श्री युक्तेश्वर गिरी जी : मेरे गुरु के दिव्य जीवन का अद्भुत सफर | Shri Yukteswar Giri Ji

Last Updated on January 24, 2025 by admin

1894 में, जब प्रयागराज के पवित्र कुंभ मेले में लाखों योगी और संन्यासी गंगा स्नान के लिए एकत्रित हुए, उस ऐतिहासिक अवसर पर श्री युक्तेश्वरजी गिरी की उपस्थिति ने माहौल को और भी खास बना दिया।

यह वही समय था जब श्री युक्तेश्वरजी, हाल ही में अपने गुरु लाहिड़ी महाशय से क्रिया योग की दीक्षा प्राप्त कर, गहन साधना के पथ पर अग्रसर थे। इसी आयोजन में उन्होंने अपने गुरु के गुरु, महावतार बाबाजी से पहली बार मुलाकात की। महावतार बाबाजी, जो सदियों से अपने सूक्ष्म शरीर में अमर योगी के रूप में स्थापित हैं, ने प्राचीन क्रिया योग के खोए हुए विज्ञान को पुनर्जीवित किया और इसकी शिक्षा लाहिड़ी महाशय को प्रदान की।

इस विशेष भेंट के दौरान बाबाजी ने श्री युक्तेश्वरजी से कहा कि वे निकट भविष्य में उनके पास एक ऐसे शिष्य को भेजेंगे, जो एक दिन पश्चिमी दुनिया में योग और आध्यात्मिकता का प्रचार करेगा। बाबाजी की यह भविष्यवाणी सटीक रूप से श्री परमहंस योगानंदजी की ओर इशारा करती थी। योगानंदजी, जिन्होंने “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” लिखी और क्रिया योग की शिक्षाओं को पश्चिम में लोकप्रिय बनाया, उस भविष्यवाणी के साक्षात प्रमाण बने।

लेकिन यह जानना जरूरी है कि आखिर श्री युक्तेश्वरजी कौन थे, जिन्होंने परमहंस योगानंदजी जैसे महान आध्यात्मिक व्यक्तित्व को गढ़ा?

योगानंद के शब्दों में, “श्री युक्तेश्वरजी के हर वचन में ज्ञान की गहराई थी, जो उनकी आत्मा की सुगंधित अनुभूति के रूप में प्रकट होती थी।” उनके पैर जहां धरती पर मजबूती से टिके थे, वहीं उनका मस्तक स्वर्गीय शांति में स्थित था।

श्री युक्तेश्वरजी ने वेदों में बताए गए दैवीय गुणों के आदर्शों को अपने जीवन में धारण किया था। वे दया में फूल से भी कोमल और सिद्धांतों में वज्र से भी दृढ़ थे।

एक भारतीय सन्यासी और योगी के रूप में, श्री युक्तेश्वरजी परमहंस योगानंद और सत्यानंद गिरी जैसे महान शिष्यों के गुरु थे।

1884 में, श्री युक्तेश्वरजी ने योगिराज श्यामचरण लाहिड़ी महाशय के मार्गदर्शन में अपनी आध्यात्मिक यात्रा शुरू की और क्रिया योग में निपुणता हासिल की। इसके साथ ही उन्होंने उपनिषदों और भगवद गीता का गहन अध्ययन कर अपने आध्यात्मिक ज्ञान को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

गुरु के रूप में, उन्होंने दो आश्रमों की स्थापना की – एक श्रीरामपुर में और दूसरा पुरी, ओडिशा में। वे इन दोनों आश्रमों में समय-समय पर निवास करते और अपने शिष्यों को मार्गदर्शन देते।

गुरु की भूमिका से आगे बढ़ते हुए, श्री युक्तेश्वरजी ने लेखन के क्षेत्र में भी अपनी छाप छोड़ी। उन्होंने “द होली साइंस” नामक एक प्रभावशाली पुस्तक लिखी।

श्री युक्तेश्वरजी का जीवन एक ऐसे आध्यात्मिक प्रकाशस्तंभ के रूप में था, जिसने न केवल अपने शिष्यों को बल्कि पूरी दुनिया को मार्गदर्शन प्रदान किया।

महावतार बाबाजी ने एक ऐसी पुस्तक लिखने की इच्छा व्यक्त की थी, जो हिंदू और ईसाई धर्मग्रंथों के बीच की गहरी समानताओं और एकता को उजागर कर सके। श्री युक्तेश्वरजी ने इस महत्वपूर्ण कार्य को सहर्ष स्वीकार किया।

अपने जीवन की अंतिम अवस्था में, श्री युक्तेश्वरजी ने परमहंस योगानंद को अपने सभी आश्रमों का उत्तराधिकारी चुना।

10 मई 1855 को भारत के श्रीरामपुर में एक समृद्ध व्यापारी परिवार में जन्मे, श्री युक्तेश्वरजी, जिनका मूल नाम प्रियनाथ कांडार था, बचपन से ही अपने परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने लगे। उनके पिता की असामयिक मृत्यु ने उन्हें कम उम्र में ही पारिवारिक जवाबदारी सौप दी।

हालांकि वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे, लेकिन उन्हें औपचारिक शिक्षा बहुत धीमी और सतही प्रतीत हुई। इसके बाद उन्होंने दो वर्ष कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में भी अध्ययन किया। इनके ज्ञान की झलक उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “द होली साइंस” में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

उन्होंने ज्योतिष पर एक आधारभूत पुस्तक भी लिखी, जो उस समय के लोगों के लिए अत्यंत उपयोगी साबित हुई। साथ ही, उन्होंने बंगाली लोगों के लिए हिंदी और अंग्रेजी सीखने की एक सरल पुस्तक भी रची।

उनकी सोच में महिलाओं की शिक्षा अती महत्वपूर्ण थी। उस समय बंगाल में महिलाओं की शिक्षा पर ध्यान देना असामान्य था, लेकिन उन्होंने इसे प्राथमिकता दी। इसके साथ ही, उन्होंने ज्योतिष में गहरी विशेषज्ञता प्राप्त की।

वे केवल एक आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, बल्कि खगोल शास्त्र और विज्ञान के भी एक कुशल विद्वान थे।

विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद, उन्होंने विवाह किया और एक बेटी के पिता बने। लेकिन जल्दी ही पत्नी का देहांत हो जाने के बाद, उन्होंने संन्यास ग्रहण कर अपना पूरा जीवन आध्यात्मिक साधना के लिए समर्पित कर दिया।

सन 1884 में, उनकी मुलाकात योगिराज लाहिड़ी महाशय से हुई, जो उनके गुरु बने। लाहिड़ी महाशय ने उन्हें क्रिया योग की दीक्षा दी और उनके जीवन को एक नई दिशा प्रदान की।

आने वाले कई वर्षों तक, श्री युक्तेश्वरजी ने अपने गुरु की संगति में रहकर आध्यात्मिक साधना में नई उचाई प्राप्त की। वे अक्सर बनारस जाकर लाहिड़ी महाशय से साधना संबंधी मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे।

श्री युक्तेश्वरजी ने शाकाहारी जीवनशैली को अपनाया और इसे आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक माना।

उनकी मान्यता थी कि क्रिया योग, जो पतंजलि के योग सूत्र के दूसरे अध्याय में वर्णित है, मानव विकास को तेज कर सकता है। यह भगवान श्री कृष्ण द्वारा सिखाया गया ईश्वर से साक्षात्कार का एक प्राचीन मार्ग है।

क्रिया योग का अभ्यास मन को इंद्रियों की बाधाओं से मुक्त करता है और आत्मा को दिव्यता से जोड़ता है। श्री लाहिड़ी महाशय, श्री युक्तेश्वरजी और परमहंस योगानंदजी जैसे महान आचार्यों ने इस प्राचीन ज्ञान को आधुनिक युग तक पहुंचाया।

महावतार बाबाजी, जो अमर गुरु और मृत्युंजयी योगी के रूप में जाने जाते हैं, ने लाहिड़ी महाशय को क्रिया योग में दीक्षित किया था। उनके माध्यम से क्रिया योग का प्राचीन विज्ञान पुनर्जीवित हुआ और इसे आधुनिक युग तक पहुंचाने की यात्रा प्रारंभ हुई।

सन 1894 में, क्रिया योग में एक दशक तक गहन साधना और सिद्धि प्राप्त करने के बाद, श्री युक्तेश्वरजी ने अपने गुरु के गुरु, महावतार बाबाजी से पहली बार मुलाकात की। यह ऐतिहासिक घटना प्रयागराज के कुंभ मेले में हुई, जहां लाखों योगी और साधक गंगा के पवित्र स्नान के लिए एकत्र हुए थे।

इस मुलाकात में, श्री युक्तेश्वरजी ने पश्चिमी वैज्ञानिकों और विचारकों के बारे में अपनी राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ये लोग, जो यूरोप और अमेरिका में रहते हैं, विशेष बौद्धिक उपलब्धियों के बावजूद भौतिकवाद की ओर झुके हुए हैं। इन विचारकों की मुख्य कमजोरी यह है कि वे धार्मिक विविधता के बावजूद मौलिक एकता को स्वीकार नहीं करते। इससे विश्व में अलगाव और संकीर्ण सोच बढ़ती है। श्री युक्तेश्वरजी ने यह भी उल्लेख किया कि यदि ये लोग भारत के गुरुओं से मिल पाते, तो यह उनके लिए अत्यंत लाभकारी हो सकता था।

बाबाजी ने उनकी बातें सुनने के बाद मुस्कुराते हुए टिप्पणी की, “मैंने देखा है कि तुम्हारी रुचि पूर्व और पश्चिम दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में है। यही कारण है कि मैंने तुम्हें यहां बुलाया है।”

बाबाजी ने कहा, “पूर्व और पश्चिम को मिलकर ऐसा संतुलन बनाना चाहिए जिसमें कर्म और आध्यात्मिकता का सामंजस्य हो। भारत के पास गहरा आध्यात्मिक ज्ञान है, जो पश्चिम को दिशा दिखा सकता है, जबकि पश्चिम के पास ऐसी तकनीकें हैं जो भारत के योग और धार्मिक विश्वासों को सशक्त बना सकती हैं। दोनों की साझेदारी से एक संतुलित और बेहतर रास्ता तैयार किया जा सकता है।”

बाबाजी ने श्री युक्तेश्वरजी से कहा, “स्वामीजी, आप पूर्व और पश्चिम दोनों संस्कृतियों के बीच आदान-प्रदान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। मैं कुछ वर्षों में आपके पास एक शिष्य भेजूंगा, जिसे आप योग का प्रचार करने के लिए प्रशिक्षित करेंगे। पश्चिम में अनेक आत्माएं आध्यात्मिक भूख से त्रस्त हैं। मैं उनमें संभावित संतों को देखता हूं, जो अमेरिका और यूरोप में जागृत होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।”

इस भविष्यवाणी के कई वर्षों बाद, एक दिन श्री युक्तेश्वरजी ने चांदनी रात में परमहंस योगानंद की ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा, “तुम वही शिष्य हो, जिसे बाबाजी ने वर्षों पहले मुझे भेजने का वादा किया था।”

योगानंदजी ने अपने गुरु और महावतार बाबाजी की शिक्षाओं को न केवल पश्चिम में लोकप्रिय बनाया, बल्कि आध्यात्मिकता की इस अमूल्य निधि को लाखों जिज्ञासुओं तक पहुंचाया।

बाबाजी से मुलाकात के बाद, श्री युक्तेश्वरजी ने अपने बड़े पुश्तैनी घर को एक आध्यात्मिक आश्रम में बदलने का निर्णय लिया। यह आश्रम जहां उन्होंने अपने शिष्यों को क्रिया योग की गहन शिक्षाएं दीं।

22 मार्च 1903 को, उन्होंने ओडिशा के पुरी में दूसरा आश्रम स्थापित किया, जिसे उन्होंने “करार आश्रम” नाम दिया।

लाहिड़ी महाशय द्वारा हिमालय की गुफाओं से आम जनमानस तक लाई गई क्रिया योग की परंपरा को श्री युक्तेश्वरजी ने पूरे समर्पण के साथ आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने समय को श्रीरामपुर और पुरी के आश्रमों के बीच विभाजित किया, ताकि दोनों स्थानों पर शिष्यों को शिक्षा दी जा सके। इसके अलावा, उन्होंने “साधु सभा” नामक एक संगठन की स्थापना की, जो आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार के लिए समर्पित था।

शिक्षा में श्री युक्तेश्वरजी की रुचि इतनी गहरी थी कि उन्होंने अपने शिष्य परमहंस योगानंद से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने पर जोर दिया।

यद्यपि, श्री युक्तेश्वरजी के शिष्यों की संख्या सीमित थी। सन 1910 में, युवा मुकुंदलाल घोष, जो बाद में “परमहंस योगानंदजी” के नाम से प्रसिद्ध हुए, उनके सबसे प्रमुख शिष्य बने। योगानंदजी ने पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग के अभ्यास का विस्तार किया और इसे व्यापक रूप से लोकप्रिय बनाया।

श्री योगानंदजी ने बाद में बताया कि उनके गुरु की कठोर अनुशासन प्रणाली के कारण उनके शिष्य सीमित थे। लेकिन यह अनुशासन ही था, जिसने उनके शिष्यों को गहराई से आध्यात्मिक साधना के प्रति समर्पित किया।

श्री युक्तेश्वरजी और परमहंस योगानंदजी का उद्देश्य था कि पूर्व के प्राचीन ज्ञान को इस प्रकार पश्चिम में प्रचारित किया जाए कि यह पश्चिमी मन और संस्कृति के लिए सरल और स्वीकार्य बन सके। उन्होंने रीषियों और संतों द्वारा दी गई शिक्षाओं को अपने जीवन में आत्मसात किया और उन्हें एक व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत किया।

श्री युक्तेश्वरजी ने हिंदू जीवन के चार चरणों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास – और चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – को अपने जीवन में आदर्श रूप में अपनाया।

उन्होंने परमहंस योगानंद और परमहंस हरिहरानंद जैसे कई समर्पित शिष्यों को दीक्षा दी। इन शिष्यों ने श्री युक्तेश्वरजी के सपने को साकार किया और क्रिया योग को दुनिया के हर कोने तक फैलाया। उनकी शिक्षाएं आज भी लाखों साधकों के जीवन को नई दिशा प्रदान कर रही हैं।

श्री युक्तेश्वरजी की पुस्तक “द होली साइंस” जीवन के वास्तविक अर्थ और सच्चे आनंद को पाने का आध्यात्मिक मार्ग दिखाती है। वे बताते हैं कि बाहरी सफलताएं स्थायी खुशी का स्रोत नहीं होतीं। मानव हृदय सच्चे सुख के लिए सत, चित, और आनंद की तीन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की आकांक्षा करता है।

सच्चा संतोष केवल तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति सतगुरु के मार्गदर्शन का पालन करता है, पवित्र शिक्षाओं को आत्मसात करता है, और नैतिक आचरण बनाए रखता है। ये तीनों आवश्यकताएं जीवन के दुख और अज्ञानता को समाप्त कर, सत-चित-आनंद की उस अवस्था में प्रवेश कराती हैं, जो सांसारिक समस्याओं से परे है।

श्री युक्तेश्वरजी ने अपने उपदेशों में पांच आध्यात्मिक स्तंभों का उल्लेख किया, जो सभी दुखों का अंत कर सकते हैं। ये स्तंभ हैं – तप, स्वाध्याय, प्रणव ध्यान, श्रद्धा, और नैतिक साहस अर्थात वीर्य। उनके अनुसार, ध्यान दिव्यता प्राप्त करने का सबसे प्रभावी मार्ग है। नियमित ध्यान व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण की क्षमता प्रदान करता है और अंतर्ज्ञान को विकसित करता है।

ध्यान के लिए पात्रता- नैतिक साहस और श्रद्धा पर आधारित होती है। स्वस्थ आदतें, सकारात्मक संगति, और प्राणायाम की तकनीकें मन को कठोरता से मुक्त करती हैं और साधना के प्रति समर्पण को गहरा करती हैं।

श्री युक्तेश्वरजी मानते थे कि साधना की शुरुआत गुरु और सभी प्राणियों के प्रति असीम प्रेम से होती है। केवल इस प्रेम के माध्यम से ही साधक आत्मा की गहराई तक जा सकता है और दिव्यता की ओर बढ़ सकता है।

श्री युक्तेश्वरजी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण पुरी के करार आश्रम में बिताए। महासमाधि में प्रवेश करते समय, वे शांत और स्थिर अवस्था में थे। अपनी अंतिम सांस लेते हुए, उन्होंने अपने शरीर को पूर्ण जागरूकता के साथ त्याग दिया।

जब उनके शिष्य नारायण ने ध्यानपूर्वक अपने गुरु के अंतिम क्षणों को देखा, तो उन्होंने श्री युक्तेश्वरजी के शरीर के सीने से ब्रह्मरंध्र सिर के शीर्ष भाग तक एक हल्की कंपन महसूस की। साथ ही, उन्हें धीमी गति से ‘ओम’ की दिव्य ध्वनि के समान कुछ सुनाई दिया। यह अनुभव नारायण के लिए अविस्मरणीय था।

लेकिन यह मृत्यु नहीं थी, यह सिर्फ उनके भौतिक शरीर का त्याग मात्र था, जिसके बाद उन्होंने एक अधिक स्वतंत्र और दिव्य देह को धारण कर लिया।

19 जून 1936 की एक अद्भुत दोपहर, परमहंस योगानंद बंबई के एक होटल में ध्यानमग्न थे, जब उनके गुरु श्री युक्तेश्वरजी दिव्य प्रकाश के साथ प्रकट हुए। अपने महा समाधि के बाद भी, इस अद्भुत दर्शन ने योगानंद को गहराई से भाव-विह्वल कर दिया और उनके हृदय में अपार श्रद्धा और प्रेम भर दिया।

इसी तरह, परमहंस हरिहरानंद और अन्य शिष्यों को भी उनके दिव्य दर्शन प्राप्त हुए, जिसने यह साबित कर दिया कि श्री युक्तेश्वर अपने भौतिक शरीर के त्याग के बाद भी अपने शिष्यों का संरक्षण और मार्गदर्शन दिव्य रूप में कर रहे हैं।

श्री युक्तेश्वरजी की शिक्षाएं उन साधकों के लिए थीं, जो गंभीरता से आत्मज्ञान की खोज में थे। वे संन्यासियों और गृहस्थों दोनों को यह सिखाते थे कि धर्मनिष्ठ आचरण, निःस्वार्थ सेवा, तार्किक सोच, और बच्चों को उचित शिक्षा प्रदान करना कितना महत्वपूर्ण है।

श्री युक्तेश्वरजी ने कहा कि एक वैज्ञानिक के लिए सच्चा आध्यात्मिक बनना अपेक्षाकृत आसान हो सकता है। इसका कारण यह है कि वैज्ञानिक का मन स्वाभाविक रूप से गहरी एकाग्रता और ध्यान की शक्ति से संपन्न होता है। यह वही क्षमता है, जो आत्मा की गहराई तक पहुंचने और उसके रहस्यों को समझने के लिए आवश्यक होती है। यही ध्यान और एकाग्रता साधक को आध्यात्मिक सच्चाइयों को अनुभव करने और प्रमाणित करने में मदद करती है।

प्रसिद्ध विद्वान डब्ल्यू.वाई. इवांस वेंट्ज़ ने उनके बारे में लिखा कि वे अपने अनुयायियों के लिए अत्यधिक श्रद्धा और सम्मान के पात्र थे। वे भीड़ से दूर, एकांत में रहते हुए अपने जीवन को पूरी तरह से साधना, शिक्षा और उच्च आदर्शों के पालन के लिए समर्पित करते थे। परमहंस योगानंदजी ने उनके जीवन और शिक्षाओं को ऐसा अमूल्य प्रेरणास्रोत बताया, जो न केवल उनके समय के लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्गदर्शक और प्रकाश स्तंभ बना रहेगा।

श्री युक्तेश्वरजी अपने शिष्यों से कहते थे, “यह अंध विश्वास रखने का कोई अर्थ नहीं है कि मेरे छूने मात्र से तुम्हारा उद्धार हो जाएगा या स्वर्ग से कोई रथ तुम्हें लेने आएगा। गुरु की उपस्थिति तुम्हें मार्ग दिखा सकती है और ज्ञान के विकास में सहायक हो सकती है, लेकिन तुम्हें अपने आत्मा को उन्नत करने के लिए स्वयं प्रयास करना होगा।

गुरु द्वारा दी गई साधना की तकनीकों को अपनाओ और अपने जीवन को उस दिशा में ले जाओ, जहां तुम अपनी आत्मा को उच्चतम स्तर पर पहुंचा सको।”

श्री युक्तेश्वरजी का संदेश सरल, स्पष्ट और आत्म-जागरण की ओर प्रेरित करता है। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी साधकों के लिए प्रकाश का स्रोत हैं।

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