Last Updated on July 17, 2019 by admin
प्रसिद्ध आर्य संन्यासी महात्मा श्रीआनन्दस्वामी सरस्वतीजी महाराज एक बार हमारे पिलखुवास्थित निवासस्थान पर पधारे थे। आप तीन-चार दिन ठहरे थे। कैलास-मानसरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में और गोहत्या के विरोध में आपके भाषणों की खूब धूम मची थी। आजकल जो सारे देश में खान-पान का विचार नहीं रहा है और सभी होटलों में खाने लगे हैं, इस सम्बन्ध में मैंने उनसे जो प्रश्न किये,और स्वामीजी महाराजने जो उत्तर दिये, वे ज्यों-के-त्यों पाठकोंके सामने रखे जाते हैं। आशा है पाठक एक प्रख्यात आर्य संन्यासीके सत्य अनुभवसे अवश्य ही लाभ उठायेंगे और होटलोंके खानेसे तथा भक्ष्याभक्ष्य का विचार न कर अनाप-शनाप जो भी जीमें आया, खाने से बाज आयेंगे।
प्रश्न-महाराज जी ! आजकल लोग चाहे जिसके हाथका बना भोजन खा-पी लेते हैं और किसी भी जाति आदि का कोई विचार नहीं करते, किसने बनाया है, इसका भी तनिक विचार नहीं करते, होटलों में जाते हैं, जो जीमें आया भक्ष्याभक्ष्य का विचार न करके खा-पी आते हैं और कहते हैं कि खाने-पीनेसे क्या बिगड़ता है, क्या यह ठीक है?
स्वामीजी- अरे राम-राम ! यह घोर अनर्थ हो रहा है। जिसका खान-पान शुद्ध नहीं, जिसका आहार शुद्ध नहीं, वह भला क्या उन्नति करेगा और क्या भजन-ध्यान करेगा तथा क्या मोक्ष प्राप्त करेगा? शुद्ध आहारकी कितनी आवश्यकता है, इस सम्बन्धकी एक बिलकुल सत्य घटना हम तुम्हें सुनाते हैं, ध्यान से सुनो
आर्यजगत के सुप्रसिद्ध शिक्षासेवी तथा डी०ए०वी० कॉलेजों के संस्थापक महात्मा हंसराजजी एक बार मौन-आश्रम, श्रीहरिद्वार में ठहरे हुए थे। मौन-आश्रम में ही एक वानप्रस्थीजी महाराज भी ठहरे थे, जो कितने ही वर्षों से यहीं इसी आश्रम में रहकर प्रात:काल तीन बजे उठकर ध्यानावस्थित होने का अभ्यास कर रहे थे और इस अभ्यासमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिल चुकी थी। एक दिन की बात है कि वे वानप्रस्थी जी बड़े जोरसे रुदन करते हुए महात्मा हंसराजजी के पास पहुँचे और रोकर कहने लगे कि ‘महाराज! मैं आज लुट गया।’
महात्माजी- क्या रातको चोरी हो गयी?
वानप्रस्थी-नहीं महाराज ! सर्वनाश हो गया।
महात्माजी-स्पष्ट बताइये क्या हुआ?
वानप्रस्थी- पूछिये मत महाराज ! सर्वस्व हरण हो गया।
महात्माजी- फिर भी बताओ न क्या हुआ? रोते क्यों हो?
वानप्रस्थी-महात्माजी ! मैं प्रतिदिन अभ्यास में बैठता हूँ और प्रभु तथा श्रीगुरुकृपासे मैं ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान लगाता हूँ। आज भी मैं नित्यकी भाँति ही ध्यानावस्थित होनेके लिये बैठा, परंतु आज मुझे नित्यकी भाँति ध्यानमें वह ज्योति दिखायी नहीं दी और उसकी जगह लाल वस्त्र पहने एक युवती दिखायी देने लगी। मैंने अपने मानसिक बलसे उसे हटानेका बहुत ही प्रयत्न किया, परंतु मुझे, इसमें सफलता नहीं मिली। जब सफलता नहीं मिली, तब मैं उठकर टहलने लगा। थोड़ी देर बाद मैं फिर ध्यान में बैठा, परंतु फिर भी ज्योति दिखलायी नहीं दी और उसकी जगह वही लाल साड़ीवाली युवती दृष्टिगोचर होने लगी। मैं फिर उठकर टहलने लगा और मैंने एक बार फिर प्रयत्न किया कि मैं किसी प्रकार ध्यानावस्थित हो सकें, परंतु बार-बार प्रयत्न करने पर भी मैं सफल नहीं हो सका और उसी लाल साड़ीवाली युवतीका चित्र सामने आने लगा। हाय-हाय ! महात्माजी ! मैं लुट गया, मेरी अबतक की सारी कमाई लुट गयी, अब मैं क्या करूं? -यह कहकर वानप्रस्थी जी फूट-फूटकर रोने लगे।
महात्माजी–कल कहीं गंदी फिल्म देखने तो नहीं चले गये ?
वानप्रस्थी–नहीं महाराज !
महात्माजी– कोई गंदा उपन्यास तो नहीं पढ़ा ?
वानप्रस्थी- ऐसी कोई पुस्तक नहीं पढ़ी।
महात्माजी- किसीकी बुरी संगति में तो नहीं जा बैठे ?
वानप्रस्थी-नहीं, किसीके पास नहीं बैठा।
महात्माजी–कल आश्रम से बाहर कहीं पर गये थे ?
वानप्रस्थी-जी हाँ, मेरे एक साधु-साथी आये थे और वे मुझे अपने साथ एक स्थानपर ले गये, जहाँ बहुत बड़ा भण्डारा हुआ था।
महात्माजी–तुमने भी क्या उसमें कुछ खाया था?
वानप्रस्थी-जी हाँ, मैंने भी उस भण्डारेमें भोजन किया था।
महात्माजी-तो पता लगाओ कि वह भण्डारा करानेवाला कौन था, वह कहाँ से आया था और कैसा था?
वानप्रस्थी-बहुत अच्छा महाराज !
अब तो वानप्रस्थीजी इस खोज में लगे कि भण्डारेवाला कौन था, कैसा था और उसका भण्डारा कराने का उद्देश्य क्या था?
दो-तीन दिनोंकी खोज के पश्चात् वानप्रस्थीजी ने महात्मा हंसराज जी के पास आकर बताया कि ‘महाराज! खोज करने के पश्चात् यह मालूम हुआ कि अमुक नगरीका एक व्यक्ति श्री हरिद्वार में आया था, उसी ने आकर भण्डारा किया था। उस व्यक्ति ने अपनी एक युवती कन्या को दस हजार रुपयेमें एक वृद्धके साथ ब्याह दिया था। लड़की को बेचने से प्राप्त हुए दस हजार रुपयोंमें से वह दो हजार रुपये लेकर श्रीहरिद्वारमें आया था और उसी दो हजार रुपयेसे उसने भण्डारा किया था।’
यह सुनकर महात्माजी कहने लगे कि तुम्हारी ध्यानावस्था में जो घटना घटी है, उसका कारण स्पष्ट हो गया, उसी युवतीका चित्र ध्यानावस्था में सामने आता था, जिसे बेचकर उस व्यक्तिने तुम्हें अन्न खिलाया था। जैसा अन्न होता है, वैसा ही मन भी बनता है। अब तुम्हें इस बुरे अन्नके प्रभावको नष्ट करनेके लिये सवा लाख गायत्री का जप करना चाहिये, तभी अन्नका प्रभाव दूर होगा, अन्यथा नहीं।’
वानप्रस्थीजी ने ऐसा ही किया। सवा लाख गायत्रीजप से बुरे अन्नका प्रभाव दूर हो गया और तब उनका पूर्ववत् ध्यान होने लगा।
शुद्ध आहार किसे कहते हैं? :
प्रश्न-महाराजजी ! शुद्ध आहार किसे कहते हैं?
स्वामीजी-शुद्ध आहारके दो अर्थ हैं
१-कमाई नेक हो अर्थात् किसीका भी खून चूसकर या किसीको भी किसी प्रकारकी हानि पहुँचाकर धन न कमाया गया हो, अपितु पूरी सात्त्विकता से भरसक प्रयत्न करके बुद्धि अथवा शारीरिक श्रमके द्वारा धन या अन्न एकत्र किया गया हो।
२-आहारकी पवित्रताका दूसरा अर्थ यह है कि उसके बनाने में या उसके तैयार करने में पूरी शारीरिक पवित्रता और पूरी मानसिक पवित्रताका प्रयोग हो। माता, बहिन, पुत्री अथवा पत्नीद्वारा जो अन्न तैयार होता है, उसमें बनानेवालों के मनकी भावनाओं का प्रभाव आ जाता है और यह प्रभाव उस अन्न के खानेवालों के मन को भी प्रभावित करता है। इन माता, बहिन, पुत्री अथवा पत्नी के द्वारा बनाया हुआ भोजन अच्छी भावनाओंसे पूरित होता है, इसलिये उसके खानेसे कोई शारीरिक रोग भी नहीं होता और न उसके खानेसे किसी प्रकार मन ही दूषित होता है। नौकरों इत्यादि के द्वारा बनाये गये भोजन में या होटलोंके भोजनमें ये पवित्र भावनाएँ नहीं होतीं, इसीलिये होटलों में खानेवालोंकी मानसिक अवस्था दिनोदिन बिगड़ती चली जाती है और उनका घोर पतन हो जाता है। दूषित भावनाओं वाले अन्न में मनको बिगाड़ने का प्रभाव रहता है। मांसाहारी के हाथ का, अपवित्र मनुष्यके हाथका भोजन करनेसे भी मन दूषित हो जाता है। भूलकर भी बाजारों में बना, होटलोंका बना और चाहे जिसके हाथका बनाया भोजन कभी भी नहीं खाना चाहिये। अन्नग्रहण करने में यह अवश्य देख लेना चाहिये कि अन्न कहाँसे आ रहा है और किसके द्वारा बनाया हुआ है? उपनिषद्में कहा गया है
‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।
आहारकी शुद्धि से बुद्धि शुद्ध होती है, शुद्ध बुद्धि से अच्छी स्मृति बनती है और जब स्मृति परिपक्व हो जाती है तब हृदयग्रन्थियाँ टूट जाती हैं और तब साधक मोक्षका अधिकारी बन जाता है। शुद्ध अन्न ही मोक्षका अधिकारी बनाता है। आजकल जो लोग अपनेको उन्नत बताकर या फैशनमें आकर होटलों में खा-पी रहे हैं या चाहे जिसके हाथका बनाया भोजन खा-पी रहे हैं, वे घोर अनर्थ कर रहे हैं। इससे घोर पतन होता है ! बिना विचार किये होटलों का खाने से या चाहे जिसके हाथका खाने से शारीरिक रोग भी हो जाते हैं और मन भी दूषित हो जाता है। ऐसे मनुष्य भला मोक्ष के अधिकारी कैसे बन सकते हैं? घरका बना शुद्ध और पवित्र भोजन ही शरीर और मनको ठीक रख सकता है। होटलवाले तो बराबर यह देखते रहते हैं कि यह ज्यादा भोजन तो नहीं कर गया। वे चाहते हैं कि यह जितना थोड़े-से-थोड़ा खाय, अच्छा है। उनकी यह भावना शरीर में रोग पैदा कर देती है और वह भोजन अच्छी प्रकार से नहीं पचता। इसलिये बहुत सोच-समझकर भोजन करना चाहिये।
प्रश्न- महाराज ! बहुत-से मनुष्य अण्डा, मांस, मछली खाते हैं। प्याज, लहसुन, शलजम आदि खाते हैं, क्या यह ठीक है?
स्वामीजी– नहीं, ये सब भूलकर भी नहीं खाने-पीने चाहिये। इनके खानेसे बड़ा पतन होता है। जो बाहर का आनन्द लेना चाहते हैं, वे अंदरका आनन्द नहीं ले सकते। जो खानेपीने में और इन्द्रियों के तृप्त करनेमें ही लगे हुए हैं, उन्हें अंदरका असली आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता और वे योगके भी अधिकारी नहीं हो सकते। जो परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं, अंदरका असली आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, योगके अधिकारी बनना चाहते हैं उन्हें तो मांस, मछली, अण्डा, प्याज, लहसुन, शलजम आदि सभी तामसिक पदार्थ छोड़ने ही होंगे, इनके त्यागे बिना कुछ भी नहीं होगा।
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