Last Updated on April 17, 2020 by admin
बार बार प्यास लगना (गला सुखना / तृषा रोग ) क्या है :
शारीरिक श्रम करने पर तृषा अर्थात् प्यास की इच्छा होती है। तृषा होने पर सभी छोटे-बड़े के लिए जल पीना आवश्यक हो सकता है। जल जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। स्वास्थ्य के संतुलन को बनाए रखने के लिए चिकित्सा विशेषज्ञ दिन में 15-20 गिलास जल पीने का परामर्श देते हैं। जल भोजन की पाचन क्रिया को सरल बनाता है और मूत्र व पसीने द्वारा शरीर के दूषित तत्त्वों को शरीर से निष्कासित करता है।
शीत ऋतु की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु में तृषा (बार बार प्यास) की अधिक विकृति देखी जाती है। बार-बार शीतल जल पीने पर भी तृषा शांत नहीं होती। किसी भी स्त्री-पुरुष के साथ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने का अर्थ होता है तृषा रोग।
तृषा रोग में रोगी को बहुत प्यास लगती है। जल्दी-जल्दी जल पीने के बाद भी तृषा शांत नहीं होती। तृषा के कारण रोगी बेचैन हो जाता है। तृषा के कारण रोगी का कण्ठ शुष्क हो जाता है। आयुर्वेद चिकित्सा में तृषा के संबंध में लिखा है, ‘सततं यः पिंवेद्वारिन तृप्तिमधिगच्छति। पुनः कांक्षति तोयंच तं तृष्णार्दितनादिशेत।।’ (सू.उ.अं. 48) जब बार-बार जल पीने से प्यास शांत न हो पाए तो उस स्थिति को तृषा कहते हैं।
अत्यधिक प्यास लगने (तृषा रोग) के कारण : gala kyu sukhta hai / karan
- भोजन में कुछ उष्ण खाद्य पदार्थ होते हैं। पाचन क्रिया के समय शरीर में अधिक उष्णता उत्पन्न होती है। और उस उष्णता को शांत करने के लिए शरीर को जल की आवश्यकता होती है। विभिन्न कारणों से तृषा की उत्पत्ति होती है।
- अधिक शारीरिक श्रम करने से अधिक प्यास लगती है। शुष्क व रुक्ष खाद्य पदार्थों के सेवन से अधिक तृषा की उत्पत्ति होती है।
- चिकित्सा विशेषज्ञ शोक, चिंता और भय की परिस्थितियों में अधिक तृषा होने की बात कहते हैं।
- ग्रीष्म ऋतु में अधिक पसीने आने से शरीर में जल की कमी हो जाने पर अधिक प्यास लगती है।
- छोटे बच्चे जब दौड़ने के खेल खेलते हैं तो उन्हें अधिक प्यास लगती है।
- अधिक उपवास किए जाने पर तृषा अधिक उत्पन्न होती है।
- अधिक उष्ण मिर्च-मसालों व अम्लीय रसों से बने खाद्य पदार्थों का सेवन करने से अधिक प्यास लगती है।
- कुछ अन्य चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार अग्न्याशय की विकृति होने पर जब मधुमेह रोग की उत्पत्ति होती है तो रोगी को अधिक ।
- प्यास लगती है। बार-बार जल पीने पर भी तृषा शांत नहीं होती।
- भोजन में पित्तकारक खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन करने से अधिक तृषा और जलन की उत्पत्ति होती है।
- अधिक उष्ण वातावरण में रहने और धूप में चलने-फिरने से अधिक तृषा की विकृति होती है।
- मादक द्रव्यों व धूम्रपान करने वालों को अधिक प्यास लगती है।
- ऐसा ही रक्तस्राव होने पर होता है। शरीर में रक्ताल्पता होने पर अधिक प्यास लगती है।
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तृषा रोग के लक्षण : bar bar pyas lagne ke lakshan
जल पीने के बाद दो-तीन घण्टों के लिए जल की इच्छा अर्थात् तृषा शांत हो जाती है। लेकिन 30-40 मिनट बाद ही जल पीने की इच्छा होने लगे तो उसे तृषा रोग कहा जाता है। तृषा के रोगी को 30-40 मिनट के अंतराल से जल पीने की इच्छा होती है। यदि उसे जल न मिले तो वह बेचैन होने लगता है। उसके मुंह और कण्ठ में शुष्कता की उत्पत्ति होती है। होंठ भी शुष्क होने लगते हैं।
तृषा रोग में जल पीने के बाद भी अतृप्ति’ बनी रहती है। जल पीने के कुछ देर बाद ही कण्ठ, होंठ, जीभ पर शुष्कता के लक्षण स्पष्ट होने लगते हैं। जल की इच्छा रोगी को बेचैन सी करने लगती है। ऐसे में रोगी को हृदय की निर्बलता भी अनुभव होने लगती है। ग्रीष्म ऋतु में सभी छोटे-बड़े तृषा से अधिक पीड़ित दिखाई देते हैं। ग्रीष्म ऋतु में उष्णता के कारण अधिक पसीने आने से शरीर में जल की कमी हो जाती है। ऐसे में शरीर को जल की अधिक आवश्यकता होती है। जल की पूर्ति के लिए अधिक प्यास लगती है, लेकिन तृषा रोग के कारण शीत ऋतु में भी 30-40 मिनट के अंतराल से बार-बार जल पीने की इच्छा होती रहती है।
तृषा रोग के प्रकार :
आयुर्वेदाचार्यों ने तृषा के भेदों के अनुसार अलग-अलग लक्षणों का वर्णन किया है। वात, पित्त, कफ दोषों के अनुसार तृषा को वातज, पित्तज, कफज, क्षतज, आमज और भक्तज आदि भेदों में विभक्त किया है। महर्षि चरक वातज, पित्तज, आमज, क्षयज और उपसर्गज, पांच ही भेद मानते हैं। वाग्भट्ट ने वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, रसक्षयज और उपसर्गज, केवल 6 भेद ही स्वीकार किए हैं।
1) वातज तृषा : वातज तृषा में रोगी मस्तिष्क में पीड़ा का अनुभव करता है। उसका चेहरा निस्तेज दिखाई देता है और कनपटी पर सरसराहट होती है। जल वाहिनी नाड़ियों में अवरोध, मुंह में किसी चीज का वास्तविक स्वाद अनुभव नहीं होता। कण्ठ और तालु में अधिक शुष्कता अनुभव होती है। शीतल जल पीने से तृषा की अधिक इच्छा होती है। तृषा रोगी अनिद्रा अर्थात् नींद नहीं आने से पीड़ित होता है।
2) पित्तज तृषा : पित्तज तृषा की अधिकता के कारण रोगी में मूर्च्छा के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। भोजन में अरुचि होती है। नेत्रों में लालिमा और जलन होती है। रोगी को शीतल जल की प्रबल इच्छा होती है और रोगी शीतल वायु के वातावरण में जाना पसंद करता है। मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है। अधिक उष्णता के कारण जल की प्रबल इच्छा होने पर जल नहीं मिल पाने पर रोगी प्रलाप करने लगता है। रोगी के मल-मूत्र में भी पीलापन देखा जा सकता है।
3) कफज तृषाः जब कोई व्यक्ति शीतल, मधुर, अम्ल व लवण आदि रसों के खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन करता है और अजीर्ण के कारण जठराग्नि कफ से आच्छादित होने पर कफज तृषा की उत्पत्ति उसे अधिक पीड़ित करती है। कफज तृषा में रोगी को अधिक नींद आती है। हर समय शरीर में आलस्य बना रहता है। अरुचि, अपचन, मुंह में कफ आने, शरीर में भारीपन और बार-बार कण्ठ शुष्क होने के लक्षण दिखाई देते हैं।
4) क्षतज तृषाः क्षतज तृषा की उत्पत्ति किसी दुर्घटना या अन्य किसी कारण से चोट लग जाने पर अधिक रक्तस्राव हो जाने अर्थात् शरीर में आकस्मिक रूप से रक्त की अत्यधिक कमी हो जाने से होती है। रक्ताल्पता रोग में भी शरीर में रक्त की अधिक कमी होती है तो रोगी बार-बार जल की इच्छा करता है। मधुमेह रोग में अधिक शारीरिक निर्बलता के कारण रोगी जल पीता है।
5) रसक्षयज तृषा: शरीर में विभिन्न कारणों से रस धातु के क्षय (नष्ट) होने से जब तृषा की उत्पत्ति हो तो उसे क्षयज तृषा कहा जाता है। क्षयज तृषा में हृदय में पीड़ा, शरीर में कंपन, शोष और शून्यता के लक्षण होते हैं। बार-बार जल पीने के बाद भी तृषा (प्यास) शांत नहीं होती। |
6) आमज तृषाः पाचन क्रिया की विकृति होने पर भी कोई व्यक्ति यदि हर समय कुछ-न-कुछ खाता रहे तो वह अजीर्ण रोग से पीड़ित होता है। अजीर्ण की विकृति के कारण भोजन पूरी तरह पच नहीं पाता और आंव के रूप में आमाशय में बना रहता है। ऐसे में उत्पन्न तृषा आमज कहलाती है। आमज तृषा में रोगी हृदय में शुल, मुंह में बार-बार थूक आने, कफ आने और पेट में अफारा होने से पीडित होता है। ऐसे में जठराग्नि अधिक क्षीण हो जाती है।
7) भक्तज तृषाः जब कोई व्यक्ति अधिक स्निग्ध, उष्ण, लवणयुक्त, चटपटे, अम्लीय, खाद्य पदार्थों का सेवन करता है तो भक्तज तृषा से पीड़ित होता है। भक्तज तृषा में रोगी को अधिक जल पीने की इच्छा होती है। कुछ चिकित्सक भक्तज तृषा को रोग नहीं मानते, इसे प्राकृतिक तृषा स्वीकार करते हैं।
8) आकस्मिक तृषा: कुछ रोगों के कारण स्त्री-पुरुष, बच्चे व प्रौढों को अधिक तृषा की विकृति होती है। ग्रीष्म ऋतु में अधिक उष्णता के कारण तृषा अधिक बढ़ जाती है। अधिक धूप में चलने-फिरने से आकस्मिक रूप से बहुत प्यास लगती है। अतिसार व वमन होने पर तृषा की अधिकता बढ़ जाती है। बीड़ी-सिगरेट, चाय-कॉफी और मांस-मछली खाने वालों को दूसरों की अपेक्षा अधिक प्यास लगती है, लेकिन इसको तृषा रोग नहीं कहा जा सकता।
बार बार प्यास लगने पर घरेलू उपचार : bar bar gala sukhna ka ilaj
तृषा की उत्पत्ति के कारण को जान लेने के बाद उसकी चिकित्सा सरल हो जाती है। ग्रीष्म ऋतु में उष्णता की अधिकता के कारण सभी छोटे-बड़े को तृषा अधिक पीड़ित करती है। शीतल जल के सेवन से तृषा शांत होती है। शीतल जल से हाथ-पांव और चेहरे को साफ करने से तृषा का प्रकोप कम होता है। शीतल जल में नीबू का रस और थोड़ी-सी चीनी या शक्कर मिलाकर, शिकंजी बनाकर पीने से ग्रीष्म ऋतु में तृषा का निवारण होता है।
वातज तृषा की चिकित्सा : gala sukhne ka ilaj
- जब यह ज्ञात हो जाए कि रोगी वातज तृषा से पीड़ित है तो उसको वात-पित्त शामक औषधियों का सेवन कराकर वातज तृषा का निवारण किया जाता है।
- दो-दो तोले गिलोय का रस दो-दो घण्टे के अंतराल से वातज तृषा से पीड़ित रोगी को पिलाने से तुरंत तृषा का निवारण होता है। दिन में दो-तीन बार पिला सकते हैं।
- कुश, कास, शर, दर्भ और ईख, इन पंच तृणों की जड़ को जल में उबाल कर, क्वाथ बनाकर छानकर पिलाने से तृषा का अंत होता है।
- दही और गुड़ मिलाकर रोगी को सेवन कराने से वातज तृषा नष्ट होती है।
- घी को हल्का-सा गरम करके रोगी को 10-10 ग्राम मात्रा में पिलाने से वातज तृषा के कारण तालु में उत्पन्न शुष्कता नष्ट होती है। तृषा की अधिकता से मूर्छित रोगी को घी नहीं पिलाना चाहिए।
पित्तज तृषा कि चिकित्सा : muh sukhne ka ilaj in hindi
- पित्तज तृषा में ऐसी औषधियों का सेवन कराना चाहिए जो शरीर में स्थित पित्त को शांत रख सकें। पित्तनाशक औषधियों से सिद्ध दूध व शीत कषाय के सेवन से पित्तज तृषा का निवारण होता है।
- गन्ने के रस में थोड़ा-सा नींबू का रस मिलाकर दिन में दो-तीन बार रोगी को पिलाने से पित्तज तृषा नष्ट होती है।
- मुलहठी, महुए के फूल, चंदन का चूरा, सारिवा, लाल चंदन का चूरा, गंभीरी के फल और नेत्रबाला का शीत कषाय(काढ़ा) बनाकर रोगी को पिलाने से पित्तज तृषा नष्ट होती है।
- सब तरह के कमल के फूल 30 ग्राम मात्रा में लेकर उसमें मुलहठी 6 ग्राम मिलाकर शीत कषाय(काढ़ा) बनाकर रोगी को पिलाएं। पित्तज तृषा से मुक्ति मिलेगी।
- गूलर के पके हुए फलों का रस या गूलर की जड़ का रस मिश्री के साथ मिलाकर पिलाने से पित्तज तृषा नष्ट हो जाती है।
- नीम की पतली सींकें 40 ग्राम मात्रा में लेकर उसमें काली मिर्च का चूर्ण 10 ग्राम मिलाकर जल के साथ पीस लें। इस मिश्रण की आधे-आधे ग्राम की गोलियां बनाकर सुखा कर रखें। तृषा की विकृति होने पर दो-दो गोली जल के साथ सेवन करने से रोग नष्ट होता है।
- चंदन का शरबत या नीबू के रस से बनी शिकंजी बनाकर पिलाने से पित्तज तृषा शांत होती है।
- नीम, अडूसा के पत्तों का रस, परवल जल में मिलाकर पिलाने से रोगी को वमन कराने से शरीर में एकत्र पित्त सरलता से निकल जाता है। इसके बाद रोगी को सोंठ, मिश्री, धनिया और नीम की अंतर छाल का क्वाथ बनाकर पिलाने से तृषा नष्ट होती है।
- रात्रि को धनिया जल में मिलाकर रख दें। सुबह उठकर, धनिए को मसलकर जल को कपड़े द्वारा छान लें। इसको पीने से पित्तज तृषा शांत होती है।
कफज तृषा की चिकित्सा : gala sukhna upay in hindi
- कफज तृषा की विकृति में रोगी को नीम के क्वाथ से वमन कराकर औषधियों का सेवन कराना चाहिए।
- जीरा, अदरक और काला नमक को देर तक जल में उबालकर क्वाथ बनाएं। इस क्वाथ को छानकर रोगी को पिलाने से कफज तृषा नष्ट होती है।
- बेल की छाल, पीपल, पीपलामूल, चित्रक, सोंठ, धाय के फूल, चव्य और अरहर, इन सब चीजों को जल में उबालकर क्वाथ बनाएं। फिर इस क्वाथ को छानकर सेवन करें। कफज तृषा का निवारण होता है।
- ठण्डे दूध में थोड़ी-सी काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर रोगी को पिलाने से कफज तृषा नष्ट हो जाती है।
क्षयज तृषा की चिकित्सा : gala sukhna pyas lagne ka upchar
- दूध, गन्ने का रस, मधु मिलाकर जल पिलाने से तृषा नष्ट होती है।
- स्वर्ण से निर्मित वर्क 2 ग्राम मधु के साथ अच्छी तरह मिलाकर चाटकर खिलाने से तृषा नष्ट होती है।
- दूध को उबालकर उसमें मधु मिलाकर, शीतल होने पर पिलाने से क्षयज तृषा नहीं होती।
- मधु और जल मिलाकर पिलाने से भी क्षयज तृषा का निवारण होता है।
क्षतज तृषा की चिकित्सा :
- किसी दुर्घटना के कारण जब शरीर से अधिक रक्त निकल जाता है तो क्षतज तृषा की उत्पत्ति रोगी को बेचैन करती है। ऐसे में रोगी को मांस रस पिलाकर तृषा को नष्ट कर सकते हैं।
- अस्पताल में रोगी को ग्लूकोज मिश्रित रक्त भी दिया जाता है। इससे शरीर को शक्ति मिलने के साथ क्षतज तृषा भी नष्ट होती है।
- शारीरिक रूप से निर्बल व्यक्तियों को दूध उबालकर पिलाना चाहिए।
- क्षतज तृषा में संतरे, मौसमी, अनार, अनन्नास का रस या नारियल का जल पिलाने से भी क्षतज तृषा शांत होती है।
- ग्लूकोज जल में मिलाकर दिन में चार-पांच बार पिलाने से तृषा का निवारण होता है।
आमज तृषा की चिकित्सा :
- अजीर्ण की विकृति में तृषा की उत्पत्ति होने पर रोगी को हल्का-सा उष्ण जल पिलाना चाहिए।
- रोगी को दीपन, पाचन औषधियों से निर्मित क्वाथ देना चाहिए।
- आम की गुठली के भीतर का भाग (गिरी) और जामुन की गिरी को जल में उबालकर, छानकर उसमें मधु मिलाकर पिलाने से आमज तृषा नष्ट होती है।
- आम और जामुन के पत्तों को भी उबालकर, छानकर मधु मिलाकर पिलाने से तृषा शांत हो जाती है।
- अनार, आंवला और बिजौरा नीबू की चटनी बनाकर, चाट कर खाने से तृषा की विकृति नष्ट होती है।
- जौ को भूनकर बनाए सत्तू में बेर, मिश्री और जल मिलाकर पिलाने से आमज तृषा नष्ट होती है।
- अनार, बेर, लोध, कैथ और बिजौरा नीबू को पीसकर सिर पर लेप करने से शरीर का दाह और तृषा नष्ट होती है।
भक्तज तृषा की चिकित्सा :
- तृषा की उत्पत्ति किसी रोग के कारण हुई हो तो पहले उस रोग की चिकित्सा करनी चाहिए।
- स्निग्ध भोजन से अजीर्ण रोग होने पर हल्का उष्ण जल पीने से भक्तज तृषा नष्ट होती है।
- घी, तेल में बने पकवान सेवन करने से अधिक तृषा उत्पन्न होती है। ऐसे में जल में थोड़ा-सा गुड़ मिलाकर रोगी को पिलाने से तृषा शांत होती है।
- अंगूर का रस पीने से तीव्र तृषा भी शांत होती है।
- गन्ने के रस का सेवन भी भक्तज तृषा को नष्ट करता है।
- मुलहठी का क्वाथ बनाकर, छानकर, उसमें मधु मिलाकर पीने से तृषा का निवारण होता है।
तृषा नाशक कुछ अन्य गुणकारी औषधियां : adhik pyas lgne ke ayurvedic upay
- बिजौरे नीबू के फूलों को, केशर का चूर्ण, अनार का रस, मधु और सेंधा नमक, सबको अच्छी तरह मिलाकर सेवन करने से तृषा की निवृत्ति होती है।
- लाल शालि (चावलों) का भात पकाकर, शीतल होने पर मधु मिलाकर खाने से जीर्ण तृषा का भी निवारण होता है।
- रक्त पित्त रोग के कारण तृषा की उत्पत्ति होने पर चंद्रकला रस (आयुर्वेदिक औषधि) का सेवन करने से बहुत लाभ होता है।
- सितोपलादि चूर्ण दिन में दो-तीन बार अनार के शरबत के साथ सेवन कराने से तृषा नष्ट होती है।
- ताम्र भस्म और बंग भस्म 1-1 रत्ती मात्रा में चंदन के शरबत के साथ सेवन कराने से तृषा का निवारण होता है।
- जल में मधु मिलाकर कुछ देर उस जल को मुंह में रोके रखने से तृषा की विकृति नष्ट होती है।
- शीतल जल में धनिया, जीरा और सौंफ भिगोकर, उन सबको छानकर, उस जल में मिश्री मिलाकर पीने से तृषा नष्ट होती है।
- गुलाब, चंदन, नीबू और अनार के रस का शरबत बनाकर पीने से ग्रीष्म ऋतु में तीव्र तृषा रोग भी नष्ट होता है।
आहार-विहार :
- भोजन में रुक्ष, गरिष्ठ व उष्ण मिर्च-मसालों के खाद्य पदार्थों का सेवन करने से तृषा की अधिक उत्पत्ति होती है। ऐसे खाद्य पदार्थों के सेवन से परहेज करना चाहिए।
- चाय-कॉफी भी अधिक तृषा की उत्पत्ति करते हैं।
- ग्रीष्म ऋतु में बर्फ का अधिक सेवन तृषा को बढ़ाता है। सीधे जल में बर्फ डालकर नहीं पीना चाहिए। बर्फ के साथ रखकर जल को शीतल करके सेवन करने से तृषा का निवारण होता है।
- नीबू के रस से बनी शिकंजी तृषा को जल्दी शांत करती है।
- नदी व तालाब में स्नान से भी तृषा की विकृति नष्ट होती है।
- संतरा, मौसमी, जौ के सत्तू, इमली से बने पेय पदार्थ, धनिया, जीरा, मिश्री, अनन्नास, नारियल का जल, गन्ने का रस, आंवले व आम का मुरब्बा, शीतल दूध, तक्र (मट्ठा), आदि तृषा को सरलता से नष्ट करते हैं।
- सूर्य की प्रचण्ड धूप में अधिक घूमने-फिरने और अधिक शारीरिक श्रम करने से अधिक तृषा की उत्पत्ति होती है।
- गुरु, उष्ण, घी, तेल में बने पकवान, अम्लीय रस से बने खाद्य पदार्थ, चटपटे, तीक्ष्ण पदार्थ, सोंठ, पीपल, लाल मिर्च, चाय-कॉफी आदि खाद्य पदार्थों के सेवन से तृषा की अधिक उत्पत्ति होती है। इन खाद्य पदार्थों के सेवन से परहेज रखना चाहिए।