Last Updated on July 22, 2019 by admin
संत मनसूर : Motivational Story in Hindi
★ दसवीं शताब्दी की एक करुणतम रक्तरंजित घटना ! अरबस्तान के जेलखाने में एक कैदी बन्द था । उसका नाम था मनसूर अल हल्लाज(Sufi Sant Mansur) ।
★ मनसूर ने आसपास देखा और एक कैदी को पास में बुलाया । उसको पूछा : ‘‘कितने कैदी हैं आप ?
‘‘लगभग तीन सौ ।
‘‘मुक्त होना चाहते हैं ?
‘‘हाँ, हाँ ।
‘‘तब सबको मेरे सामने इकट्ठा करो ।
★ सभी कैदी मनसूर की बैठक के सामने इकट्ठे हो गये । मनसूर थोडे क्षणों के लिए ध्यानमग्न हो गये फिर धीरे किंतु दृढ स्वर में बोले :
‘‘जाओ, तुम सभी मुक्त हो गये, जाओ ।
देखते ही देखते सभी निर्दोष कैदियों की हथकिडयाँ खुल गयीं । उन लोगों के आनंद तथा आश्चर्य की सीमा न रही । उन्होंने मनसूर से कहा : ‘‘प्रभु ! आप भी चलें । ‘‘नहीं, आप लोग जायँ ।
★ अद्भुत मस्ती थी उनकी आवाज में । ऊपर दृष्टि डालते हुये उन्होंने कहा : ‘‘मैं तो सर्वदा मुक्त ही हूँ । दुनिया की कोई भी जेल मुझे बंदी नहीं बना सकता ।
फिर कैदियों की ओर एक मीठी नजर डालते हुये बोले :
‘‘जाओ, आप लोगों को अब तुरन्त ही यहाँ से निकल जाना चाहिए ।
★ सभी कैदी उन्हें प्रणाम करके भाग निकले । दूसरे दिन जेल के ताले टूटे हुये मिले । दरवाजे खुले पडे थे । यह बात खलीफा के कानों तक पहुँची । वह तो क्रोधावेश में लालपीला होकर गर्जना करने लगा :
‘‘सभी मुसीबतों की जड मनसूर ही है । उस दुष्ट को इस दुनिया से जल्दी ही बिदा कर दो ।
★ और… उनकी बिदा का दिन आ गया । इस क्रूरता और नृशंसता का खेल देखने के लिए लगभग एक लाख लोगों की भीड उनके चारों ओर इकट्ठी हो गयी ।
प्रथम कोडे मारना आरंभ हुआ । एक.. दो… तीन… पचास… सौ… दो सौ… तीन सौ… कोडे मारने की सजा पूर्ण हुई ।
★ रक्तरंजित मनसूर ने धीरे-धीरे चारों ओर अपनी दृष्टि डाली । एक अलौकिक अद्भुत शान्ति उनके मुख पर छाई हुई थी । वे बोले : ‘हक हक अनल हक ।
(उर्दू भाषा में ‘हक हक अनल हकङ्क का अर्थ है : ‘भगवान एक और व्यापक है… और वह मैं हूँ । साधना, ध्यान द्वारा अनुभूति के इस सर्वोच्च शिखर की अनुभूति मनसूर ने की थी ।)
★ मनसूर(Sufi Sant Mansur) का सेवक रो उठा और बोला :
‘‘मुझे भी कुछ उपदेश दें ।
मनसूर ने अलौकिक मस्ती से कहा :
‘‘किसी भी क्षुद्र अहं की शरणागति का कभी भी स्वीकार न करना ।
आँसुओं से भरी हुई आँखों से देखनेवाले अपने पुत्र को उन्होंने संकेत से पास में बुलाया और कहा : ‘‘संसार भौतिकता और नैतिकता के पीछे पागल है । दिव्य जीवन का एक क्षण भी देवदूतों और मनुष्यों के हजारों करोडों सत्कर्मों से भी श्रेष्ठतर है ।
★ इतना कहकर मनसूर हँसते हँसते वधस्थल की ओर आगे बढे । चाबुक की मार से शरीर लथडता था, किंतु सिर ऊँचा था । लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा :
‘‘आप अभी भी हँस रहे हैं ?
मनसूर ने कहा : ‘‘यही तो समय है मेरे हँसने का, प्रसन्न होने का । मैं तो अपने घर वापस जा रहा हूँ न ।
★ वधस्थल की सीिढयों को उन्होंने झुककर चुम्बन किया । ऊपर दृष्टि डालकर बोले :
‘‘हे प्रभू ! तूने मुझे वह सब दिया जो मैंने मांगा । जालिम खलीफा ने एकत्रित भीड को मनसूर पर पत्थर फेंकने का आदेश दिया । मनसूर शान्त भाव से दो पॉवों के बीच सिर रखकर बैठे ही रहे । एक भी चीख न निकली उनके मुख से ।
★ सूफी संत हजरत शिबली ने एक फूल उन पर फेंका । मनसूर ने उन पर दृष्टि डालते हुये कहा :
‘‘ये पत्थर तो मुझे चोट नहीं पहुँचाते क्योंकि यह अज्ञानियों की भीड है, किंतु आप ! आप तो सब जानते ही हैं ।
…और उसके बाद जो कुछ हुआ वह मानव इतिहास के पृष्ठों पर रक्तरंजित, शर्मजनक, हृदयविदारक घटना थी ।
मस्त फकीर मनसूर के हाथ काट दिये गये । वे हँस पडे और बोले :
‘‘आपने मेरे बाह्य हाथ भले काट डाले किंतु आंतरिक हाथों से तो मैंने अभी भी अपने परमात्मा को छाती से दबा रखा है । उन हाथों को काटने में कौन समर्थ है ?
★ उसके बाद एक तीक्ष्ण घाव उनके लथडते पैरों पर हुआ और दोनों पैर कटकर एक ओर जा गिरे । मनसूर का शरीर कटे हुये वृक्ष की तरह जमीन पर गिर पडा । खून की धाराएँ चारों ओर बहने लगीं । लोग इस भीषण दृष्य को देखकर काँप उठे ।
मनसूर ने अपने को संभालते हुये जमीन पर फैले हुये खून के खड्डे में अपने मुँह को रंगा और बोले :
‘‘देखो, मैं कितना प्रसन्न हूँ ! शहीदों का गुलाल मैंने अपने मुँह पर लगाया है ।
★ उसके बाद आँखें बंद करके उन्होंने प्रार्थना की : ‘‘हे प्यारे ! तू कितना दयालू है । तूने मुझे अंत समय तक उद्विग्न होने से बचाया । जो दृढता और शान्ति तूने मुझे दी है वही मेरे चारों ओर घिरे हुये लोगों को देना प्रियतम !
…और फिर एक बार उन पर पत्थरों की जोरदार मार आरंभ हो गयी । वे खूब आहत हो गये थे और अंतिम श्वास ले रहे थे साधारण जन के लिए उनका अंतिम संदेश था :
‘‘आप अद्वैत से, आत्मज्ञान से मित्रता करेंगे तो आप भी असाधारण बन जायेंगे ।
★ …और उसके बाद… उनकी चमकती आँखें तीक्ष्ण हथियार के द्वारा निकाल दी गयी… पवित्र जीभ काट डाली गयी । अंत में जब उनका सिर धड से अलग किया गया तब वे बहुत जोर से हँस पडे और उसके साथ ही वह चिरप्रतिक्षित घडी आ पहुँची । एक छटपटाते हुये परम प्रेमी का उसके महान प्रेमास्पद के साथ अटूट मिलन हो गया । अमरता के गीतों का गुंजार करती एक सरिता सागर की विशाल छाती पर अपना सिर रखकर सदा के लिए अपनी रहस्यमय गहराई में खो गयी ।
★ उनके कटे हुये हाथ-पैरों में से, आँखों में से, जीभ और मस्तक में से तथा अंगों में से एक गंभीर ध्वनि सुनाई देती थी : ‘‘अनल हक… अनल हक… अनल हक…
उनकी अस्थियाँ जब दजला नदीं में विसर्जित करने में आयी तब लोगों ने देखा कि अस्थियाँ नदी में एक जगह ‘अनल हकङ्क आकार के अक्षरों में संयोजित हो गयी थी ।
★ …और इसके बाद तो मानो कि नदी को गुस्सा आया । नदी ने तो सीमा छोडी और पागल हो गयी । हाल ही में मानो नगर का विनाश कर देगी, ऐसी बाढ आयी । मनसूर ने पहले से ही सेवक को समझा दिया था कि ऐसा हो तब मेरा कोई वस्त्र नदीं में विसर्जित कर देना । सेवक ने ऐसा ही किया । नदी शान्त हो गयी । अश्रुभरी आँखों से तथा शोकयुक्त हृदय से उनके शिष्यों ने उन पावन अस्थियों को दफना दी ।
एक महान संत को इतनी क्रूरता से बिदा दी गयी ?
★ तत्कालीन शासकों और लोगों की दृष्टि में मनसूर का एक ही अपराध था : ‘अनल हकङ्क का उद्घोष । वे अपने आप को ईश्वर कहने लग गये थे ।
मनसूर ने सचमुच कोई अपराध नहीं किया था । वे ईश्वर से, सर्वव्यापक चेतना से इतने अधिक एकाकार हो गये थे कि उनका देहाध्यास पिघल गया था । ऐसी मानसिक स्थिति में ही उन्होंने अपने लिए ‘अनल हक” की घोषणा की थी । यह घोषणा इतनी सत्य, प्रामाणिक एवं प्रभावशाली थी कि मृत्यु के बाद भी उनके एक एक अंग से तथा अस्थियों में से “अनल हक” का गुंजन सुनाई देता था ।
★ मनसूर की जीवन-कथा के समकालीन लेखक तथा ईरान के सूफी कवि ने लिखा है :
‘‘अत्यन्त दुःख की बात यह है कि अपने समकालीन इतने महान संत को कोई समझ न सका । अगर किसी वृक्ष में से “अनल हक” की आवाज सुनाई दे तो आप उसे पूजने लगेंगे । परंतु कोई मनुष्य कहेगा तो आप उसे शूली पर लटका देंगे । जब कोई महान व्यक्ति इन शब्दों का उच्चारण करते हैं तब वे अपने व्यक्तित्त्व से परे सर्वोच्च भाव-समाधि की स्थिति में होते हैं । तब वे नहीं किंतु अस्तित्व ही उनके मुख से बोलता है ।
★ जटिल लोग एवं जातियाँ ऐसे महापुुरुषों के साथ दुव्र्यवहार करके मानवता को कलंकित करते आये हैं । ऐसे महापुरुष मानव समाज को अपने “अनल हक” के उच्च शिखरों पर, आत्मज्ञान के उच्च अनुभवों पर ले जाने के लिए भिन्न-भिन्न समय, अलग-अलग स्थानों पर प्रगट होते ही रहते हैं ।
★ हे मानवता को कलंकित करनेवाले जटिल लोगों ! मनुष्यता के परम अधिकार दिलाने वाले महापुरुषों को समझने का पुण्य तथा बुद्धि ग्रहण करो । शाश्वत सुखी बनो और मुक्त हो जाओ । अनल हक, सोहं के अनुभव में आओ । हिंसा, घृणा, जटिलता बहुत हो चुकी । सच्चे हृदय से अपने सत्य स्वरूप को प्राप्त करने की शुरुआत करो । मनसूर तो अभी भी लोगों के हृदयों में विराजमान हैं किंतु वे दुर्जन और संत को न समझने वाले अभागे किस नरक में और किस नाली में सडते होंगे, यह तो राम ही जानें ! अनल हक, सोहं… सोहं… गायेजा,अपने स्वरूप को पायेजा ।
श्रोत – ऋषि प्रसाद मासिक पत्रिका (Sant Shri Asaram Bapu ji Ashram)
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