Last Updated on November 15, 2019 by admin
अपने सदगुरु की प्रसन्नता के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान करने का सामर्थ्य रखने वाले शिवाजी धन्य हैं।
“भाई शिवाजी राजा हैं, छत्रपति हैं इसीलिए गुरुजी हम सबसे ज्यादा उन पर प्रेम बरसाते हैं।” शिष्यों का यह वार्तालाप अनायास ही समर्थ रामदास स्वामी जी के कानों में पड़ गया। समर्थ ने सोचा कि ʹउपदेश से काम नहीं चलेगा, इनको प्रयोगसहित समझाना पड़ेगा।ʹ
एक दिन समर्थ ने लीला की। वे शिष्यों को साथ लेकर जंगल में घूमने गये। तब अचानक समर्थ को पेटदर्द शुरु हुआ। शिष्यों के कंधे के सहारे चलते हुए किसी तरह समर्थ एक गुफा में प्रवेश करते ही जमीन पर लेट गये एवं पीड़ा से कराहने लगे। सभी ने मिलकर गुरुदेव से उस पीड़ा का इलाज पूछा।
समर्थ ने कहाः “इस रोग की एक ही औषधि है – शेरनी का दूध !” सब एक दूसरे का मुँह ताकते हुए सिर पकरड़कर बैठ गये।
उसी समय शिवाजी अपने गुरुदेव के दर्शन करने आश्रम पहुँचे। यह पता चलने पर कि गुरुदेव शिष्यों के साथ जंगल की ओर गये हैं, शिवाजी जंगल की ओर निकल पड़े। खोजते-खोजत मध्यरात्रि हो गयी किन्तु उन्हें गुरु जी के दर्शन नहीं हुए। इतने में एक करुण स्वर वन में गूँजाः “अरे भगवान ! हे रामरायाઽઽઽ…. मुझे इस पीड़ा से बचाओ।”
ʹयह तो गुरु जी की वाणी है !ʹ शिवाजी घोड़े से उतरे और अपनी तलवार से कँटीली झाड़ियों को काटकर रास्ता बनाते हुए गुफा तक पहुँच गये।
उन्होंने गुरुजी को पीड़ा से कराहते और लोटपोट होते देखा। शिवाजी की आँखें आँसुओं से छलक उठीं और वे उनके चरणों में गिर पड़े। शिवाजी से पूछाः “गुरुदेव ! आपको यह कैसी पीड़ा हो रही है ? कृपा करके मुझे इसकी औषधि का नाम बताइये। शिवा आकाश-पाताल एक करके भी वह औषधि ले आयेगा।”
“शिवा ! इस रोग की एक ही औषधि है – शेरनी का दूध ! लेकिन उसे लाना माने मौत को निमंत्रण देना।”
“गुरुदेव ! जिनकी कृपादृष्टिमात्र से हजारों शिवा तैयार हो सकते हैं, ऐसे समर्थ सदगुरु की सेवा में एक शिवा की कुर्बानी हो भी जाय तो कोई बात नहीं। नश्वर देह को तो एक बार जला ही देना है। ऐसी देह का मोह कैसा ? गुरुदेव ! मैं अभी शेरनी का दूध लेकर आता हूँ।”
शिवाजी गुरु को प्रणाम करके पास में पड़ा हुआ पात्र लेकर चल पड़े। सत्शिष्य की कसौटी करने प्रकृति ने भी मानो कमर कसी और आँधी तूफान के साथ जोरदार बारिश शुरु हुई।
जंगल में बहुत दूर जाने पर शिवा को अँधेरे में चमकती हुई चार आँखें दिखीं। वे समझ गये कि ये शेरनी के बच्चे हैं, अतः शेरनी भी कहीं पास में ही होगी। शिवा के कदमों की आवाज सुनकर पास में ही बैठी शेरनी क्रोधित हो उठी। उसने शिवा पर छलाँग लगायी परंतु कुशल योद्धा शिवा ने अपने को शेरनी के पंजे से बचा लिया। परिस्थितियाँ विपरीत थीं। शेरनी क्रोध से जल रही थी।
शिवा शेरनी से प्रार्थना करने लगे कि ʹहे माता ! मैं तेरे बच्चों का अथवा तेरा कुछ बिगाड़ने नहीं आया हूँ। मेरे गुरुदेव को हो रहे पेटदर्द में तेरा दूध ही एकमात्र इलाज है। मेरे लिए गुरुसेवा से बढ़कर इस संसार में दूसरी कोई वस्तु नहीं। हे माता ! मुझे मेरे सदगुरु की सेवा करने दे। तेरा दूध दुहने दे।ʹ
पशु भी प्रेम की भाषा समझते हैं। शिवाजी की प्रार्थना से एक महान आश्चर्य घटित हुआ – शिवाजी के रक्त की प्यासी शेरनी उनके आगे गौमाता बन गयी ! शिवाजी ने शेरनी के शरीर पर प्रेमपूर्वक हाथ फेरा और वे शेरनी का दूध निकालने लगे। दूध लेकर शिवा गुफा में आये।
समर्थः “आखिर तू शेरनी का दूध भी ले आया शिवा ! जिसका शिष्य गुरुसेवा में अपने जीवन की बाजी लगा दे, प्राणों को हथेली पर रखकर मौत से जूझे, उसके गुरु का पेटदर्द कैसे रह सकता है ? मेरा पेटदर्द तो जब तू शेरनी का दूध लेने गया, तभी अपने-आप शांत हो गया था। शिवा तू धन्य है ! धन्य है तेरी गुरुभक्ति !” ऐसा कहकर समर्थ ने शिवाजी के प्रति ईर्ष्या रखने वाले शिष्यों के सामने अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा। ʹगुरुदेव शिवाजी को अधिक क्यों चाहते हैं ?ʹ – इसका रहस्य उनको समझ में आ गया।
धन्य हैं ऐसे सत्शिष्य ! जो सदगुरु के हृदय में अपना स्थान बनाकर अमर पद प्राप्त कर लेते हैं… धन्य है भारत माता ! जहाँ ऐसे सदगुरु और सत्शिष्य पाये जाते हैं।
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