ बार देने और गुनगुने चन्दबलालाक्षादि तैल की मालिश करने पर रोगशमन हो जाता है। किन्तु पहले एरण्ड तैल से उदर शुद्धिकर लेवें।
• सेन्द्रिय विष प्रकोप या बार-बार अत्यधिक भोजन करने की आदत वालों का आमाशय शिथिल हो जाता है। फिर भोजन जब तक न किया जाय जब तक एक पीछे एक डकार आती रहती है। अधिक डकारें आने से छाती में वेदना, अग्निमांद्य, अशक्ति आदि लक्षण उपस्थित होते हैं। इस विकार पर समीरपन्नग, शंखभस्म और मुलहठी के चूर्ण को आम के मुरब्बे में मिला लेवें। फिर भोजन के समय थोड़ा-थोड़ा ग्रास के साथ मिलाकर सेवन कराने से थोड़े ही दिनों में लाभ हो जाता है।
• छाती में कफ सूख जाने पर वात प्रकुपित होकर शूल चलने लगता है, यह शुल खाँसी आने पर चलता है। वात प्रकोप होने से भीतर कफ सूखकर सूखी खाँसी हो जाती है। इस रोग पर समीरपन्नग, मुलहठी सत्व, अदरक के रस और शहद के साथ मिला भोजन के साथ सुबहशाम देते रहने से शूल निवृत्त हो जाता है और कफ छूटकर बाहर निकल जाता है।
समीर पन्नग रस के नुकसान : Sameer Pannag Ras ke nuksan (side effects)
1- इस आयुर्वेदिक औषधि को स्वय से लेना खतरनाक साबित हो सकता है।
2-समीर पन्नग रस को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।
3- समीर पन्नग रस लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।