Last Updated on July 22, 2019 by admin
मकर संक्रांन्ति भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह पर्व प्रत्येक वर्ष जनवरी के महीने में समस्त भारत में मनाया जाता है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होता है, जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है। इस त्योहार का संबंध प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से है। ये तीनों चीजें ही जीवन का आधार हैं।
भारतीय पंचांग पद्धति की समस्त तिथियां चन्द्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किन्तु मकर संक्रांन्ति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्त्व है। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुनः प्राप्त होता है। अत: मकर संक्रांन्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्य शक्ति में वृद्धि होगी। ऐसा जानकर सम्पूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है। मकर संक्रांन्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं।
प्रकृति के कारक के तौर पर इस पर्व में सूर्य देव को पूजा जाता है, जिन्हें शास्त्रों में भौतिक एवं अभौतिक तत्त्वों की आत्मा कहा गया है। परम्परा से यह विश्वास किया जाता है कि इसी दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वैदिक उत्सव है। इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़, तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बांटा जाता है। इन्हीं की स्थिति के अनुसार ऋतु परिवर्तन होता है और धरती अनाज उत्पन्न करती है, जिससे जीव समुदाय का भरण-पोषण होता है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है, उस अवधि को ‘सौर वर्ष’ कहते हैं। पृथ्वी का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना ‘क्रांन्तिचक्र’ कहलाता है। इस परिधि चक्र को बांटकर बारह राशियां बनी हैं। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना ‘संक्रांन्ति’ कहलाता है। इसी प्रकार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने को ‘मकर संक्रांन्ति’ कहते हैं। सूर्य देव आप सारे संसार के आरम्भ का मूल हो, सूर्य का प्रकाश जीवन का प्रतीक है। चन्द्रमा भी सूर्य के प्रकाश से आलोकित है। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना ‘उत्तरायण’ तथा कर्क रेखा से दक्षिणी मकर रेखा की ओर जाना ‘दक्षिणायन’ है। वैदिक काल में उत्तरायण को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा जाता था।
धर्म ग्रंथों में मकर संक्रांति का महत्त्व :
धर्म ग्रंथों में उल्लेख-ईसा से एक सहस्त्र वर्ष पूर्व ब्राह्मण एवं औपनिषदिक ग्रंथों में उत्तरायण के छः मासों का उल्लेख है में ‘अयन’ शब्द आया है, जिसका अर्थ है ‘मार्ग’ या ‘स्थल। गृह्यसूत्रों में ‘उदगयन’ उत्तरायण का ही द्योतक है जहां स्पष्ट रूप से उत्तरायण आदि कालों में संस्कारों के करने की विधि वर्णित है। किंतु प्राचीन श्रौत, गृह्य एवं धर्म सूत्रों में राशियों का उल्लेख नहीं है, उनमें केवल नक्षत्रों के संबंध में कालों का उल्लेख है। याज्ञवल्क्यस्मृति में भी राशियों का उल्लेख नहीं है, जैसा कि विश्वरूप की टीका से प्रकट है ‘उदगयन’ बहुत शताब्दियों पूर्व से शुभ काल माना जाता रहा है, अत: मकर संक्रांति, जिससे सूर्य की उत्तरायण गति आरम्भ होती है, राशियों के चलन के उपरान्त पवित्र दिन मानी जाने लगी।
मत्स्यपराण ने संक्रांति व्रत का वर्णन किया है। एक दिन पूर्व व्यक्ति (नारी या पुरुष) को केवल एक बार मध्याह्न में भोजन करना चाहिए और संक्रांति के दिन दांतों को स्वच्छ करके तिल युक्त जल से स्नान करना चाहिए। व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी संयमी ब्राह्मणगृहस्थ को भोजन सामग्रियों से युक्त तीन पात्र तथा एक गाय यम, रुद्र एवं धर्म के नाम पर दे और चार श्लोकों को पढ़े, जिनमें से एक यह है-
‘यथा भेदं न पश्यामि शिवविष्ण्वर्कपद्मजान्।
तथा ममास्तु विश्वात्मा शंकर:शंकरः सदा।।’
अर्थात् ‘मैं शिव एवं विष्णु तथा सूर्य एवं ब्रह्मा में अन्तर नहीं करता, वह शंकर, जो विश्वात्मा है, सदा कल्याण करने वाला है। दूसरे शंकर शब्द का
अर्थ है- शं कल्याणं करोति ।
यदि हो सके तो व्यक्ति को चाहिए कि वह ब्राह्मण को आभूषणों, पर्यंक, स्वर्णपात्रों (दो) का दान करें। यदि वह दरिद्र हो तो ब्राह्मण को केवल फल दे। इसके उपरान्त उसे तेल-विहीन भोजन करना चाहिए और यथा शक्ति अन्य लोगों को भोजन देना चाहिए। स्त्रियों को भी यह व्रत करना चाहिए। संक्रांति, ग्रहण, अमावस्या एवं पूर्णिमा पर गंगा स्नान महापण्यदायक माना गया है और ऐसा करने पर व्यक्ति ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। प्रत्येक संक्रांति पर सामान्य जल (गर्म नहीं किया हुआ) से स्नान करना नित्यकर्म कहा जाता है, जैसा कि देवीपुराण में घोषित है- ‘जो व्यक्ति संक्रांति के पवित्र दिन पर स्नान नहीं करता वह सात जन्मों तक रोगी एवं निर्धन रहेगा, संक्रांति पर जो भी देवों को हव्य एवं पितरों को कव्य दिया जाता है, वह सूर्य द्वारा भविष्य के जन्मों में लौटा दिया जाता है।
पौराणिक कथाएं :
कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अतः इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी व सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था। इस प्रकार यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है। यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है। तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।
पुण्यकाल के नियम :
संक्रांति के पुण्यकाल के विषय में सामान्य नियम के प्रश्न पर कई मत हैं। जाबाल एवं मरीचि ने संक्रांति के धार्मिक कृत्यों के लिए संक्रांति के पूर्व एवं उपरान्त 16 घटिकाओं का पुण्यकाल प्रतिपादित किया है, किंतु देवीपुराण एवं वसिष्ठ ने 15 घटिकाओं के पुण्यकाल की व्यवस्था दी है। यह विरोध यह कहकर दूर किया जाता है कि लघु अवधि केवल अधिक पुण्य फल देने के लिए है और 16 घटिकाओं की अवधि विष्णुपदी संक्रांतियों के लिए प्रतिपादित है।
संक्रांति दिन या रात्रि दोनों में हो सकती है।
दिन वाली संक्रांति पूरे दिन भर पुण्यकाल वाली होती है। रात्रि वाली संक्रांति के विषय में हेमाद्रि, माधव आदि में लम्बे विवेचन उपस्थित किए गये हैं। एक नियम यह है कि दस संक्रांतियों में, मकर एवं कर्कट को छोड़कर पुण्यकाल दिन में होता है, जबकि वे रात्रि में पड़ती हैं। इस विषय का विस्तृत विवरण तिथि तत्त्व और धर्मसिंधु में मिलता
संक्रांति के प्रकार :
बारह संक्रांतियां सात प्रकार की, सात नामों वाली हैं, जो किसी सप्ताह के दिन या किसी विशिष्ट नक्षत्र के सम्मिलन के आधार पर उल्लिखित हैं, वे हैं- मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी. घोरा, महोदरी, राक्षसी एवं मिश्रिता घोरा रविवार, मेष या कर्क या मकर संक्रांति को, ध्वांक्षी सोमवार को, महोदरी मंगल को,मन्दाकिनी बुध को, मन्दा बृहस्पति को, मिश्रिता शुक्र को एवं राक्षसी शनि को होती है। इसके अतिरिक्त कोई संक्रांति यथा मेष या कर्क आदि क्रम से मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी, मिश्रित कही जाती है,
यदि वह क्रम से ध्रुव, मृदु, क्षिप्र, उग्र, चर, क्रूर या मिश्रित नक्षत्र से युक्त हों। 27 या 28 नक्षत्र निम्नोक्त रूप से सात दलों में विभाजित हैं-ध्रुव (या स्थिर)- उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी, मृदुअनुराधा, चित्रा, रेवती, मृगशीर्ष, क्षिप्रयालघुहस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित, उग्र पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा, चर पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, स्वाति, शतभिषक, क्रूर (या तीक्ष्ण) मूल, ज्येष्ठा, आर्दा, आश्लेषा, मिश्रित (या मृदुतीक्ष्ण या साधारण) कृत्तिका, विशाखा। ऐसा उल्लिखित है कि ब्राह्मणों के लिए मन्दा, क्षत्रियों के लिए मन्दाकिनी, वैश्यों के लिए ध्वांक्षी, शूद्रों के लिए घोरा, चोरों के लिए महोदरी, मद्य विक्रेताओं के लिए राक्षसी तथा चाण्डालों,
पुक्कसों तथा जिनकी वृत्तियां (पेशे) भयंकर हों एवं अन्य शिल्पियों के लिए मिश्रित संक्रांति श्रेयस्कर होती है।
ग्रहों की संक्रांतियां :
ग्रहों की भी संक्रांतियां होती हैं, किंतु पश्चात्कालीन लेखकों के अनुसार संक्रांति’ शब्द केवल रवि-संक्रांति के नाम से ही द्योतित है, जैसा कि स्मृतिकौस्तुभ में उल्लेखित है। वर्ष भर की 12 संक्रांतियां चार श्रेणियों में विभक्त हैं-दो अयन संक्रांतियां मकर संक्रांति, जब उत्तरायण का आरम्भ होता है एवं कर्कट संक्रांति, जब दक्षिणायन का आरम्भ होता है। दो विषुव संक्रातिया अर्थात मेष एवं तुला संक्रांतियां, जब रात्रि एवं दिन बराबर होते हैं। वे चार संक्रांतियां, जिन्हें षडयीतिमुख अर्थात मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन कहा जाता है तथा विष्णुपदी या विष्णुपद अर्थात वृषभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ नामक संक्रांतियां प्राचीन ग्रंथ में ऐसा लिखित है कि केवल सूर्य का किसी राशि में प्रवेश मात्र ही पनीतता का द्योतक नहीं है, प्रत्युत सभी ग्रहों का अन्य नक्षत्र या राशि में प्रवेश पुण्यकाल माना जाता है। हेमाद्रि एवं काल निर्णय ने क्रम से जैमिनी एवं ज्योति:शास्त्र से उद्धरण देकर सूर्य एवं ग्रहों की संक्रांति को पुण्यकाल घोषित किया है- ‘सूर्य के विषय में संक्रांति के पूर्व या पश्चात 16 घटिकाओं का समय पुण्य समय है, चंद्र के विषय में दोनों ओर एक घटी 13 फल पुण्यकाल है, मंगल के लिए 4 घटिकाएं एवं एक पल, बुध के लिए 3 घटिकाएं एवं 14 पल, बृहस्पति के लिए। चार घटिकाएं एवं 37 पल, शुक्र के लिए 4 घटिकाएं एवं एक पल तथा शनि के लिए 8 2 घटिकाएं एवं 7 पल।
भारत में विभिन्न राज्यों में मकर संक्रांति :
सम्पूर्ण भारत में मकर संक्रांति विभिन्न रूपों में मनायी जाती है। मकर संक्रांति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। उत्तराखंड के बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके, तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर भी क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े मेले लगते हैं। हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में एक दिन पूर्व 13 जनवरी को ही मनाया जाता है।
इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्निदेव की पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की बनी हुई गजक और रेवड़ियां आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं। बहुएं घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिये लोहड़ी का विशेष महत्त्व होता है। इसके साथ पारम्परिक मक्के की रोटी और सरसों के साग का आनन्द भी उठाया जाता है। बंगाल में इस पर्व पर स्नान के पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहां गंगासागर में प्रति वर्ष विशाल मेला लगता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये व्रत किया था। इस दिन गंगासागर में स्नान-दान के लिये लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। इसीलिए कहा जाता है-‘सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार।’ तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाते हैं। प्रथम दिन भोगी-पोंगल, द्वितीय दिन सूर्य-पोंगल, तृतीय दिन मटू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल और चौथे व अन्तिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकट्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिये स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनायी जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। इस दिन बेटी और जमाई राजा का विशेष रूप से स्वागत किया जाता है। असम में मकर संक्रांति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं।
इस प्रकार मकर संक्रांति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है। महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल व नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा भी है। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं। उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से ‘दान का पर्व है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है जिसे माघ मेले के नाम से जाना जाता है। बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा-स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े-बड़े मेले लगते है।
समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी खाने एवं खिचड़ी दान देने का अत्यधिक महत्त्व होता है। बिहार में मकर संक्रांति को खिचड़ी नाम से जाता हैं। इस दिन उड़द, चावल, तिल, चिवड़ा, गौ, स्वर्ण, ऊनी वस्त्र, कम्बल आदि दान करने का अपना महत्त्व है।
तिल का महत्व :
देश भर में लोग मकर संक्रांति के पर्व पर अलग-अलग रूपों में तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ का सेवन करते हैं। इन सभी सामग्रियों में सबसे ज्यादा महत्त्व तिल का दिया गया है। इस दिन कुछ अन्य चीज भले ही न खाई जाएं, किन्तु किसी न किसी रूप में तिल अवश्य खाना चाहिए। इस दिन तिल के महत्त्व के कारण मकर संक्रांति पर्व को ‘तिल संक्रांति’ के नाम से भी पुकारा जाता है। तिल के गोल-गोल लड्डू इस दिन बनाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि तिल की उत्पत्ति भगवान विष्णु के शरीर से हुई है। तथा उपरोक्त उत्पादों का प्रयोग सभी प्रकार के पापों से मुक्त करता है, गर्मी देता है और शरीर को निरोग रखता है। मंकर संक्रांति में जिन चीजों को खाने में शामिल किया जाता है, वह पौष्टिक होने के साथ ही साथ शरीर को गर्म रखने वाले पदार्थ भी हैं। मकर संक्रांति पर तिल को इतनी महत्ता क्यों प्राप्त हुई, कहना कठिन है। सम्भवतः मकर संक्रांति के समय जाड़ा होने के कारण तिल जैसे पदार्थों का प्रयोग सम्भव है।
संक्रांति पर श्राद्ध :
विष्णु धर्मसूत्र में आया है- ‘आदित्य अर्थात् सूर्य के संक्रमण पर अर्थात जब सूर्य एक राशि से दूसरी में प्रवेश करता है, दोनों विषुव दिनों पर, अपने जन्म-नक्षत्र पर विशिष्ट शुभ अवसरों पर काम्य श्राद्ध करना चाहिए, इन दिनों के श्राद्ध से पितरों को अक्षय संतोष प्राप्त होता है। यहां पर भी विरोधी मत हैं। शूलापाणि के मत से संक्रांति-श्राद्ध में पिण्डदान होना चाहिए, किंतु निर्णयसिंधु के मत से श्राद्ध पिण्डविहीन एवं पार्वण की भांति होना चाहिए।
विष्णुपुराण में वचन है- ‘चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा एवं संक्रांति पर्व कहे गये हैं, जो व्यक्ति ऐसे अवसर पर संभोग करता है, तैल एवं मांस खाता है, वह विष्मूत्र-भोजन’ नामक नरक में पड़ता है। ब्रह्मपुराण में कहा गया है| अष्टमी, पक्षों के अंत की तिथियों में, रवि संक्रांति के दिन तथा पक्षोपान्त (चतुर्दशी) में संभोग, तिल-मांस-भोजन नहीं करना चाहिए। आजकल मकर संक्रांति धार्मिक कत्य की अपेक्षा सामाजिक अधिक है। उपवास नहीं किया जाता, कदाचित कोई श्राद्ध करता हो, किंतु बहुत से लोग समुद्र या प्रयाग जैसे तीर्थों पर गंगा स्नान करते हैं।
संक्रांति पर दान पुण्य और उपवास :
पूर्व पुण्यलाभ के लिए पुण्यकाल में ही स्नान दान आदि कृत्य किये जाते हैं। सामान्य नियम यह है कि रात्रि में न तो स्नान किया जाता है और न ही दान। पराशर में कहा गया है कि सूर्य किरणों से पूरे दिन में स्नान करना चाहिए, रात्रि में ग्रहण को छोड़कर अन्य अवसरों पर स्नान नहीं करना चाहिए। यही बात विष्णुधर्मसूत्र में भी है। किंतु कुछ अपवाद भी प्रतिपादित हैं। भविष्यपुराण में कहा गया है कि रात्रि में स्नान नहीं करना चाहिए, विशेषतः रात्रि में दान तो नहीं ही करना चाहिए, किंतु उचित अवसरों पर ऐसा किया जा सकता है, यथा ग्रहण, विवाह, संक्रांति, यात्रा, जनन, मरण तथा इतिहास श्रवण में। अतः प्रत्येक संक्रांति पर विशेषत: मकर संक्रांति पर स्नान नित्य कर्म है। मकर संक्रांति पर अधिकांश में नारियां ही दान करती हैं। वे पुजारियों को मिट्टी या ताम्र या पीतल के पात्र, जिनमें सुपारी एवं सिक्के रहते हैं, दान करती हैं और अपनी सहेलियों को बुलाया करती हैं तथा उन्हें कुमकुम, हल्दी, सुपारी, ईख के टुकड़े आदि से पूर्ण मिट्टी के पात्र देती हैं। दक्षिण भारत में पोंगल नामक उत्सव होता है, जो उत्तरी या पश्चिमी भारत में मनाये जाने वाली मकर संक्रांति के समान है। पोंगल तमिल वर्ष का प्रथम दिवस है। यह उत्सव तीन दिनों का होता है। पोंगल का अर्थ है। ‘क्या यह उबल रहा’ या ‘पकाया जा रहाहै?’ इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है-
‘माघे मासे महादेवः यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुतूवा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति ॥’
मकर संक्रांति के सम्मान में तीन दिनों या एक दिन का उपवास करना चाहिए। जो व्यक्ति तीन दिनों तक उपवास करता है और उसके उपरान्त स्नान करके अयन पर सूर्य की पूजा करता है, सूर्य या चन्द्र के ग्रहण पर पूजा करता है तो वह वांछित इच्छाओं की पूर्णता पाता है। आपस्तम्ब में कहा गया है कि जो व्यक्ति स्नान के उपरान्त अयन, विषुव, सूर्यचंद्र ग्रहण पर दिन भर उपवास करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। किंतु पुत्रवान व्यक्ति को रविवार, संक्रांति एवं ग्रहणों पर उपवास नहीं करना चाहिए। राजमार्तण्ड में संक्रांति पर किये गये
दानों के पुण्य-लाभ पर दो श्लोक हैं- ‘अयन संक्रांति पर किये गये दानों का फल
सामान्य दिन के दान के फल का कोटिगुना होता है और विष्णुपदी पर वह लक्षगुना होता है, षडशीति पर यह 86000 गुना घोषित है। चंद्र ग्रहण पर दान सौ गुना एवं सूर्य ग्रहण पर सहस्त्र गुना, विषुव पर शतसहस्त्र गुना तथा आकामावै की पूर्णिमा पर अनन्त फलों को देने वाला है। भविष्यपुराण ने अयन एवं विषुव संक्रांतियों पर गंगा-यमुना की प्रभूत महत्ता गायी है।
मकर संक्रांति पर पतंग उड़ाने की परंपरा :
रामचरितमानस में एक प्रसंग आता है। जिससे संकेत मिलता है कि संभवतः भगवान श्रीराम ने अपने भाइयों और हनुमानजी के संग पतंग उड़ाई थी। पतंग इस बात का संकेत देती है कि पिता-पुत्र के संबंध यदि असहज हो रहे हैं तो आगे बढ़कर उसे सहजता की ओर ले जाना चाहिए- इस संदर्भ में ‘बालकांड’ में एक छोटा सा उल्लेख मिलता है.
‘राम इक दिन चंग उड़ाई। इंद्रलोक में पहुंची जाई ।’
भगवान सूर्य के उत्तरायण होने से देवताओं की शक्ति विशेष रूप से जागृत हुई है। श्रीराम भाइयों और मित्र मंडली के साथ पतंग उड़ाने लगे। वह पतंग उड़ते हुए देवलोक तक जा पहुंची। उस पतंग पर इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी की दृष्टि गई। उन्हें उस पतंग ने बड़ा आकर्षित किया। वह उसे कौतूहल से देखने लगीं। इसी बीच उन्हें ध्यान आया कि आखिर किसकी पतंग इतनी शक्तिशाली है।
जो देव लोक तक आ पहुंची है। इसके लिए चौपाई आती है
‘जासु चंग अस सुन्दरताई।
सो पुरुष जग में अधिकाई ॥’
बालक श्रीराम ने बाल हनुमान को कहा कि ‘आप तो उड़ने की शक्ति रखते हैं। आप जरा इसका पता लगाएं कि आखिर मेरी पतंग कहां रह गई।’
तब पवनपुत्र हनुमान पतंग को खोजते आकाश में उड़ते हुए इंद्रलोक पहुंच
गए, वहां जाकर उन्होंने देखा कि एक स्त्री उस पतंग को अपने हाथ में पकड़े हुए है। उन्होंने उस पतंग की उससे मांग की। उस स्त्री ने पूछा- ‘यह पतंग किसकी है?’ हनुमानजी ने श्रीरामचंद्रजी का नाम बताया। इस पर उसने उनके दर्शन करने की अभिलाषा प्रकट की और कहा आप मेरा संदेश पहुंचाएं कि
यदि दर्शन देंगे तो पतंग को मैं मुक्त कर सकती हूं। हनुमानजी यह सुनकर लौट आए।
और सारा वृत्तांत श्रीराम को कह सुनाया। श्रीराम ने यह सुनकर हनुमान को वापस
वापस भेजा कि वे उन्हें चित्रकूट में अवश्य ही दर्शन देंगे। हनुमानजी ने यह उत्तर जयंत
की पत्नी को कह सुनाया, जिसे सुनकर जयंत की पत्नी ने पतंग छोड़ दी। कथन है कि-
‘तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्हीं छोड़ पतंग।
खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।’
यह प्रसंग इस बात का संकेत देता है कि मकर संक्रांति के दिन पतंग उड़ाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है।