धर्म शास्त्रों में श्राद्ध कर्म की महिमा और इसका वैज्ञानिक महत्व

Last Updated on September 10, 2019 by admin

श्राद्ध-तर्पण एक अतिपवित्र ,शुभ प्राचीन परंपरा :

देव संस्कृति जीवन की एक समग्र दृष्टि एवं पद्धति का नाम है। मानवीय चेतना को इसके पूर्ण विकास तक ले जाना ही इसका एकमात्र उद्देश्य है। आत्मा के अनश्वर एवं शाश्वत अस्तित्व की इसकी सुस्पष्ट धारणा के अनुरूप जीवन की परिभाषा यहाँ अति व्यापक है। देह-त्याग के बाद भी जीवात्मा के विकास एवं परस्पर भावपूर्ण आदान-प्रदान की व्यवस्था इसमें निहित है। मरणोत्तर श्राद्ध-तर्पण की क्रियाएँ इसी का एक प्रखर प्रमाण है। वर्ष में पितृपक्ष के पंद्रह दिन विशेष तौर से इसी के लिए नियत किए गए हैं, जिसकी मिसाल अन्य देश-संस्कृति में मिलना दुर्लभ है।

देव संस्कृति के इस उज्ज्वल पक्ष को याद कर मुगल बादशाह शाहजहाँ अपने अंतिम यातना भरे दिनों में अविभूत हुए थे, जब उनके क्रूर पुत्र सम्राट औरंगजेब ने उन्हें जेल में बंद कर रखा था। आकिल खाँ के ग्रंथ ‘वाके आत आलमगीरी’ में शाहजहाँ ने अपने पुत्र के नाम पत्र में मर्मभेदी वाक्य लिखे थे-“हे पुत्र! तू भी विचित्र मुसलमान है, जो अपने जीवित पिता को जल के लिए भी तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं वे हिंदू, जो अपने मृत पिता को भी जल देते हैं।”

‘आर्यों की महानता’ ग्रंथ मे श्राद्ध की महिमा :

इसी प्रकार श्राद्ध-तर्पण के विषय में एक संस्कृत के विद्वान अँगरेज ने ‘आर्यों की महानता’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है-“हिंदुओं में श्राद्ध की प्रथा बड़ी प्राचीन है और आधुनिक समय तक अतिपवित्र और शुभ मानी जाती है। मेरे विचार से ईसाई मत में पूर्वजों की स्मृति न मानना एक त्रुटि है। … अपने पूर्वजों के प्रति अगाध श्रद्धा और स्मरण भाव से युक्त यह प्रथा प्रशंसनीय ही नहीं है, वरन इसको प्रोत्साहित करना भी सर्वथा उचित है।…. मेरा मत है कि इस प्रकार की प्रथा प्रत्येक धर्मानुयायियों में होनी आवश्यक है। पुराने समय में मनुष्य का यह दृढ़ विश्वास कि यदि वे अपने मृत पूर्वजों और संबंधियों की आत्माओं को उनकी मंगलकामना की प्रार्थना प्रतिदिन करके संतुष्ट न करेंगे अथवा उनकी तृप्ति के निमित्त दान देने में संकोच करेंगे तो वे असंतुष्ट आत्माएँ उनकी शांति उपलब्धियों में बाधक बनेंगी, सर्वथा सारहीन नहीं था।”

श्राद्ध शब्द का अर्थ ? :

सर्व पितृ अमावस्या दिवंगत पितरों के प्रति श्रद्धासुमन एवं कृतज्ञता ज्ञापन से भरा विशिष्ट पर्व है। श्राद्ध का अर्थ श्रद्धापूर्ण व्यवहार है, तर्पण का अर्थ तृप्त करना है। इस तरह श्राद्ध-तर्पण का अभिप्राय दिवंगत अथवा जीवित पितरों को तृप्त करने की श्रद्धापूर्वक प्रक्रिया है। पितृ अमावस्या का समूचा कर्मकांड इसी प्रयोजन से किया जाता है। साथ ही इसमें यह भाव-प्रेरणा भी निहित रहती है कि हम पितरों, महापुरुषों एवं महान पूर्वजों के आदर्शों, निर्देशों एवं श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण कर वैसे ही महान बनने का प्रयास करें।

क्यों मनाया जाता है श्राद्ध ?

ऋषियों के मतानुसार मृत्यु के उपरांत जीवात्मा चंद्रलोक की ओर जाता है और वहाँ से और ऊँचा उठकर पितृलोक में पहुँचता है। इन मृतात्माओं को अपने नियत स्थान तक पहुँचने की शक्ति प्रदान करने के निमित्त मरणोत्तर पिंडदान और श्राद्ध की व्यवस्था की गई है। श्राद्ध में पितरों के नाम पर ब्रह्मभोज (ज्ञान प्रसाद का वितरण) भी किया जाता है। इसके पुण्यफल से भी पितरों का संतुष्ट होना माना गया है। शास्त्रों का सुस्पष्ट मत है कि जो व्यक्ति श्राद्ध करता है, वह पितरों के आशीर्वाद को प्राप्त करता है और आयु, बल, पुत्र, यश, सुख, वैभव और धन-धान्य को प्राप्त होता है। इसी निमित्त आश्विन मास के कृष्ण पक्ष भर प्रतिदिन नियम पूर्वक स्नान करके पितरों का तर्पण किया जाता है और जो दिन पितरों की मृत्यु का होता है, उस दिन यथाशक्ति श्रेष्ठ कार्यों के लिए सत्प्रवृत्ति सवर्धन हेतु दान दिया जाता है।

धर्म शास्त्रों में श्राद्धकर्म की महिमा :

शास्त्रों में श्राद्धकर्म की कल्याणकारी महिमा भरी पड़ी है। महर्षि सुमंतु के मत में-“संसार में श्राद्ध से बढ़कर और कल्याणप्रद मार्ग नहीं है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिए।” गरुड़ पुराण में ऋषि लिखते हैं-“पितृ पूजन से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि,बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते हैं।’ मार्कडेय पुराण में ऋषि के अनुसार, ‘श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते हैं।’ महाभारत के अनुसार, ‘पितरों की भक्ति करने से पुष्टि, आयु, वीर्य तथा लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।”

श्राद्ध के व्यापक प्रभाव का उल्लेख करते हुए ऋषिगण आगे लिखते हैं-“जो मनुष्य अपने वैभव के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह साक्षात् ब्रह्म से लेकर तृण पर्यंत समस्त प्राणियों को तृप्त करता है।

श्रद्धापूर्वक विधि-विधान से श्राद्ध करने वाला मनुष्य ब्रह्म, इंद्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव, पितृगण, मनुष्यगण, पशुगण, समस्त भूतगण तथा सर्पगण को भी संतुष्ट करता हुआ संपूर्ण जगत को संतुष्ट करता है।” विष्णु पुराण में भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किए गए हैं। हेमाद्रि नागरखंड के मतानुसार”जो मनुष्य एक दिन भी श्राद्ध करता है, उसके पितृगण वर्ष भर के लिए संतुष्ट हो जाते हैं, यह सुनिश्चित है।”

श्राद्धकर्म में निहित विज्ञान :

श्राद्ध के संदर्भ में व्यक्त उपर्युक्त उद्गार किसी भी तरह से अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर ऋषियों की सूक्ष्म प्रज्ञा द्वारा प्रमाणित पुष्ट हैं। दिवंगत जीवात्मा को या पितर को श्राद्धकर्म से कुछ लाभ होता है या नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि होता है, अवश्य होता है। इस विश्वब्रह्मांड का प्रत्येक जीव, प्रत्येक कण, प्रत्येक परमाणु एवं घटक एकदूसरे से जुड़ा हुआ है। संसार के किसी भी कोने में अनीति, अत्याचार, युद्ध, आतंक आदि हो तो सुदूर निवासियों के मन में भी उद्वेग उत्पन्न होता है। छोटा सा यज्ञ करने पर भी उसकी दिव्य सुगंध, सुवास एवं भावना समस्त वातावरण एवं जीवधारियों को लाभ पहुँचाती है। इसी प्रकार कृतज्ञता की भावना से ओत प्रोत श्राद्धकर्म समस्त प्राणियों में शांतिमयी भावनाओं का संचार करता है। सद्भावना की तरंगें जीवित-मृत सबको प्रभावित करती हैं, किंतु अधिकांश भाग उन्हीं को पहुँचत है, जिनके लिए श्राद्ध विशेष रूप से किया जाता है। श्राद्ध से पितृगण संतुष्ट होते हुए अपना आशीर्वाद देते हैं, जिससे श्रद्धालु का कल्याण होता है।

पुत्र, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य प्रदान करता है श्राद्ध :

पितृपक्ष के साथ पितरों का विशेष संबंध होने के कारण शास्त्रों में पितृ पक्ष में श्राद्ध करने की विशेष महिमा बताई गई है। महर्षि जाबाल के शब्दों में “पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और अभिलाषित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।’ इसके विपरीत जो लोग आश्विन मास के पितृपक्ष में अपने मृत पितरों के प्रति श्राद्ध नहीं करते, उनके पिता लोग उन्हें कठिन शाप देते हैं।

श्राद्ध न करने वालों पर शास्त्र वचन :

जो व्यक्ति श्राद्ध के वास्तविक रहस्य को न समझकर पितरों के प्रति श्राद्धकर्म नहीं करते, उन्हें शास्त्रों में मूर्ख की संज्ञा दी गई है। महाभारत में विदुर जी धृतराष्ट्र से कहते हैं-“जो मनुष्य अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध नहीं करता, उसको बुद्धिमान मनुष्य मूर्ख कहते हैं।” आदित्य पुराण के मत में-“जो मनुष्य दुर्बुद्धि वश पितृलोक अथवा पितृगण को न मानकर श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर उसका रक्तपान करते हैं।”

अतः पितरों की संतुष्टि एवं अपने कल्याण के उद्देश्य से सभी विचारशील मनुष्यों को श्राद्ध तर्पण में अवश्य ही भावपूर्ण भागीदारी निभानी चाहिए। इसमें जहाँ पितरों की भावनात्मक तृप्ति एवं आत्मिक शांति का पुण्य प्रयोजन निहित है, वहीं श्राद्धकर्ता की भी सर्वांगीण स्वार्थ सिद्धि एवं कल्याण का यह एक सुअवसर हैं।

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आगे पढ़ने के लिए कुछ अन्य सुझाव :
• अगर आपको आयु, पुत्र, यश ,धन-धान्य की कामना है तो अवस्य करे श्राद्ध-कर्म ।
• गरूड़ पुराण में भगवान ने बताई श्राद्ध की महिमा ।
• शास्त्रों में वर्णित तिथियों के अनुसार श्राद्ध कर्म करने से मिलने वाले लाभ ।

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