सारा जगत ब्रह्म है यह अनुभूति कैसे हो ? | श्री रमण महर्षि

Last Updated on July 22, 2019 by admin

श्री रमण महर्षि से बातचीत | Sri Raman Maharishi Se Baatcheet

१.  एक संन्यासी अपनी शंका का समाधान करने का प्रयास कर रहा था : “यह अनुभूति कैसे हो कि सारा जगत ही ब्रह्म है ?”
म० : यदि तुम्हारी दृष्टि ज्ञानमयी हो जाय तो तुम्हें समग्र संसार ब्रह्म भासित होगा। ब्रह्मज्ञान के बिना तुमको ब्रह्म के सर्वव्यापकत्व का अनुभव कैसे हो सकता है ?

२. किसी व्यक्ति ने इन्द्रियानुभूति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा।
म० : जिस अवस्था में भी व्यक्ति होता है इन्द्रियानुभूति वही रूप ग्रहण कर लेती है। इसकी वास्तविकता इस प्रकार है कि जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर स्थूल नाम रूपों की अनुभूति करता है; स्वप्न में सूक्ष्म शरीर काल्पनिक सृष्टि तथा उसके विविध नाम रूपों की अनुभूति करता है , सुषुप्ति में देह का भान नष्ट हो जाने से वहाँ कोई अनुभूति नहीं होती है। इसी प्रकार गुणातीत अवस्था में ब्रह्म से एकत्व का भान मानव का अखिल जगत से तादात्म्य करा देता है तथा वहाँ उसकी आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता।

३. आनन्द की अनुभूति के सम्बन्ध में एक प्रश्न किया गया।
म० : यदि कोई व्यक्ति यह माने कि उसकी प्रसन्नता का हेतु बाहर के साधनों एवं पदार्थों की प्राप्ति में है तो यह निष्कर्ष निकलता है कि वह प्रसन्नता सम्पत्ति की वृद्धि तथा ह्रास से अनुपाततः बढ़नी अथवा कम होनी चाहिए। इसी तर्क से उसकी सम्पत्ति के रहित होने की अवस्था में उसके आनन्द की समाप्ति हो जानी चाहिए । मनुष्य का वास्तविक अनुभव क्या है ? क्या उससे उक्त तर्क की पुष्टि होती है ?
गहरी निद्रा में मनुष्य के पास कोई भी सम्पत्ति नहीं होती, यहाँ तक कि उसे अपनी स्वयं की देह का भी भान नहीं रहता। किन्तु तब आनन्द शून्यता के स्थान पर वह बड़े आनन्द का अनुभव करता है। प्रत्येक व्यक्ति प्रगाढ़ निद्रा की इच्छा करता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि आनन्द मनुष्य के अन्दर की वस्तु है, वह आनन्द किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं है । शुद्ध आनन्द के भण्डार की प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा का साक्षात्कार परम आवश्यक है।

४. एक शिक्षित नवयुवक ने प्रश्न किया :
“आप कैसे कहते हैं कि हृदय दायीं ओर स्थित है, जबकि ‘जीव-विज्ञान के विद्वानों ने उसको बायीं ओर पाया है ?” युवक ने इसका प्रमाण माँगा।
म० : ऐसा ही है । हृदय का स्थूल अंग बायीं ओर है। इसका निषेध नहीं है । पर मैं जिस हृदय की बात कह रहा हूँ वह सूक्ष्म हृदय है तथा वह दायीं ओर ही है। यह मेरा अनुभव है। मुझे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। फिर भी तुम मलयालम भाषा के एक आयुर्वेद के ग्रन्थ में तथा ‘सीता उपनिषद’ में प्रमाण ढूँढ़ सकते हो। महर्षि ने उपनिषद का मन्त्र दिखा दिया। तथा आयुर्वेद की पुस्तक का श्लोक उद्धृत कर दिया। ।

५. श्री एम० फ्रायडमैन एक इंजीनियर ने अनुग्रह पर अपने विचार प्रकट किये : ‘नमक की गुड़िया यदि सागर में डुबकी लगाये तो एक बरसाती कोट भी उसको सुरक्षित नहीं रख पायेगा।”
| उपमा बहुत उपयुक्त थी तथा इसकी काफी प्रशंसा की गयी। महर्षि ने कहा, “देह ही तो वह बरसाती है।’

६. एक संन्यासी ने मन की व्याकुलता से निवृत्ति का उपाय जानना चाहा।
म० : तुम अपनी स्वयं की आत्मा को भुलाकर ही बाहर के पदार्थों की अनुभूति करते हो । यदि तुम दृढ़तापूर्वक आत्म-भाव में स्थित रहोगे तो तुम्हें बाह्य जगत भासित नहीं होगा।

७. जब प्रश्न पूछा गया कि क्या ईश्वरत्व की प्राप्ति के साथ ही सिद्धियों की प्राप्ति भी सम्भव है जैसा कि ‘दक्षिणमूर्ति अष्टकम्’ के अन्तिम पद्य में लिखा। है। महर्षि ने उत्तर दिया : “पहले ईश्वरत्व प्राप्त कर लो और तब दूसरा प्रश्न पूछ सकते हो।” ।

८. क्या किसी मन्त्र के अनायास उच्चारण से कोई व्यक्ति कुछ लाभ उठा सकता है ?
म० : नहीं । मन्त्र जाप करने वाला इसका अधिकारी तथा मन्त्र की दीक्षा प्राप्त होना चाहिए ।
महर्षि ने प्रमाणस्वरूप यह दृष्टान्त दिया—एक राजा अपने प्रधान मन्त्री के निवासस्थान पर गया। राजा को सूचना दी गयी कि प्रधान मन्त्री मन्त्र के जाप में व्यस्त हैं। प्रतीक्षा करने के उपरान्त प्रधान मन्त्री के उपस्थित होने पर राजा ने जाप के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा प्रकट की। प्रधान मन्त्री ने सूचित किया कि मैं सर्वोत्कृष्ट मन्त्र गायत्री का जाप कर रहा था। राजा ने प्रधान मन्त्री से मन्त्र की दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। परन्तु प्रधान मन्त्री ने राजा को दीक्षा देने में अपनी असमर्थता बतायी।

तदुपरान्त राजा ने अन्य किसी व्यक्ति से गायत्री मन्त्र जान लिया तथा मन्त्री के मिलने पर उसके समक्ष गायत्री मन्त्र उच्चारण कर मन्त्र की शुद्धता के सम्बन्ध में जानना चाहा । मन्त्री ने कहा कि मन्त्र शुद्ध होते हुए भी उन्हें स्वयं यह बात भी कहने का अधिकार नहीं है। जब उसका कारण बताने का आग्रह किया गया तब मन्त्री ने समीप खड़े एक सेवक को बुलाकर राजा को कैद कर लेने का आदेश दिया। आदेश का पालन नहीं किया गया। पुनः आदेश को अनेक बार दोहराया गया किन्तु उसका पालन नहीं हुआ। राजा बहुत क्रुद्ध हुआ और उसने उसी सेवक को आदेश दिया कि वह मन्त्री को गिरफ्तार कर ले। सेवक ने आदेश का तुरन्त ही पालन कर दिया ।

मन्त्री ने हँसकर कहा कि मैंने आपकी जिज्ञासा का उत्तर प्रस्तुत कर दिया है। वह किस प्रकार ?” राजा ने पूछा।
दोनों बार आदेश समान ही था तथा पालनकर्ता भी वही था, किन्तु आदेशकर्ता भिन्न-भिन्न थे। जब मैंने आदेश दिया तब उसका परिणाम कुछ नहीं हुआ, जबकि आप द्वारा दिये गये आदेश का तुरन्त पालन किया गया। मन्त्रों के विषय में भी इसी प्रकार है।”

श्रोत – श्री रमण महर्षि से बातचीत
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