Last Updated on July 24, 2019 by admin
* दरभंगा में एक तालाब है। उसे ‘दाई का तालाब’ कहते है। तालाब के निर्माण का इतिहास सज्जनता और ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और नैतिकता का जीता-जागता आदर्श है। उसे पढ़कर जीवन के निष्काम प्रेम की अनुभूति का आनंद मिलता है।
* शंकर मिश्र जन्मे तब इनकी माता जी के स्तनों में दूध नहीं आता था। बच्चे को प्रारंभ से ही ऊपर का दूध दिया नही जा सकता था, इसलिए उसे किसका दूध दिया जाए? यह एक संकट आ गया।
* एक धाय रखनी पड़ी। इस धाय ने शंकर को अपना बच्चा समझकर दूध पिलाया। मातृत्च का जो भी लाड़ और स्नेह एक माँ अपने बच्चे को दे सकती है, धाय ने वही स्नेह और ममता बच्चे को पिलाई। आज के युग में जब भाई-भाई एक-दूसरे को स्वार्थ और कपट की दृष्टि सें देखते हैं, तब एक साधारण स्त्री का यह भावनात्मक अनुदान स्वर्गीय ही कहा जा सकता है। संसार के सब मनुष्य जीवन के कठोर कर्तव्यों का पालन करते हुए भी यदि इस सुरह प्रेम कर्तव्यशीलता का व्यवहार कर सकें तो संसार स्वर्ग बन जाए।
* शंकर मिश्र बढ़ने लगे। धाय उनकी सब प्रकार सेवा सुश्रूषा करती, नीति और सदाचार की बातें भी सिखाती। सामान्य कर्तव्य पालन में कभी ऐसा समझ में नहीं आया, जब बाहर से देखने वालों को यह पता चला हो कि यह असली माँ नही है। धाय के इस आत्म-भाव से शंकर की माँ बहुत प्रभावित हुई। एक दिन उन्होंने धाय की सराहना करते हुए वचन दिया तुमने मेरे बच्चे के अपने बच्चे जैसा पाला है, जब वह बडा हो जायेगा तो इसकी पहली कमाई पर तुम्हारा अधिकार होगा।” कुछ दिन यह बात आई गई हो गई।
* शंकर मिश्र बाल्यावस्था से ही संस्कृत के प्रकाड विद्वान् दिखाई देने लगे। बाद में तो उनकी प्रतिभा ऐसी चमकी कि उनका यश चारों ओर फैलता गया। उनकी एक काव्य-रचना पर तल्ललीन दरभंगा नरेश बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने दरबार में बुलाकर उनका बडा सम्मान किया और उपहार स्वरूप एक हार भेंट किया। इसे लेकर शंकर घर आए और हार अपनी माँ को सौंप दिया।
* हार बहुत कीमती था उसे देखकर किसी के भी मन में लोभ और लालच आ सकता था, पर यह सब सामान्य मनुष्यों के आकर्षण की बातें है। उदार हृदय व्यक्ति, कर्तव्यपरायण और आदर्शों को ही जीवन मानने वाले सज्जनों के लिए रुपये पैसे का क्या महत्व, मानवता जैसी वस्तु खोकर धन, संपत्ति, पद, यश प्रतिष्ठा कुछ भी मिले निरर्थक है, उससे आत्मा का कभी भला नही होता।
* शंकर मिश्र की माता ने धाय को बुलाया और अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाते हुए हार उसे दे दिया। धाय हार लेकर घर आई। उसे शक हुआ हार बहुत कीमती है, तो उसकी कीमत जंचवाई। जौहरियों से पता चला कि उसकी कीमत लाखों रुपयों की है। लौटकर धाय ने कहा- माँ जी मुझे तो सौ-दो सौ की भेंट ही उपयुक्त थी। इस कीमती हार को लेकर मैं क्या करूँगी ? कहकर हार लौटाने लगी।
* पर शंकर की माँ ने भी दृढता से कहा- जो भी हो एक बार दे देने के बाद चाहे वह करोड़ की संपत्ति हो मेरे लिए उसका क्या महत्व ? हार तुम्हारा हो गया-जाओ। उन्होंने किसी भी मूल्य पर हार स्वीकार न किया।
* विवश धाय उसे ले तो गई पर उसने कहा- जो मेरे परिश्रम की कमाई नहीं उसका उपयोग करूँ तो वह पाप होगा। अतएव उसने उसे बेचकर एक पक्का तालाब बनवा दिया।
* यही तालाब ‘धाय का तालाब’ के नाम से शंकर की माँ के वचन और धाय की उत्कृष्ट नैतिकता के रूप में आज भी लोगों को प्रेरणा देता है।
> ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
> संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 146, 147
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