Last Updated on July 22, 2019 by admin
मन क्या वस्तु है ? : man kya hai
यह आत्म और अनात्म पदार्थ के बीच में रहने वाली एक विलक्षण वस्तु है। यह स्वयं अनात्म और जड़ है परन्तु बंध और मोक्ष इसी के अधीन है। मन ही जगत् है, मन नहीं तो जगत् नहीं, मन विकारी है, इसका कार्य संकल्प विकल्प करना है। यह जिस पदार्थ को भली भाँति ग्रहण करता है, उसमें स्वयं भी तदाकार हो जाता है। यह राग के साथ ही चलता है, सारे अनर्थों की उत्पत्ति राग से होती है, राग न हो तो मन प्रपंचों की तरफ ही न जाय। किसी भी विषय में गुण और सौंन्दर्य देखकर उसमें राग होता है, इसी से मन उस विषय में प्रवृत्त होता है, परन्तु जिस विषय में इसे दु:ख और दोष दिखलाई पड़ते हैं उससे इसका द्वेष हो जाता है, फिर यह उसमें प्रवृत्त नहीं होता | यदि भूलकर हो भी जाता है तो उसमें अवगुण देखकर द्वेष से तुरन्त लौट आता है। वास्तव में द्वेष वाले विषय से भी इसकी प्रवृत्ति राग से ही होती है। साधारणतः यही मन का स्वरूप और स्वभाव है। अब विचार करने की बात यह है कि यह वश में कैसे हो? इसके लिए भगवान् ने जो उपाय बतलाए है वह हैं- अभ्यास और वैराग्य। महर्षि पतंजलि ने भी योगदर्शन में यही उपाय बतलाए हैं। अतएव इसी का विचार करना है। ( आइये जाने मन को नियंत्रित कैसे करें ,मन को कैसे जीते)
मन को वश में करने के उपाय : man ko vash me (shant) karne ke upay
(१) भोगों से वैराग्य
★ जब तक संसार की वस्तुयें सुन्दर और सुखप्रद मालूम होती हैं। तब तक मन उनमें जाता है, यदि यही सब पदार्थ दोषयुक्त और दु:खप्रद दिखने लगें (जैसे कि वह वास्तव में हैं) तो मन उनमें कदापि न लगेगा। यदि कभी इनकी ओर गया भी तो उसी समय वापस लौट आएगा। इसलिए संसार के सारे पदार्थों में (चाहे वह लौकिक हों या पारलौकिक) दु:ख और दोष की प्रत्यक्ष धारणा करना चाहिए। ऐसा दृढ़ विचार करना कि इन पदार्थों में केवल दोष और दु:ख ही भरे हुए हैं। रमणीय और सुखरूप दिखने वाली वस्तुओं में ही मन लगता है, यदि यह रमणीयता और सुखरूपता विषयों से हटकर परमात्मा में दिखलाई देने लगे (जैसा कि वास्तव में है) तो यही मन तुरन्त विषयों से हटकर परमात्मा में लग जाएगा। यही वैराग्य का साधन है और वैराग्य ही एक मात्र मन जीतने का सर्वोत्तम उपाय है।
★ सच्चा वैराग्य तो ससांर के इस दिखने वाले स्वरूप का सर्वथा अभाव और उसकी जगह परमात्मा का नित्य भाव प्रतीत होने में ही है, परन्तु आरम्भ में नये साधक को मन अपने वश में करने के लिए इस लोक और परलोक के समस्त पदार्थों में दोष और दु:ख देखना चाहिए, जिसमें मन का अनुराग उनसे हटे। इस सम्बन्ध में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि– इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में वैराग्य, अहंकार का त्याग, इस शरीर में जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग आदि दु:ख और दोष देखना चाहिए।’ (गीता १३/८) । इस प्रकार वैराग्य की भावना से मन वश में हो सकता है। यह तो वैराग्य का संक्षिप्त साधन हुआ, अब आगे अभ्यास दिए जाते हैं।
(२) नियम से रहना
मन को वश में करने के लिए नियम से रहने से बड़ी सहायता मिलती है। सब ठीक समय पर नियमानुसार करना चाहिए। दिन भर के कार्य को प्रातः काल उठते ही एक नियमित दिनचार्य बना लेना चाहिए जिससे जिस समय जो कार्य करना हो, मन अपने आप स्वभावत: ही उस समय उसी कार्य में लग जाय। अपने जिस इष्टदेव के ध्यान के लिए प्रतिदिन जिस स्थान, जिस आसन पर, जिस आसन से जिस समय और जितने समय बैठा जाय उसमें किसी दिन भी बिल्कुल ही असमर्थ न हो जाने के सिवाय चूकना न चाहिए। थोड़ी भी नियमित साधना अनियमित अधिक साधना से उत्तम है। अनियमित साधन से कभी सफलता नहीं मिल सकती। स्थान, आसन, समय, इष्ट और मंत्र को जहाँ तक हो सके बार-बार नहीं बदलना चाहिए। नियमितता से ही मन स्थिर होता है। बल्कि नियमों का पालन तो प्रतिदिन के कार्य, खाने, पीने, सोने आदि सभी कामों में अत्यन्त आवश्यक है। नियम अपनी सुविधा व शास्त्रानुसार बना लेना चाहिए।
(३) मन की क्रियाओं पर विचार
प्रतिदिन रात को सोते समय मन से प्रत्येक कार्य पर जो-जो आ सकें उसका विचार करना चाहिए और सात्विक विचारों व कार्यों के लिये उसकी प्रशंसा और राजसिक तथा तामसिक के लिये उसे धिक्कारना चाहिए। प्रतिदिन इस प्रकार के अभ्यास से मन पर सत्कार्य करने और असत्कार्य छोड़ने के संस्कार जमने लगेंगे व कुछ दिनों में मन बुराइयों से बचकर अच्छे कामों में लग जाएगा। इस तरह पहले वह भले कार्यवाला होने से उसे वश में करने में सुगमता होगी। विषय आदि चिन्तन करने वाले मन को एक साथ विषय रहित करना कठिन है, इसलिए पहले उसे बुरे विचारों से बचाना चाहिए, तब वह शुभ चिन्तन करने लगेगा और फिर उसको वश में करने में कठिनता न होगी।
(४) मन के कहने में चलना
मन जब तक अपने वश में न हो तब तक उसे अपना शत्रु समझना चाहिए और शत्रु की तरह उसके हर एक कार्य की कड़ी निगरानी रखाना चाहिए। जब वह कोई अनुचित विचार व कार्य करने लगे उसी वक्त उसे धिक्कारना चाहिए। उसकी खातिर व लिहाज भूलकर भी नहीं करना चाहिए। यद्यपि यह बड़ा बलवान् है, कई बार इससे हारना पड़ेगा, परन्तु साहस नहीं छोड़ना चाहिए। जो साहस व दृढ़ निश्चय के साथ कोई कार्य करता है वह अपने उद्देश्य में अवश्य सफल होता है। यह मन बड़ा चतुर भी है अतएव कभी यह डरावेगा, लालच देगा, अनेक रंग बतलावेगा परन्तु कभी इसके धोखे में न आना चाहिए। इस प्रकार कुछ दिनों में उसका साहस टूट कर सीधा-साधा आपकी आज्ञा पालन करने वाला विश्वासी सेवक बन जाएगा।
(५) मन को सत्कार्य में संलग्न रखना
मन कभी बेकार नहीं रह सकता, उसको कुछ न कुछ काम मिलना ही चाहिए, इसलिये उसे हमेशा काम में लगाए ही रहना चाहिए। बेकार रहने से ही खराब बातें सूझती है अतएव जब तक सो न जाय उस वक्त तक अच्छे कार्यों व विचारों में इसे लगाए रखना चाहिए। जागृत समय के सत्कार्यों के चित्र ही स्वप्न में दिखलाई पड़ते हैं। इसलिए भी बराबर अच्छे विचार ही करते रहना चाहिए।
(६) मन को परमात्मा में लगाना
भगवान् ने कहा है कि – ‘यह चंचल और अस्थिर मन जहाँ दौड़कर जाय वहाँ-वहाँ से इसे लौटाकर परमात्मा में ही लगाना चाहिए। (गीता ६/२६)
मन को वश में करने का अभ्यास करने पर पहले तो वह इतना जोर दिखलाता है कि अपनी चंचलता व शक्ति से ऐसी पछाड़ लगाता है कि नया साधक घबड़ा उठता है, उसके हृदय में निराशा सी छा जाती है, परन्तु साधक को अधीर नहीं होना चाहिए बल्कि दृढ़ता और धैर्य रखना चाहिए। मन का यह स्वभाव ही है इसलिए घबड़ाना नहीं चाहिये। साहस और धैर्य रखने से वह धीरे-धीरे एक दिन वश में हो जाएगा। इस सम्बन्ध में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि :-
धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त हो, धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को परमात्मा में स्थिर करके और किसी भी विचार को मन में न आने दें। (गीता ६/२५)
इस प्रकार की दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेना चाहिए कि किसी प्रकार भी वृथा व अनुचित विचार तथा मिथ्या संकल्पों को मन में नहीं आने दिया जाएगा। बड़ी चेष्टाओं और दृढ़ता रखने पर भी मन साधक की चेष्टाओं को कई बार व्यर्थ कर देता है। साधक जब कोई साधना करना चाहता है उस वक्त मन उसका अभ्यस्त न होने के कारण वह उन दृश्यों को जो कि संस्कार रूप से उस पर अंकित हैं सिनेमा की तरह क्षण क्षण में एक के बाद दूसरी फिल्म उपस्थित करने लगता है। उस समय ऐसी-ऐसी बातें व दृश्य उपस्थित होते हैं जो सांसरिक कार्यों के समय कभी याद नहीं आते थे, परन्तु इनसे चिन्तित नहीं होना चाहिए। जब अभ्यास का बल बढेगा तब मन को संसार से फुरसत मिलती है वह परमात्मा में लग जाएगा। जिस तरह वह अन्य बातों से हटाये नहीं हटता उसी तरह अभ्यास दृढ़ हो जाने पर वह परमात्मा के ध्यान से भी हटाये नहीं हटेगा।
वास्तव में वह सुख चाहता है जब तक इसे विषयों में सुख मिलता है तब तक वह उनमें लगा रहता है परन्तु जब इसे विषयों में दुःख और परमात्मा में सुख प्रतीत होने लगेगा तब वह स्वयं ही विषयों को छोड़कर परमात्मा की तरफ दौड़ेगा। अतएव जब तक ऐसा न हो उस वक्त तक निरन्तर अभ्यास करते ही रहना चाहिए। जिस-जिस कारण से मन सांसरिक बातों में जाय उस-उस कारण से उसे रोककर परमात्मा में स्थिर करे। उसके पीछे ऐसा पहरा लगा दे कि वह भाग ही न सके। यदि किसी प्रकार भी न माने तो फिर उसे भागने की पूरी स्वतन्त्रता दे दें, परन्तु जहाँ कहीं वह जाय वहीं परमात्मा की भावना की जाय, वहीं इसे परमात्मा के स्वरूप में लगाया जाय, इस उपाय से भी वह स्थिर हो जाता है।
(७) एक तत्व का अभ्यास
महर्षि पतंजलि योगदर्शन में लिखते हैं कि चित्त का विक्षेप दूर करने के लिए पाँच तत्त्वों में से एक तत्त्व का अभ्यास करना चाहिए अथवा एक वस्तु या किसी एक मूर्ति की तरफ़ एक दृष्टि से उस वक्त तक देखना चाहिए जब तक आँखों की पलकें न गिरें या आँखों में जल न आ जाय। धीरे-धीरे चिन्ह को छोटा करते जाना चाहिए और अन्त में उसे बिल्कुल ही हटा देना चाहिए और फिर बगैर चिन्ह के दृष्टि स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिदिन कम से कम आधा घंटा अभ्यास करने से दृष्टि स्थिर हो जाने पर मन की चंचलता जाती रहेगी। दोनों भ्रूमध्य के बीच में भी दृष्टि स्थिर करने का अभ्यास किया जा सकता है। इसको त्राटक कहते हैं।
(८) नाभि या नासिकाग्र में दृष्टि स्थापन
पद्मासन या सुखासन से बैठकर नाभि या नासिकाग्र पर इसी प्रकार एक मन से दृष्टि जमाकर उस वक्त तक देखते रहने से जब तक पलक न गिरें या आँखों में पानी न आ जाय देखते रहने से भी मन स्थिर होता है व ज्योति के दर्शन भी होते हैं।
(९) नाद श्रवण
कानों में अँगुली देकर शब्द सुनने का अभ्यास करना चाहिए। इसमें पहले भँवरों की गुंजार, पक्षियों के चुहचुहाने के शब्द, फिर क्रमशः घुँघरू, शंख, घंटा, ताल, मुरली, भेरी, मृदंग, नफीरी और सिंह गर्जन के दृश्य शब्द सुनाई पड़ते हैं। इस प्रकार के शब्द सुनाई पड़ने के बाद दिव्य ॐ शब्द का श्रवण होता है जिससे साधक समाधि को प्राप्त हो जाता है। यह मन के स्थिर करने का उत्तम साधन है।
(१०) ध्यान या मानस पूजा
सब जगह भगवान् के किसी नाम को लिखा हुआ समझकर बारम्बार उस नाम के ध्यान में मन लगानी चाहिए अथवा भगवान् के किसी स्वरूप विशेष की अन्तरिक्ष में मन से कल्पना कर उसकी पूजा करना चाहिए। पहले भगवान् की मूर्ति के एक-एक अंग का अलग-अलग ध्यान करे फिर पूरी मूर्ति का ध्यान करना व उसी में मन को अच्छी तरह स्थिर करना चाहिए। मूर्ति के ध्यान में इतना तन्मय हो जाना चाहिए कि संसार का भान ही न रहे। फिर कल्पना रूपी सामग्रियों से भगवान् की मानसिक पूजा करना चाहिए। प्रेमपूर्वक नियमित रूप से इस मानसिक ध्यान व पूजा से मन को स्थिर करने में बड़ी सहायता मिलती है।
(११) मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षा का व्यवहार
महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन में मन को स्थिर करने के लिए आगे लिखे उपाय भी बतलाए है।
सुखी मनुष्यों से प्रेम, दु:खियों के प्रति दया, पुण्यात्माओं के प्रति प्रसन्नता और पापियों के प्रति उदासीनता की भावना से चित्त प्रसन्न होता है अतएव
(१) ससांर के सारे सुखी जीवों के साथ प्रेम करने से चित्त का ईर्षामल दूर होता है व दाह की आग बुझती है, इससे दूसरों को सुखी देखकर जलन पैदा करने वाली वृत्ति का नाश होता जाएगा।
(२) दु:खी प्राणियों के प्रति दया करने से पर अपकार रूप चित्त मल नष्ट हो जाता है। दु:ख पीड़ित लोगों के दु:ख दूर करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने की प्रबल भावना से मन सदा प्रसन्न रह सकता है।
(३) धार्मिकों को देखकर हर्षित होने से दोषारोप नामक मन का असूया नामक मल नष्ट होता है व धार्मिक पुरुष की भाँति चित्त में धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है। असूया के नाश से चित्त शांत होता
(४) पापियों के प्रति उपेक्षा करने से चित्त का क्रोध रूप मल नष्ट होता है। पापों के, चिन्तन न होने से उनके संस्कार अन्त:करण पर नहीं पड़ते। किसी से भी घृणा न होने से चित्त शांत रहता है।
इस प्रकार इन चारों भावों के बारम्बार अनुशीलन से चित्त की राजस, तामस वृत्तियाँ नष्ट होकर सात्विक भावों का उदय होता है और चित्त प्रसन्न होकर शीघ्र ही एकाग्र होता है।
(१२) सद्ग्रन्थों का अध्ययन
भगवान् के उपदेश तथा चरित्र सम्बन्धी ग्रन्थों में अर्थात् उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत्, रामायण, आदि का अर्थ सहित अनुशीलन करने से वृत्तियाँ तदाकार होकर मन स्थिर हो जाता है।
(१३) प्राणायाम
मनु महाराज ने कहा है कि जिस प्रकार अग्नि से तपाये जाने पर धातु का मल जल जाता है उसी प्रकार प्राणवायु के निग्रह (प्राणायाम) से इन्द्रियों के सारे दोष दग्ध हो जाते हैं। प्राणों को रोकने से ही मन रुकता है। मन सवार है तो प्राण वाहन है। मन को रोकने से दोनों रुक सकते हैं। समाधि से भी मन रुकता है। प्राणायाम समाधि के साधनों का एक मुख्य अंग है।
(१४) श्वास के द्वारा नाम जप
मन को रोककर परमात्मा में लगाने का एक और भी अत्यंत सरल उपाय है जिसको सभी लोग कर सकते हैं। वह है श्वास प्रश्वास की गति पर ध्यान रखकर श्वास के द्वारा श्री भगवान् के नाम का जप करना। यह अभ्यास उठते, बैठते, खाते, पीते, चलते-फिरते प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है। श्वास के साथ जप करते समय चित्त में अत्यन्त प्रसन्नता व आनन्द होना चाहिए। इसके साथ ही भगवान् को अत्यन्त समीप जानकर उनके स्वरूप का ध्यान भी करते रहना चाहिए। इस भाव से संसार की सुध भुलाकर मन को परमात्मा में लगाना चाहिए।
(१५) मन के कार्यो को देखना
मन को वश में करने का एक बड़ा उत्तम साधान है मन से अलग होकर निरतंर मन के कार्यों को देखते रहना। जब तक हम मन के साथ मिले हुए हैं तभी तक मन में इतनी चंचलता है। जिस समय हम उसके दृष्टा बन जाते हैं उसी समय मन की चंचलता मिट जाती है। वास्तव में तो मन से हम सर्वथा भिन्न ही हैं। जिस समय मन में कोई नया संकल्प होता है, उसका पूरा पता हमें रहता है। यदि साधक अपने को निरन्तर अलग रखकर मन की क्रियाओं का दृष्टा बनकर देखने का अभ्यास करे तो मन बहुत ही शीघ्र संकल्प रहित हो जाता है।
(१६) भगवन्नाम कीर्तन
भगवान् चैतन्यदेव ने बतलाया है कि मग्न होकर उच्च स्वर से परमात्मा का नाम और गुण कीर्तन करने से भी मन परमात्मा में स्थिर हो सकता है। भक्त जब प्रभु का नाम कीर्तन करते-करते गद्गद् कंठ, रोमांचित और अश्रुपूर्ण नेत्रों में प्रेमावेश में अपने आपको सर्वथा भुलाकर केवल प्रेमिक परमात्मा के रूप में तन्मयता प्राप्त कर लेता है तब भला मन को जीतने में और कौन-सी बात बाकी रह जाती है। अतएव भगवान् का प्रेमपूर्वक नाम कीर्तन करना मन पर विजय पाने का एक अत्युत्तम साधन है।
इस प्रकार मन को रोककर परमात्मा में लगाने के अनेक साधन और युक्तियाँ हैं। इनमें से या अन्य किसी भी युक्ति से किसी प्रकार से भी मन को विषयों से हटाकर परमात्मा में लगाने की पूरी चेष्टा करना चाहिए। मन को स्थिर किये बिना कोई भी साधन नहीं हो सकता। अतएव प्राणायम से मन को स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिए। अब तक जो इस मन को स्थिर कर सके हैं वे ही आत्मा व भगवान् श्याम सुन्दर के दर्शन कर अपना जन्म और जीवन सफल कर सके हैं।
यही योग साधन का चरम फल है अथवा यही परम योग है।
विशेष : मन को नियंत्रित और संयमी बनाने के लिए “ईश्वर की ओर ” और ” मन को सिख ” ग्रंथो को पढना चाहिये |
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