मासानुसार गर्भिणी परिचर्या ( Care During Pregnancy)

Last Updated on February 21, 2023 by admin

हर महीने में गर्भ-शरीर के अवयव आकार लेते हैं, अतः विकासक्रम के अनुसार हर महीने गर्भिणी को कुछ विशेष आहार लेना चाहिए।

पहला महीनाः गर्भधारण का संदेह होते ही गर्भिणी सादा मिश्रीवाला सहज में ठण्डा हुआ दूध पाचनशक्ति के अनुसार उचित मात्रा में तीन घंटे के अंतर से ले अथवा सुबह शाम ले। साथ ही सुबह 1 चम्मच ताजा मक्खन (खट्टा न हो) 3-4 बार पानी से धोकर रुचि अनुसार मिश्री व 1-2 काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर ले तथा हरे नारियल की 4 चम्मच गिरी के साथ 2 चम्मच सौंफ खूब देर तक चबाकर खाये। इससे बालक का शरीर पुष्ट सुडौल व गौरवर्ण का होगा।
इस महीने के प्रारम्भ से ही माँ को बालक में इच्छित धर्मबल, नीतिबल, मनोबल व सुसंस्कारों का अनन्य श्रद्धापूर्वक सतत मनन-चिंतन करना चाहिए। ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का सत्संग एवं उत्तम शास्त्रों का श्रवण, अध्ययन, मनन-चिंतन करना चाहिए।

दूसरा महीनाः इसमें शतावरी, विदारीकंद, जीवंती, अश्वगंधा, मुलहठी, बला आदि मधुर औषधियों के चूर्ण को समभाग मिलाकर रख लें। इनका 1 से 2 ग्राम चूर्ण 200 मि.ली. दूध में 200 मि.ली. पानी डाल के मध्यम आँच पर उबालें, पानी जल जाने पर सेवन करें।

तीसरा महीनाः इस महीने में दूध को ठण्डा कर 1 चम्मच शुद्ध घी व आधा चम्मच शहद (अर्थात् घी व शहद विषम मात्रा में) मिलाकर सुबह शाम लें।
उलटियाँ हो रही हों तो अनार का रस पीने तथा ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करने से वे दूर होती हैं।

चौथा महीनाः इसमें प्रतिदिन 10 से 25 ग्राम मक्खन अच्छे से धोकर, छाछ का अंश निकाल के मिश्री के साथ या गुनगुने दूध में डालकर अपनी पाचनशक्ति के अनुसार सेवन करें।
इस मास में बालक सुनने-समझने लगता है। बालक की इच्छानुसार माता के मन में आहार-विहार संबंधी विविध इच्छाएँ उत्पन्न होने से उनकी पूर्ति युक्ति से (अर्थात् अहितकर न हो इसका ध्यान रखते हुए) करनी चाहिए।
यदि गर्भाधान अचानक हो गया हो तो चौथे मास में गर्भ अपने संस्कारों को माँ के आहार-विहार की रुचि द्वारा व्यक्त करता है। आयुर्वेद के आचार्यों का कहना है कि यदि इस समय भी हम सावधान होकर आग्रहपूर्वक दृढ़ता से श्रेष्ठ विचार करने लगें और श्रेष्ठ सात्त्विक आहार ही लें तो आने वाली आत्मा के खुद के संस्कारों का प्रभाव कम या ज्यादा हो जाता है अर्थात् रजस, तमस प्रधान संस्कारों को सात्त्विक संस्कारों में बदल सकते हैं एवं यदि सात्त्विक संस्कारयुक्त है तो उस पर उत्कृष्ट सात्त्विक संस्कारों का प्रत्यारोपण कर सकते हैं।

पाँचवाँ महीनाः इस महीने से गर्भ में मस्तिष्क का विकास विशेष रूप से होता है, अतः गर्भिणी पाचनशक्ति के अनुसार दूध में 15 से 20 ग्राम घी ले या दिन में दाल-रोटी, चावल में 1-2 चम्मच घी, जितना हजम हो जाय उतना ले। रात को 1 से 5 बादाम ( अपनी पाचनशक्ति के अनुसार) भिगो दे, सुबह छिलका निकाल के घोंटकर खाये व ऊपर से दूध पिये।
इस महीने के प्रारम्भ से ही माँ को बालक में इच्छित धर्मबल, नीतिबल, मनोबल व सुसंस्कारों का अनन्य श्रद्धापूर्वक सतत मनन-चिंतन करना चाहिए। ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का सत्संग एवं उत्तम शास्त्रों का श्रवण, अध्ययन, मनन-चिंतन करना चाहिए। निम्नलिखित ‘हे प्रभु ! आनंददाता !….’ प्रार्थना आत्मसात् करे तो उत्तम है।

छठा व सातवाँ महीनाः इन महीनों में दूसरे महीने की मधुर औषधियों में गोखरू चूर्ण का समावेश करे व दूध घी से ले। आश्रमनिर्मित तुलसी-मूल की माला कमर में धारण करे।
छठे महीने से प्रातः सूर्योदय के पश्चात् सूर्यदेव को जल चढ़ाकर उनकी किरणें पेट पर पड़ें, ऐसे स्वस्थता से बैठ के उँगलियों में नारियल तेल लगाकर पेट की हलके हाथों से मालिश (बाहर से नाभि की ओर) करते हुए गर्भस्थ शिशु को सम्बोधित करते हुए कहेः ‘जैसे सूर्यनारायण ऊर्जा, उष्णता, वर्षा देकर जगत का कल्याण करते हैं, वैसे तू भी ओजस्वी, तेजस्वी व परोपकारी बनना।’
माँ के स्पर्श से बच्चा आनन्दित होता है। बाद में 2 मिनट तक निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए मालिश चालू रखें।

ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।। (यजुर्वेदः 36.3)
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर।।
(श्रीरामरक्षास्तोत्रम्- 37)

रामरक्षास्तोत्र के उपर्युक्त श्लोक में ‘र’ का पुनरावर्तन होने से बच्चा तोतला नहीं होता। पिता भी अपने प्रेमभरे स्पर्श के साथ गर्भस्थ शिशु को प्रशिक्षित करे।
सातवें महीने में स्तन, छाती पर पेट पर त्वचा के खिंचने से खुजली शुरु होने पर उँगली से न खुजलाकर देशी गाय के घी की मालिश करनी चाहिए।

इन महीनों में चावल को 6 गुना दूध व 6 गुना पानी में पकाकर घी डाल के पाचनशक्ति के अनुसार सुबह शाम खाये अथवा शाम के भोजन में दूध दलिये में घी डालकर खाये। शाम का भोजन तरल रूप में लेना जरूरी है।
गर्भ का आकार बढ़ने पर पेट का आकार व भार बढ़ जाने से कब्ज व गैस की शिकायत हो सकती है। निवारणार्थ निम्न प्रयोग अपनी प्रकृति के अनुसार करें-

आठवें महीने के 15 दिन बीत जाने पर 2 चम्मच एरण्ड तेल दूध से सुबह 1 बार ले, फिर नौवें महीने की शुरुआत में पुनः एक बार ऐसा करे अथवा त्रिफला चूर्ण या इसबगोल में से जो भी चूर्ण प्रकृति के अनुकूल हो उसका सेवन वैद्यकीय सलाह के अनुसार करे। पुराने मल की शुद्धि के लिए अनुभवी वैद्य द्वारा निरूह बस्ति व अनुवासन बस्ति ले।
चंदनबला लाक्षादि तेल से अथवा तिल के तेल से पीठ, कटि से जंघाओं तक मालिश करे और इसी तेल में कपड़े का फाहा भिगोकर रोजाना रात को सोते समय योनि के अंदर गहराई में लख लिया करे। इससे योनिमार्ग मृदु बनता है और प्रसूति सुलभ हो जाती है।

पंचामृत : 9 महीने नियमित रूप से प्रकृति व पाचनशक्ति के अनुसार पंचामृत ले।
पंचामृत बनाने की विधिः 1 चम्मच ताजा दही, 7 चम्मच दूध, 2 चम्मच शहद, 1 चम्मच घी व 1 चम्मच मिश्री को मिला लें। इसमें 1 चुटकी केसर भी मिलाना हितावह है।

गुण : यह शारीरिक शक्ति, स्फूर्ति, स्मरणशक्ति व कांति को बढ़ाता है तथा हृदय, मस्तिष्क आदि अवयवों को पोषण देता है। यह तीनों दोषों को संतुलित करता है व गर्भिणी अवस्था में होने वाली उलटी को कम करता है।
उपवास में सिंघाड़े व राजगिरे की खीर एवं फलों का सेवन करे।

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