Last Updated on July 22, 2019 by admin
★ इस संसार में आपका परम पावन कर्तव्य जो आप पर ईश्वर ने डाला हुआ है, वह है अपने आपको प्रसन्न रखना । यह मत समझो कि आपका कर्तव्य खान-पान की चीजें जुटाना है अथवा किसी का प्रेम प्राप्त करना, किसी को प्रसन्न करना या कोई न कोई सांसारिक उद्देश्य प्राप्त करना है । इन सब उद्देश्यों और आदर्शों को परे फेंको । हानि-लाभ की परवाह मत करो । आसपास की परिस्थितियों से स्वतंत्र हो जाओ । अपने आपको नित्य शांत और प्रसन्न रखना ही अपना उद्देश्य बना लो ।
★ आपका सामाजिक धर्म और घर के सम्बन्ध में भी आपका बडा उत्तरदायित्व आप पर केवल इतना है कि आप प्रसन्न रहो । आप अपने प्रति सच्चे रहो और इसके सिवा अन्य किसी वस्तु की परवाह न करो । उदास और खिन्नचित्त होना ही धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक अपराध है । केवल यही एक पाप है जो अन्य सब अपराधों, अधःपतनों और पापों की जड है ।
★ निर्मल गंभीरता और राग-द्वेष रहित शांति में डूब जाओ । फिर आप देखेंगे कि आपके कामकाज और आसपास चारों ओर की परिस्थिति स्वतः आपके अनुकूल होने के लिये बाध्य हो जायेगी ।
★ आप अपने सिवा और किसीके प्रति उत्तरदायी नहीं हैं । आप यदि आनंद और शांति के इस परम पावन नियम को तोडते हैं तो आप स्वयं अपने प्रति घृणित अपराधी बन जाते हैं । दूसरे लोग भले ही प्रातः उठते ही यह सोचते हों कि उनको बहुत से काम, बहुत से कत्र्तव्य हैं पर जब आप प्रातःकाल उठो तो सदा अपने आपको परम आनंदमय अनुभव करो । बस, आपका एकमात्र यही कर्तव्य है ।
★ इसका अर्थ यह नहीं कि आप और कामों को छोड बैठो या घर के कामों से विमुख हो जाओ । नहीं… आप इन कामों को गौण, खेल जैसा समझ सकते हैं । कोई भी काम करते समय आप यह सदा स्मरण में रखो कि यह ठोस कहलानेवाले मुख्य काम वास्तव में नितान्त खोखले और गौण बहानेमात्र हैं । वास्तव में आपका परम आवश्यक कर्तव्य है अपने आपको सन्तुष्ट रखना ।
★ काम करते समय बीच-बीच में एक आध पल के खाली समय में इस बात का ध्यान करो कि, ‘केवल एक ही तत्त्व परमेश्वर है, वही मेरा अपना आपा है । मैं मात्र साक्षी हूँ । मुझे कर्म के परिणाम, अर्थ और फल से कुछ भी प्रयोजन नहीं । इस प्रकार विचार करते हुये अपनी आँखें बन्द कर लो । अपने अंगों को ढीला छोड दो, शरीर को पूर्ण विश्राम में रहने दो । विचारों के भार को अपने ऊपर से उतार डालो, अपने कन्धों पर से चिन्ता का भार उतारने में आप जितना ही अधिक सफल होगे, उतना ही अधिक आप अपने आपको बलवान अनुभव करोगे ।
(अरण्य संवाद)
श्रोत – ऋषि प्रसाद मासिक पत्रिका (Sant Shri Asaram Bapu ji Ashram) जुलाई-अगस्त १९९३
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