Last Updated on August 13, 2019 by admin
योग मार्ग के प्रबल प्रवर्तक योगी मत्स्येन्द्रनाथ की कथा :
“जहाँ दो कोस तक चारों ओर जनशून्य स्थान मिले, वहीं आसन लगा।” अपने समर्थ शिष्य को दीक्षा देने के बाद मत्स्येन्द्रनाथ जी ने आदेश दिया । यह हिमप्रान्त जनशून्य क्या प्राणिशून्य था । नेपाल में मुक्तिनाथ से काफी आगे दुर्गम पर्वतमालाओं में स्थित है यह शालिग्राम क्षेत्र । दामोदर कुण्ड के पास की इस भूमि को बरफ ने अपनी लम्बी-चौड़ी सफेद चादर से ढक रखा था ।
कितना कठिन है देहाध्यास । आज भी जहाँ जाने के लिए विशेष पोशाक, विशेष जूते और अनेकों औषधियाँ जरूरी पड़ती हैं । जहाँ आँखों पर चश्मे का नीलावरण न हो तो बर्फ पर प्रतिबिम्बित सूर्य की किरणें आधे क्षण में अन्धा बना दें । नासिका किसी चिकने लेप से ढकी न हो तो हिमदंश ने उसे कब गला दिया, पता ही न लगे। ऐसे विकट क्षेत्र में उन दिनों जो केवल काली कोपीन लपेटे नग्नदेह नंगे पाँव जा पहुँचा हो, उसकी कठिनाइयों का क्या ठिकाना ?
“बहुत बाधक है देह की अनुभूति ।”उन जैसे के लिए भी मन को देह से हटाकर एकाग्र कर पाना कठिन हो रहा था । प्राणायाम से प्राप्त उष्मा थोड़ी देर में चुक जाती । तब, ऐसा लगने लगता कि सर्दी हड्डी में बलात घुस कर उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर देगी । नाड़ियों के फटने की असह्यवेदना मन को चंचल होने के लिए विवश कर देती । पुनः प्राणायाम का सहारा लेना पड़ता।
“देह जब लक्ष्य की ओर जाने नहीं देती तब क्यों न देह को ही लक्ष्य बनाकर पहले उस ओर से निश्चिन्त हो लिया जाय ।’ सर्वथा नया नहीं था यह तर्क । अवधूत गुरु दत्तात्रेय ने रसेश्वर- सम्प्रदाय की स्थापना इसीलिए की थी और वह सिद्ध रसेन्द्र प्रक्रिया से अपरिचित न थे ।
शुभ्र शशांक धवल विप्र पारा आज अप्राप्य है और सुलभ कभी था ही नहीं । किन्तु महायोगी के लिए दुष्प्राप्य क्या ? रस प्रक्रिया आरंभ कर दी गयी। आधिदैविक शक्तियों ने स्वयं को असमर्थ पाया उस महासाधक के सामने । जहाँ छिद्र होता है, विघ्न वहीं आते हैं। प्रमादरहित पूर्व जागरूक गोरखनाथ के समीप विध्न कहाँ से जाते?
सहसा वह आसन से उठ खड़े हुए । उन्होंने जल और बिल्व पत्र हाथ में लिया । धरती और गगन को अपने पदाघात से पीड़ित करती भगवती छिन्नमस्ता दौड़ती आ रहीं थीं । ‘गोरखनाथ जी अत्यन्त विनीत स्वर में बोले “माता ! आप कोई रूप ले लें, अपने शिशु पर निष्करुण नहीं हो सकतीं।”
क्षण भर में चारों ओर शान्ति छा गई । महादेवी का हस्त स्थिति मस्तक गले पर आ लगा । उनके बगल में खड़ी दोनों मूर्तियाँ उनमें लीन हो गईं। वे दिगम्बरा निरूपा अब पाटल अरुण वस्त्रों में किंचित श्याम रंग लिए त्रिपुर भैरवी बन चुकी थीं।
“शंकर हृदि स्थिता करुणामयी अम्बे !” गोरखनाथ ने सविधि स्तवन किया । किन्तु वह रूप त्रिपुर सुन्दरी नहीं बना । कोई चिन्ता की बात नहीं थी । त्रिपुर भैरवी महाकाल शिव के हृदय में स्थित होने से अतिशय करुणामयी हैं । साधक के लिए सिद्धिप्रदा हैं ।
“तुमने महाशक्ति की अर्चना के बिना ही यह कर्म प्रारम्भ कर दिया । यह भी याद है तुम्हें कि समय कौन-सा है । इस समय रस सिद्धि कदाचित ही होती है । तुम केवल इसे अपने तीन शिष्यों को दे सकोगे ।” भगवती सीमा निर्धारित कर अन्तर्ध्यान हो गयीं ।
रस को संस्कारित करने का श्रम तथा संकट को जिसने स्वीकारा उस कौमारी शक्ति को तो वंचित नहीं किया जा सकता । सिद्ध रस के सेवन ने उन्हें अमर योगिनी बना दिया । विभिन्न योग सम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थों में अनेक नामों से उनका उल्लेख है।
रसेन्द्र का सेवन करके देह सिद्ध हो गई । अब उन्होंने फिर से दामोदर कुण्ड के पास एक हिमशिला पर आसन जमाया । प्रकृति की शक्तियाँ अब उनकी देह पर अपना प्रभाव छोड़ने में असमर्थ थीं। ध्यान में अब देह की बाधा नहीं थी।
“दम्भी कहीं का ?’ एक प्रबल अट्टहास के बीच गूंजते इन शब्दों ने उनका ध्यान तोड़ दिया । बिखरी जटाएँ, अंगार जैसी आँखें, दिगम्बर, मलिनकाय, भारी-भरकम डील-डौल वाला पागल इस निर्जन में कहाँ से आ गया । सबसे बड़ा आश्चर्य यह था कि वह अपना ध्यान किसी भी तरह नहीं जमा पा रहे थे। सैकड़ों वज्रध्वनियाँ करते शिलाखण्ड जहाँ थोड़ी-थोड़ी देर में टूटते हों, उस प्रचण्ड कोलाहल में सर्वथा अप्रभावित रहने वाले इस योगी को इस पागल के अट्टहास ने विचलित कर दिया था । उसे लगता था किसी ने उसके बल को बलपूर्वक बाहर निकाल कर पटक दिया है ।
“आप कौन हैं ?” गोरखनाथ जी ने पूछा । वे अपनी आँखों की पलकें भी नहीं झपका पा रहे थे ।
“अपने बाप का परिचय पूछता है, मूर्ख कहीं का ।” पागल ने हाथ की तलवार से उन पर प्रहार किया । किन्तु योगी की सिद्ध देह से टकराकर तलवार एक तीव्र झंकार ध्वनि के साथ पागल के हाथ से छूट कर दूर जा गिरी । उनके शरीर पर कोई चिह्न नहीं बना था ।
“दम्भी तेरा गुरु” यह पागल गुरुदेव को पता नहीं क्या अपशब्द कहेगा । गुरु के अपमान की संभावना को वह सहन नहीं कर पाये । उन्होंने झपट कर तलवार उठाई और पूरी ताकत से पागल पर चोट की । पर यह क्या ? आघात के वेग ने उन्हें स्वयं एक हिमशिला पर पटक दिया । पागल के शरीर में से तलवार ऐसे निकल गई, जैसे हवा में चलाई गयी हो ।
“आप कौन?” वह हतप्रभ थे, ऐसा कौन है जो उनकी सर्वज्ञ दृष्टि की पकड़ में नहीं आ रहा । “मैं झूठ नहीं कहता । अपने दम्भ के कारण तू अविश्वासी बन गया है ।” पागल का स्वरूप बदल गया और वह अपने गुरु को पहचान कर उनके चरणों में गिर पड़े।
आपको छोड़कर ऐसा शक्तिसपन्न धरती पर और कोई नहीं।” उनकी आँखों से झरती अश्रुधारा गुरु चरणों को धो रही थी। “वज्रदेह पाने का मेरा गर्व गल गया । मुझ पर अनुग्रह करें देव ! मेरा दम्भी।”
“माँ को अपने अबोध शिशु की चिन्ता रहती है और गुरु का हृदय माँ से भी कहीं ज्यादा ममत्त्व लिए होता है । तू क्या समझता है मत्स्येन्द्र अपना कर्त्तव्य भूल गया । एक बार जिसे शिष्य स्वीकार किया उसे परम सिद्धि तक पहुँचाना तो मेरा कर्तव्य था । तेरे हर क्रियाकलाप पर मेरी दृष्टि रही है । छिन्नमस्ता को तूने प्रसन्न कर लिया पर यदि चामुण्डा आती तो?”सचमुच आना तो चामुण्डा को था । उनकी वज्र देह पीपल के पत्ते की तरह काँप उठी । शिववत् ताण्डव करने वाली उग्र भैरवी को वे कैसे शान्त करते? वे तो कोई मर्यादा नहीं मानती।
“चामुण्डा पीठ से चला आ रहा हूँ मैं ।” गुरु हँसे ‘मेरी अर्चा की उपेक्षा वह नहीं कर सकती ।” शिष्य का मस्तक अपने समर्थ गुरु के चरणों पर था ।
“किन्तु तू दम्भी है” मत्स्येन्द्रनाथ कह रहे थे । “मेरी इच्छा थी कि तू इस निर्जन में थोड़े दिनों तप करता । तप अपार शक्ति का द्वार खोल देता है।”
‘दम्भ !’ गुरु मुख से अपने लिए अनेक बार निकले इस शब्द का आशय वह नहीं समझ पा रहे थे । दम्भ तो दूसरों के सामने अपना बड़प्पन दिखाने के लिए किया जाता है । इस निर्जन भूमि में उनके आचरण को कौन देखने वाला है ?
“तप का मूल है तितिक्षा और तितिक्षा कहते हैं शीत, उष्ण, सुख, दु:ख आदि द्वन्द्वों को प्रसन्नतापूर्वक सहन करने को । तितिक्षा की आग में पक कर शरीर और मन निद्वंद्व होते हैं । समत्व का परम लाभ प्राप्त करते हैं ।” मत्स्येन्द्र का स्वर खिन्न था । वज्रदेह से कौन-सा तप करेगा तू ? जब शरीर पर किसी सर्दी-गर्मी का प्रभाव ही नहीं है, तब यहाँ तेरा रहना तप का दम्भ नहीं तो और क्या है।”
वह चुप थे। उनके समीप कोई जवाब नहीं था । गुरु थोड़ा रुक कर बोले “मुझ से भी यही भूल हुई थी । व्योमदेह पाने के बाद मैं प्रसन्न हुआ था । अब जानता हूँ वह मेरी हार थी । माया ने मुझे देह की ओर आकृष्ट कर पंगु कर दिया ।”
“परमात्मसत्ता करुणा की निर्झरिणी है । देह को यदि वज्र या व्योम जैसा बनना जरूरी होता तो उसने ऐसा करने में संकोच न किया होता।” शिष्य की ओर देखते हुए परम गुरु बोले “देह की दुर्बलता कष्ट अनुभव करने की क्षमता ही मानव को तप एवं तितिक्षा के साधन देती है, जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि को बदल डालने की शक्ति है ।”
“अब से मेरी तरह संसार में रहकर लोक कल्याण के लिए स्वयं को नियोजित करो । मनुष्य जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए जो मान-अपमान सहना पड़े उसमें समान रहो । यह तुम्हारा-मानसिक तप है । शारीरिक तप के लिए तो तुमने स्वयं को अयोग्य बना लिया।” “महाशिव की इच्छा पूर्ण हो ।’
शिष्य गोरखनाथ गुरु के पीछे चल पड़ा । उसका मन तितिक्षा दुःख सम्मर्षः’ के सूत्र पर मनन करने में लग गया था । अब उसे बोध हो गया था कि कैसे वह अपने पथ से विचलित हो गया था । सही समय पर गुरु ने आकर उसे मार्गदर्शन न दिया होता तो संभवतः अपने ही अहंकार में चूर वह लक्ष्य से भटक कर न जाने किधर चल दिया होता ।
व्यावहारिक जीवन जीते हुए, संघर्ष करते हुए, दुःखों का सामना करते हुए जो तपकर कुन्दन की तरह दमकता है, वही सही अर्थों में तपस्वी है।
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