Last Updated on July 31, 2019 by admin
मैंने अपने जीवन में शास्त्रोंकी बातोंको अक्षरशः सत्य कैसे पाया?
एक बार हमारे स्थानपर सुप्रसिद्ध उदासीन संत अनन्त श्रीस्वामी श्री रामेशचन्द्र जी महाराज पधारे थे। उन्होंने अपने सदुपदेश में शास्त्रों की महत्ता पर बोलते हुए अपने जीवन की कुछ घटनाएँ सुनाकर शास्त्रीय आचारों का समर्थन किया था। मनुष्यमात्र के कल्याण के निमित्त यहाँ वे ही घटनाएँ दी जा रही हैं-
[ १ ] दूसरों के वस्त्रों को बिना विचारे काम में लाने से कैसे हानि होती है ?
आजकल लोग कहते हैं कि चाहे जिसका खा लो, पी लो और चाहे जिसका वस्त्र पहन लो, कोई हानि नहीं है, पर ऐसी बात नहीं है- मेरे जीवन की एक घटना है। सन् १९४६ की बात है कि मैं एक बार लायलपुर, पंजाब में गया हुआ था। वहाँ मैं एक रात्रि को श्रीसनातन धर्म सभा के स्थानपर जाकर सोया। मैंने वहाँ के चपरासी को बुलाकर उससे कहा कि ‘मुझे रात्रिको यहीं पर सोना है, इसलिये मुझे कोई बिलकुल ही नया बिस्तर लाकर दो।’ चपरासी ने मुझे एक बिलकुल ही नया बिस्तर लाकर दे दिया। मैं उस नये बिस्तर को बिछाकर सो गया। सोने के पश्चात् सारी रात मुझे श्मशानघाट के स्वप्न आते रहे और मुर्दे आते तथाजलते दिखलायी पड़ते रहे। प्रात:काल उठने पर मुझे बड़ी चिन्ता हुई कि आज ऐसे बुरे श्मशानघाट के स्वप्न क्यों मुझे दिखलायी पड़े। मैंने तुरंत ही उस चपरासी को अपने पास बुलाकर उससे पूछा-
‘भाई ! बताओ, तुम मेरे सोनेके लिये यह बिस्तर कहाँसे लाये थे ?’ उत्तर में चपरासीने कहा कि ‘महाराज ! एक सेठजी की माता मर गयी थी, उन सेठजीने अपनी मरी हुई माता के निमित्त यह नया बिस्तर दान में दिया था, वही मैंने आपको लाकर दे दिया।’ मैं समझ गया कि दान चूँकि प्रेतात्मा के निमित्त दिया गया था, इसलिये उस दान किये हुए बिस्तर में भी प्रेत-भावना प्रवेश कर गयी और इसीसे मुझे रातभर श्मशानघाटकी बातें दिखलायी पड़ती रहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि जो कर्म जिस भावना से किये जाते हैं, उसके संस्कार उसमें जाग्रत् रहते हैं। इसलिये सबके हाथ का खाना-पीना और सबके वस्त्रों को काम में लेना कदापि उचित नहीं है।
[२] देश-स्थान या वातावरण का प्रभाव
वातावरण का और स्थान का भी मन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिस स्थानपर जैसा काम किया जाता है, वहाँ पर वैसा ही वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इसका अपना अनुभव मेरा इस प्रकार है- मैं एक बार ऋषिकेश में गया था और वहाँ एक रात को एक आश्रम में जाकर ठहरा। सो जानेपर मुझे रातभर पटवारियों के सम्बन्ध में स्वप्न आते रहे और कभी जमाबंदीकी बातें तो कभी हिसाब-किताब की बातें, जो पटवारी किया करते हैं, दिखलायी पड़ती रहीं। प्रात:काल जागने पर मैं उस आश्रम के प्रबन्धक के पास गया और मैंने उनसे पूछा कि आपके इस स्थानपर अबसे पहले कौन आकर रहते थे। प्रबन्धकजी ने बताया कि ‘महाराज ! इस स्थानपर ५-६ दिनोंतक बराबर बहुत-से पटवारी आकर रहे थे और वे यहाँ पर जमाबंदी का काम करते रहे थे।’ मैं समझ गया कि बस, उन्हीं पटवारियों के संस्कार इस कमरे में रह गये थे, जो मुझे रातभर सताते रहे। जहाँ मन की सूक्ष्मता थी, वहीं उनका प्रभाव भी प्रकट हुआ। अतः हमारा मन चाहे जिस जगह बैठकर शुद्ध और स्थिर रह सकेगा, यह सोचना गलत है। सोच समझ कर और पवित्र वातावरण वाले स्थान में रहकर भजन-पूजन करने से ही मन लगेगा और लाभ हो सकेगा। जहाँ मांसाहारी रहते हों, जहाँ मांस-मछली, अण्डे-मुर्गे खाये जाते हों और जहाँ गोभक्षक लोग रहते हों तथा जहाँ अश्लील-गंदे गाने गाये जाते हों, व्यभिचार होता हो, वहाँ भला मन शुद्ध कैसे रह सकता है और कैसे भजन बन सकता है?
[३] परलोक, स्वर्ग, नरक, यमराज आदि सत्य हैं, गप नहीं
जो यह कहते हैं कि बस, यहीं पर सब कुछ है, परलोक आदि कुछ नहीं है, न यमराज हैं, न यमदूत हैं और न स्वर्ग-नरक आदि हैं, वे वस्तुतः बड़े भ्रम में हैं। शास्त्रों, पुराणों में जो परलोक, स्वर्ग, नरक, यमराज, यमदूत आदि की बातें आती हैं, वे सब अक्षरशः सत्य हैं। मेरी आँखों-देखी एक सत्य घटना इस प्रकार है
सन् १९४६ की बात है, हमारे पूज्य पिताजी, जिनका शुभ नाम श्री रक्खामलजी है, उस समय श्री ननकानासाहब में रहते थे।
वहीं हमारा घर था। हम सब नित्य की भाँति रात्रि में सोये हुए थे और हमारे पूज्य पिताजी भी अपने पलंगपर सोये थे। पिताजी नित्य प्रात:काल उठा करते थे, पर दूसरे दिन वे प्रात:काल नहीं उठे। हमें बड़ी चिन्ता हुई। हमने जाकर देखा कि पिताजी पलंगपर पड़े हैं। हमने जोर-जोर से आवाज दी तो भी वे बोले नहीं । हमने देखा उनका शरीर बिलकुल मुर्दे-जैसा हो रहा था। हम सब बहुत घबराये और उन्हें डॉक्टरों को दिखाया। डॉक्टरों ने पिताजी को देखकर कहा कि ‘इन्हें बहुत ही ज्यादा कमजोरी है।’ उनका सारा शरीर पसीनेसे भीगा हुआ था और वे एकदम पीले पड़ गये थे। कुछ देर पश्चात् जब पिताजी को होश हुआ, तब उन्होंने बताया कि ५ बजे के लगभग दो यमदूत मुझे लेने आये थे और उन्होंने मुझसे कहा कि ‘तुम हमारे साथ चलो।’ मैं उनके साथ में चला गया। दूर जाने पर मैंने देखा कि एक बहुत बड़ा मैदान है, वहाँ एक मनुष्य बैठा है। उसने दूतों से कहा कि ‘इसे मत लाओ, हमने तुम्हें इसे लानेके लिये नहीं कहा था। वह तो दूसरा रक्खामल अग्रवाल है, वह भी उसी मोहल्लेमें रहता है; उसे लाओ और इसे तुरंत वापस छोड़ आओ।’ वे झटसे मुझे यहाँ पर लाकर छोड़ गये, तबसे मेरे शरीरमें शक्ति नहीं रही।
यह बात कहाँतक सत्य है-हमने यह जानने के लिये जब अपने मोहल्लेके रक्खामल अग्रवाल का पता लगाया, तब ज्ञात हुआ कि रक्खामल अग्रवाल रात को बिलकुल ही अच्छे थे और अच्छी तरह खा-पीकर सोये थे। उनका ठीक सवा ५ बजे प्रात:काल देहान्त हो गया। इस आँखों-देखी और अपने घर में घटी सत्य घटना से यह सिद्ध होता है कि यमराज, यम के दूत, स्वर्ग, नरक आदि बिलकुल सत्य हैं। हमें अपने जीवन में ऐसा कोई भी पापकर्म नहीं करना चाहिये, जिससे हमें यमराज के यहाँ जाकर अपने पापकर्मों के फलस्वरूप नरक की घोर यातनाएँ भोगनी पड़ें और यमदूतों की मार सहनी पड़े। किसी के यह कह देने से कि स्वर्ग-नरक का कोई भय नहीं है- चाहे जो पाप करो, काम नहीं चलेगा और अन्त में हाथ मल-मलकर पछताना तथा रोना होगा, इसलिये हमें अपने परलोक को कभी भी नहीं बिगाड़ना चाहिये और सदा-सर्वदा पापों से बचते रहना चाहिये। इसी में हमारा सच्चा हित है।
[४] श्री भगवच्चरणामृत सब व्याधियों का विनाश करता है
श्रीभगवच्चरणामृत के प्रभाव की यह एक सत्य घटना है। मैं १५ जुलाई सन् १९५२ को टाइफायड ज्वर से पीड़ित हो गया। रोग-निवारण के लिये उस समय जो भी सम्भव उपाय थे, सब किये गये; पर रोग-निवारण नहीं हुआ। बड़े-बड़े अंग्रेजी डॉक्टरों को दिखाया गया और उनके बताये अनुसार औषधियों का सेवन कराया गया और खूब रुपया-पैसा भी लुटाया गया, पर लाभ बिलकुल नहीं हुआ। उलटे रोग बढ़ता ही गया। अन्तमें १८ सितम्बरको सभी बड़े-बड़े डॉक्टरोंने कह दिया कि ‘अब हमारे वशकी बात नहीं है। हमें जो इलाज करना था, सब कर चुके। अब इनके बचने और आराम होने की कोई आशा नहीं है? इसलिये इलाज कराना व्यर्थ है।’ यों जब सभी बड़े-बड़े डॉक्टरोंने जवाब दे दिया और मेरे बचनेकी बिलकुल ही आशा नहीं रही, तब मैंने
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥
इस आधार पर श्रीभगवच्चरणामृत का सहारा लेना ही उचित समझा। मैंने समस्त देशी और अंग्रेजी औषधियों को त्यागकर श्रीभगवच्चरणामृत का पान करना प्रारम्भ कर दिया। श्रीभगवत्मन्दिर में आदमी भेजकर नित्य श्रीभगवच्चरणामृत मँगाकर पीने लगा। श्रीभगवच्चरणामृत को पहले दिन पीते ही मैंने उसमें ऐसा अद्भुत चमत्कार पाया कि मैं चकित हो गया। उसी दिनसे बुखार कम होना शुरू हो गया और एक सप्ताह के भीतर ही मेरा ज्वर बिलकुल ही जाता रहा। यह श्रीभगवच्चरणामृत का अद्भुत दिव्य चमत्कार देख सभी प्रेमी तथा मिलनेवाले आश्चर्यचकित हो गये। मैंने तो इसी दृष्टि से श्रीभगवच्चरणामृत पीना प्रारम्भ किया था कि या तो अब मुझे इस भगवच्चरणामृत से आराम हो जायगा अथवा यदि आराम नहीं होगा तो कम-से-कम मेरी अधोगति तो अब कदापि नहीं होगी। इस श्रीभगवच्चरणामृत में बड़ी ही अद्भुत दिव्य शक्ति विद्यमान है। शास्त्रोंमें हमारे ऋषि-महर्षियों ने जो वर्णन किया है, वह बिलकुल ही सत्य है। यदि वास्तव में मनुष्य को चरणामृत में श्रद्धा और विश्वास हो तो चरणामृत के प्रतिदिन के पान से मनुष्य को दीर्घ आयु और स्वस्थ जीवन तथा सद्गति–तीनों ही प्राप्त हो सकती है।
इस प्रकार मेरे आराम होनेकी बात सुनकर डॉक्टरों को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे दौड़े-दौड़े मेरे पास आये और पूछने लगे कि ‘महाराज! हमने तो आपके जीवन की बिलकुल ही आशा छोड़ दी थी, अब आपको कैसे आराम हो गया और आपने क्या औषध ली सो बताइये।’ मैंने जब श्रीभगवत्-मन्दिर के चरणामृत का पान करने की बात सुनायी, तब वे दंग रह गये और दाँतों तले अंगुली दबाने लगे। वे बोले-‘महाराज ! हमने जो आपको टाइफायड बताया था, वह वास्तव में टाइफायड नहीं था; वह तो ऐसा भयानक ज्वर था कि उसमें कोई भी रोगी आजतक बचा ही नहीं। आपके इस श्रीभगवत्-मन्दिर के चरणामृत के अद्भुत चमत्कार ने तो बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को चुनौती दी है!’
यह है श्रीभगवच्चरणामृत का अद्भुत चमत्कार, जिसने मेरे प्राणों को बचाया और जिसने मुझे बिलकुल ही नीरोग बना दिया। हमारे पूज्य प्रात:स्मरणीय ऋषि-महर्षियों ने शास्त्रों में रत्न भर दिये हैं, जिनकी आज हम कदर नहीं करते—यह हमारा कितना बड़ा दुर्भाग्य है।
भाइयो ! अब भी चेतो ! और अपने सनातनधर्मका, वेद-शास्त्रोंका, पुराणों का, अपने ऋषि-महर्षियों का, गो-ब्राह्मणों का मान-सम्मान और उनपर श्रद्धा करना सीखो; इसीमें सच्चा कल्याण है।
बोलो सनातनधर्मकी जय !
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