Last Updated on July 20, 2019 by admin
हिन्दी के सुविख्यात साहित्यकार पं० श्रीनारायण जी चतुर्वेदी के द्वारा सुनायी हुई सच्ची घटना :
हिन्दीके महान् साहित्यकार पं० श्रीनारायणजी चतुर्वेदी परम भागवत वैष्णव विभूति थे। उन्होंने एक बार मुझे प्रयागमें अपने निवास-स्थानपर एक दीवान साहबके पिताद्वारा तेलीका बैल बनकर ऋण चुकाने की आश्चर्यजनक घटना सुनायी थी। उस सत्य घटना को हम उन्हींके शब्दों में प्रस्तुत कर रहे हैं। शास्त्रीय वाक्य है-‘ऋण चुकाये बिना श्राद्ध आदि का फल नहीं मिलता।’
इटावा मेरी जन्मस्थली है। इटावाके निवासी बाबू श्रीश्यामसुन्दरलाल जी राजस्थान की किशनगढ़ रियासतके दीवान थे। उनकी एक ईमानदार एवं कर्तव्यपरायण दीवान के रूप में दूरदूर तक ख्याति थी। हम सभी इटावा-निवासी इस विभूतिकी ख्याति सुनकर गर्व किया करते थे। । दीवान श्रीश्यामसुन्दरलाल जी वर्ष में दो-चार बार इटावा आते तो उनके पुराने साथी उनसे मिलकर किशनगढ़ के राजा-रानी के रोचक किस्से सुनने को लालायित रहा करते।
एक बार दीवान साहब इटावा आये। अपने पुराने मकान में ठहरे। उन्होंने अपने नौकर को पास के मुहल्लेमें रहनेवाले नाईके पास भेजा और उसे कहलवाया कि उन्हें सबेरे किसीसे मिलने जाना है, अतः छः बजेसे पहले आकर उनकी हजामत बना जाय। नाई सबेरे साढे पाँच बजे उनके घर पहुँच आया।
उन्होंने नाईसे पूछा-‘क्या यहाँ कोई शंकर नामका तेली रहता है?’ नाई ने उन्हें बताया कि थोड़ी दूरपर जो इमली का पेड़ है, उसीके पास शंकर तेली का मकान है। पर शंकर मर गया है, उसका लड़का तेल निकालने का काम करता है। दीवान साहबने नाईसे कहा-‘मुझे इसी समय उसके घर ले चलो, बहुत जरूरी काम है।’ उन्होंने कुर्ता पहना, जेब में कुछ रुपये डाले और नाई को साथ लेकर शंकर तेली के मकानपर जा पहुँचे।
शंकर तेली का पुत्र दीवान साहबको पहचानता था। वह सबेरे-सबेरे उन्हें अपने मकानके दरवाजेपर खड़ा देख हक्काबक्का रह गया। दीवान साहबने उससे पूछा-‘क्या तुम शंकर के लड़के हो?’ उसके ‘हाँ’ कहने पर वे बोले- क्या तुम्हारा कोल्हू चल रहा है?’ उसने कहा-‘जी हाँ, चल रहा है।’ उन्होंने कहा–’मुझे कोल्हूके पास ले चलो।’ वह आश्चर्यचकित हुआ उन्हें कोल्हूके पास ले गया। दीवान साहबने कमरेमें जाकर देखा-एक बूढ़ा-सा बैल कोल्हू चला रहा है। दीवान साहब बैलके पास पहुँचकर रुक गये। बैलने उनकी ओर देखा तथा उनके कुर्तेके आँचलको मुँहसे पकड़नेका प्रयास किया।
दीवान साहबने तेली से कहा-‘तुमने यह बैल जितने में खरीदा था, उससे अधिक रुपये लेकर इसे मुझे दे दो।’ उन्होंने जेबसे १४ रुपये निकाले तथा तेली के हाथपर रख दिये। अचानक यह देखकर तेली असमंजसमें पड़ गया। उसने सोचा कि यह बैल तो बूढ़ा हो ही गया है, १४ रुपयेमें जवान और तगड़ा बैल मिल जायगा। फिर भी वह वर्षों से अपनी सेवा करनेवाले बैल के प्रति ममता के कारण उसे देने में हिचकिचा रहा था। दीवान साहब जबरन् वे १४ रुपये तेली के हाथमें पकड़ाते हुए नाई से बोले इसे खोलकर मेरे साथ ले चलो।’
तेली दीवान साहब के आगे कुछ न बोल सका। उसने कोल्हूसे बैल हटाया तथा उसकी रस्सी नाई को पकड़ा दी। आगे-आगे दीवान साहब चले और उनके पीछे-पीछे बैल की रस्सी पकड़े नाई। दीवान साहब चलते-चलते पीछे मुड़कर बैल को देख लेते थे।
दीवान साहब के घरके पहले सड़कपर हलकी चढ़ाई आयी। बैल चढ़ाई पार करते-करते हाँफने लगा। सड़क के किनारे स्थित शिव-मन्दिरके सामने पहुँचते ही बैल रुक गया। उसने सहसा मल-त्याग किया और शिव-मन्दिरकी ओर निहारा तथा गिर पड़ा। देखते-ही-देखते उसने प्राण त्याग दिये।
दीवान साहबने जैसे ही बैलको जमीनपर गिरते हुए देखा, पीछे मुड़कर उसके पास वे खड़े हो गये। हाथ जोड़कर कुछ बुदबुदाये, जैसे मृत बैलको श्रद्धाञ्जलि दे रहे हों। उन्होंने नाई तथा नौकरों को भेजकर ठेला मँगवाया। बैल के शव को ठेले पर लदवाया तथा उसे लेकर वहाँसे ४ किलोमीटर दूर यमुना नदीतक गये। वे ठेलेके पीछे-पीछे पैदल चले। बैल के शवको यमुनाजी में प्रवाहित कराया तथा भरी दोपहरी में पैदल ही घर लौटे।
दीवान साहब ने मुझे बताया-‘सबेरे मैंने स्वप्नमें देखा कि मेरे पिताजी आये हैं और मुझसे कह रहे हैं-तुम दीवान-जैसे बड़े पदपर रहकर खूब आनन्द का जीवन जी रहे हो। तुम मुझे । कभी याद नहीं करते। मैंने तुमलोगों की जरूरत पूरी करनेके लिये कभी शंकर तेली से १४ रुपये उधार लिये थे। मैं उन रुपयोंको लौटा नहीं पाया। अब मैं उस ऋण को चुकानेके लिये शंकर तेली के बेटे के कोल्हूका बैल बनकर उस कर्जको उतार रहा हूँ। यदि तुम कर्ज चुका दो तो मेरी मुक्ति हो जायगी।’ इसी सपनेसे उद्वेलित होकर मैं शंकर तेली के घर पहुँचा। जब बैल ने कुछ ही देर बाद शिव-मन्दिरके दर्शन करनेके बाद प्राण त्याग दिये तो मुझे उस स्वप्नपर तनिक भी संदेह नहीं रहा।
हमारे धर्मशास्त्रों ने आत्मिक कल्याण के लिये ऐसे धार्मिक संस्कार बनाकर दृढ़ कर दिये थे कि सामान्य मनुष्य बेईमानी (जिसे वे लोग अधर्म कहते थे) करने की कल्पना भी नहीं करते थे। हमारे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट लिखा है-‘किसी का भी ऋण चुकाये बिना कल्याण सम्भव नहीं है। यदि किसी को अपने माता-पिता की मुक्ति के लिये गया-श्राद्ध करना है, तो सबसे पहले उसे अपने पिताका सारा ऋण चुकाना चाहिये। ऋण चुकाये बिना गयामें पितृ-श्राद्ध का कोई फल नहीं मिलता।
सनातनधर्मी हिन्दुओं के लिये चारों धामों की यात्रा, गङ्गास्नान, श्राद्ध आदि परम आवश्यक हैं। इनमें से कुछ कृत्य देवऋण तथा कुछ पितृ-ऋण से उऋण होने के लिये किये जाते हैं। गया का श्राद्ध पितृ-ऋण के परिहार का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कृत्य है। प्रत्येक सनातनधर्मी तबतक अपनेको पितृ-ऋण से मुक्त नहीं मानता, जबतक कि वह गया में जाकर पितृ-श्राद्ध नहीं कर लेता।
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