Last Updated on November 15, 2019 by admin
वैज्ञानिक कारण-
शरीर हारमोनो से संचालित है
हारमोन वह केमिकल हैं जो शरीर से ही स्रावित होते हैं और इसी में अवशोषित होकर इसे प्रभावित कर देते हैं, यह प्रभाव चिरस्थाई होता है. इस प्रभाव को किसी प्रकार मिटाया नही जा सकता. जब हमारी ह्त्या होती है तो हम विषाक्त हारमोन छोड़ते हैं क्यूँ की हमारा मन भय, यंत्रणा और विषाद से भरा होता है. यही सत्य है पशुओ के साथ. एक पशु जब मरता है तो उसके भीतर विषाक्त हारमोन निकल कर उसके मांस में जज्ब हो जाते हैं. पशु समूह में रहते हैं और नित्य अपने साथी को ह्त्या होते महसूस करते हैं. यह हारमोन अनेक दफा रिस-रिस कर उनके मांस में मिल चुका होता है. यह हारमोन विकार, भय, विषाद और भयानक यंत्रणा का परिणाम है और भोजन द्वारा मांसाहारी के शरीर में पहुँच कर वही भाव उत्पन्न करेगा. मांसाहारी स्वयं को हिंसक होने से नही रोक सकता, वह भय ग्रस्त होता है, अवसाद उसकी प्रवृति होती है. क्रोध का वह दास हो जाता है और अनेक व्याधियां उसे घेर लेती हैं . आप मांस खाने के बाद कभी उत्फुल और हल्का अनुभव नही कर सकते .. मांस खाने के बाद एक नकारात्मक भाव हमेशा घेरता है यह उन जहरीले हारमोनो के कारण है.
शारीरिक कारण-
मनुष्य का पेट शाकाहार के लिए उपयुक्त है. मानव आंत लम्बी है और यह प्राथमिक आहार के लिए बनाई गयी है. मांस द्वितीयक आहार है .. द्वितीयक आहार का अर्थ है यह पशुओ द्वारा पहले ही पचाया जा चुका है. मांस पुनः हमारे अमाशय में जाता है और यह प्राथमिक आहार की भाँती यंत्र में यात्रा करता है .. अंत कन्फ्यूज हो जाती है. मांस जल्दी पच जाता है लेकिन आँतों में अनेक मेटाबोलिक विकार पैदा करता है. जैसे गैस, एसिडिटी, अल्सर, अपच, कब्ज, आदि. यह शरीर के कन्फ्यूजन के कारण होता है. मांसाहारी पशुवों का अमाशय हमेशा छोटा होता है. जैसे शेर, चीता, मगर आदि का पेट कभी बड़ा नही
आध्यात्मिक कारण-
मानव पंचेन्द्रिय है. अर्थात उसके पास पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं. जैन धर्म में इसका गहनतम शोध हुआ है . इसी प्रकार पशु चात्रुरेंद्रिय हैं, पौधे द्वेन्द्रिय हैं और पत्थर जड़ आदि एकेंद्रिय हैं. लोग कहते हैं की आखिर पौधों में भी तो जान है तो क्या वह ह्त्या नही हुई?
हमे कम हिंसा और अधिक हिंसा में चुनना है. हिंसा का प्रश्न बाद में है हमारी संवेदना का प्रश्न पहले है. हम हिंसा न भी करे तो भी मृत्यु होती ही है लेकिन हिंसा करके हम कर्मो का जो जाल बनाते हैं वह हमे भुगतान करना पड़ता है. साधारण जीवन में हम कम भुगतान करके अच्छी चीज़ें खरीदते हैं. जैसे टी वी हम वही लेते हैं जो कम मूल्य में अधिक गुणवत्ता पूर्ण हो.. इसी भाँती यदि हम चतुरेंद्रिय की बजाय द्विएन्द्रिय का आहार करेंगे तो यह कम भूगतान में काम चल जाएगा. इससे हिंसा नही होगी. कारण यह है की हमने अपनी संवेदना का विकास किया. इसी लिए धर्मो ने शाकाहार पर इतना जोर दिया है. उपरोक्त विषाक्तता से भी बच जायेंगे और एक अन्य महत्वपूर्ण अंतर यह है की अन्न या वृक्ष का बीज उनके मृत्यु के बाद भी काम आता है. धान का पौधा जो बीज देगा वह धान के काटने के बाद भी काम आएगा. पशु के सन्दर्भ में ऐसा नही है. पशु एक जटिल संरचना है.जो जीवन की मुक्ति में उत्सुक है वह जटिलता से सहजता की तरफ अभियान करता है. कर्म्बंधों का जाल नही निर्मित करता है.