Last Updated on July 24, 2019 by admin
ʹगुरु की सेवा से शिष्य का मन किसी भी प्रकार के प्रयत्न बिना ही अपने-आप एकाग्र होने लगता है।” गुरुभक्तियोग ग्रंथ
संत एकनाथ जी ने 10 वर्ष की छोटी उम्र में ही देवगढ़ राज्य के दीवान श्री जनार्दनस्वामी के श्रीचरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया था। वे गुरुदेव के कपड़े धोते, पूजा के लिए फूल लाते, गुरुदेव भोजन करते तब पंखा झलते, उनके ऩाम आये हुए पत्र पढ़ते-ऐसे एवं अन्य भी कई प्रकार के छोटे-मोटे काम वे गुरुचरणों में करते।
एक बार गुरुदेव ने एकनाथ को राजदरबार का हिसाब करने को कहा। दूसरे ही दिन प्रातः सारा हिसाब राजदरबार में बताना था। पूरा दिन हिसाब किताब देखने में लिखने में बीत गया। रात हुई। एकनाथ को पता नहीं चला कि रात शुरु हो गयी है। हिसाब में एक पाई की भूल आ रही थी। आधी रात बीत गयी फिर भी भूल पकड़ में नहीं आयी।
प्रातः जल्दी उठकर गुरुदेव ने देखा कि एकनाथ तो अभी भी हिसाब देख रहा है ! वे आकर दीपक के आगे चुपचाप खड़े हो गये। बहियों पर थोड़ा अँधेरा छा गया फिर भी एकनाथ एकाग्रचित्त से बहियाँ देखते रहे। इतने में पाई की भूल पकड़ में आ गयी। एकनाथ हर्ष से चिल्ला उठेः “मिल गयी… मिल गयी….!” गुरुदेव ने पूछाः “क्या मिल गयी बेटा ?”
एकनाथ चौंक पड़े। ऊपर देखा तो गुरुदेव सामने खड़े हैं ! उठकर प्रणाम किया और बोलेः “गुरुदेव ! एक पाई की भूल पकड़ में नहीं आ रही थी। अब वह मिल गयी।”
हजारों के हिसाब में एक पाई की भूल !… और उसको पकड़ने के लिए रात भर जागरण ! गुरु की सेवा में इतनी लगन, इतनी तितिक्षा और भक्ति देखकर श्री जनार्दन स्वामी के हृदय से गुरुकृपा छलक पड़ी। सदगुरु की आध्यात्मिक वसीयत सँभालने वाला शिष्य मिल गया। एकनाथ जी के जीवन में पूर्ण ज्ञान का सूर्य उदित हुआ। साक्षात गोदावरी माता भी लोगों द्वारा डाले गये पाप धोने के लिए ब्रह्मनिष्ठ संत एकनाथ जी के सत्संग में आती थीं। संत एकनाथ जी की ʹएकनाथी भागवतʹ को सुनकर आज भी लोग तृप्त होते हैं।