Last Updated on July 30, 2020 by admin
- अनुपान – जिस पदार्थ के साथ दवा सेवन की जाए जैसे जल, शहद ।
- अपथ्य – त्यागने योग्य, सेवन न करने योग्य ।
- अनुभूत – आज़माया हुआ।
- असाध्य – लाइलाज।
- अजीर्ण – बदहज़मी।
- अभिष्यन्दि – भारीपन और शिथिलता पैदा करने वाला जैसे दही।
- अनुलोमन – नीचे की तरफ़ गति करना।
- अतिसार – बार-बार पतले दस्त होना।
- अर्श – बवासीर ।
- अर्दित – मुंह का लकवा ।
- आम – खाये हुए आहार को ‘जब तक वह पूरी तरह पच न जाए, ‘आम’ कहते हैं। अन्न नलिका से होता हुआ अन्न जहां पहुंचता है उस अंग को ‘आमाशय’ यानि ‘आम का स्थान’ कहते हैं।
- आहार – खानपान ।
- ओज – जीवनशक्ति ।
- उष्ण – गरम ।
- उष्णवीर्य – गरम प्रकृति का।
- कष्टसाध्य – कठिनाई से ठीक होने वाला ।
- कल्क – पिसी हुई लुगदी।
- क्वाथ – काढ़ा।
- कर्मज – पिछले कर्मों के कारण होने वाला ।
- कुपित होना – वृद्धि होना, उग्र होना।
- काढ़ा करना – द्रव्य को पानी में इतना उबाला जाय कि पानी जल कर चौथाई अंश शेष बचे, इसे काढ़ा करना कहते हैं।
- कास – खांसी।
- कोष्ण – कुनकुना गरम ।
- गरिष्ठ – भारी ।
- ग्राही – जो द्रव्य दीपन और पाचन दोनों कार्य करें और अपने गुणों से जलीयांश को सुखा दे जैसे सोंठ ।
- गुरु – भारी ।
- चातुर्जात – नाग केसर, तेजपात, दालचीनी, इलायची।
- त्रिदोष – वात, पित्त, कफ।
- त्रिगुण – सत, रज, तम।
- त्रिकुट – सोंठ, पीपल, कालीमिर्च।
- त्रिफला – हरड़, बहेड़ा, आंवला।
- तीक्ष्ण – तीखा, तीता, पित्त कारक ।
- तृषा – प्यास, तृष्णा।
- तन्द्रा – अधकच्ची नींद।
- दाह – जलन ।
- दीपक – जो द्रव्य जठराग्नि तो बढ़ाए पर पाचन-शक्ति न बढ़ाए जैसे सौंफ।
- निदान – कारण, रोग उत्पत्ति के कारणों का पता लगाना (डायग्नोसिस) ।
- नस्य – नाक से सूंघने की नासका।
- पंचांग – पांचों अंगफल, फूल, बीज, पत्ते और जड़।
- पंचकोल – चव्य, चित्रकछाल, पीपल, पीपलामूल और सोंठ ।
- पंचमूल बृहत – बेल, गम्भारी, अरणी, पाटला, श्योनाक।
- पंच मूल लघु – शालिपर्णी, पृश्रिपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली और गोखरु। (दोनों पंच मूल मिल कर दशमूल कहलाते हैं)
- परीक्षित – आज़माया हुआ।
- पथ्य – सेवन योग्य।
- परिपाक – पूरा पक जाना, पच जाना।
- प्रकोप – वृद्धि, उग्रता, कुपित होना ।
- पथ्यापथ्य – पथ्य एवं अपथ्य ।
- प्रज्ञापराध – जानबूझ कर अपराध कार्य करना ।
- पाण्डु – पीलिया रोग, रक्त की कमी होना ।
- पाचक – पचाने वाला, पर दीपन न करने वाला द्रव्य जैसे नाग केसर।
- पिच्छिल – रेशेदार और भारी।
- बल्य – बल देने वाला ।
- बृहण – पोषण करने वाला, टॉनिक ।
- भावना देना – किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना। जितनी भावना देना होता है उतनी ही बार चूर्ण को उसी द्रव्य के रस में गीला करके सुखाते हैं।
- मूर्छा – बेहोशी।
- मदात्य – अति मद्यपान करने से होने वाला रोग।
- मूत्र कृच्छ – पेशाब करने में कष्ट होना, रुकावट होना।
- योग – नुस्खा।
- योगवाही – दूसरे पदार्थ के साथ मिलने पर उसके गुणों की वृद्धि करने वाला पदार्थ जैसे शहद ।
- रेचन – अधपके मल को पतला करके दस्तों के द्वारा बाहर निकालने वाला पदार्थ जैसे त्रिफला, निशोथ ।
- रूक्ष – रूखा।
- लघु – हलका ।
- लेखन – देह की धातुओं को एवं मल को सुखाने वाला, शरीर को दुबला करने वाला जैसे शहद (पानी के साथ) ।
- वमन – उलटी।
- वामक – उलटी कराने वाला पदार्थ जैसे मैनफल।
- वातकारक – वात (वायु) को कुपित करने यानि बढ़ाने वाला पदार्थ ।
- वातज – वात दोष के कुपित होने पर इसके परिणाम स्वरूप शरीर में जो रोग उत्पन्न होते हैं उन्हें वातज यानि वात से उत्पन्न होना कहते हैं।
- वातशामक – वात (वायु) का शमन करने वाला, जो वात प्रकोप को शान्त कर दे । इसी तरह पित्तकारक, पित्तज और पित्तशामक तथा कफकारक, कफज और कफशामक का अर्थ समझ लेना चाहिए । इनका प्रकोप और शमन होता रहता है।
- विरेचक – जुलाब ।
- विदाही – जलन करने वाला।
- विशद – घाव भरने व सुखाने वाला।
- विलोमन – ऊपर की तरफ़ गति करने वाला।
- वाजीकारक – बलवीर्य और यौनशक्ति की भारी वृद्धि करने वाला जैसे असगन्ध, कौंच के बीज ।
- व्रण – घाव, अलसर ।
- व्याधि – रोग, कष्ट ।
- शमन – शान्त करना ।
- शामक – शान्त करने वाला ।
- शीतवीर्य – शीतल प्रकृति का।
- शुक्र – वीर्य ।
- शुक्रल – वीर्य उत्पन्न करने एवं बढ़ाने वाला पदार्थ जैसे कौंच के बीज ।
- श्वास रोग – दमा।
- शूल – दर्द।
- शोथ – सूजन।
- शोष – सूखना।
- षडरस – पाचन में सहायक छः रस – मधुर, लवण, अम्ल, तिक्त, कटु और कषाय।
- सर – वायु और मल को प्रवृत्त करने वाला गुण।
- स्निग्ध – चिकना पदार्थ जैसे घी, तैल।
- सप्तधातु – शरीर की साथ धातु-रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।
- सन्निपात – वात पित्त कफ तीनों के कुपित हो जाने की अवस्था, प्रलाप।
- स्वरस – किसी द्रव्य के रस को ही स्वरस (खुद का रस) कहते हैं। संक्रमणछूत लगना (इन्फेक्शन)
- हलका (खाद्य पदार्थ) – सुपाच्य (खाद्य पदार्थ) ।
- हिक्का – हिचकी।
- साध्य – इलाज के योग्य।
- वृष्य – पोषण और बलवीर्यवृद्धि करने वाला एवं घावों को भरने वाला।
- रसायन – रोग और बुढ़ापे को दूर रख कर धातुओं की पुष्टि और रोगप्रतिरोधक शक्ति की वृद्धि करने वाला पदार्थ जैसे हरड़, आंवला।
- श्लेष्मला: – कफ दोष युक्त
- पित्तला: – पित्त दोष युक्त
- वातला: – वात दोष युक्त
- संसृष्ट/ द्वन्द्वजं – दो दोष युक्त
- दीर्घ – लम्बा/अधिक समय तक
- रसे – पकी हुयी सब्जी का तरल भाग
- ललाट – माथा
- गोड – अनुबंध / कम व्यक्त होने वाली
- दिनचर्या – दिन भर में करने वाले काम
- वेग – कार्य की गति
- व्याधियाँ – रोग
- तीव्र – तेज़
- अंजन – नेत्र में काजल की जगह जो द्रव्य का प्रयोग होता है।
- तेजोमय – तेज से युक्त
- प्रसादन – प्रतिदिन जो बिना तकलीफ के प्रयोग कर सके
- सौवीर – यह अंजन का एक प्रकार है ।
- कर्कश – खुरदरा
- विलम्ब – देरी
- वर्त्म पक्ष – बरोनियो
- संचालित – हिलाना
- स्वादु – मधुर रस युक्त
- स्नेह – चिकनाहट
- शलाका – ठोस नाड़ी की तरह यंत्र जो अंजनादि लगाने में काम आता है
- वर्त्म – पलकें
- शेष – बाकी
- राजमाष – उड़द
- श्लक्ष्ण – चिकनी
- मुकुल – कली
- निषिद्ध – वर्जित
- वमन – मुख द्वारा शरीर की गंदगी निकालना
- ज्वर – बुखार
- अभिष्यन्द – नेत्र का एक रोग
- उपद्रव – बिगड़ जाने के बाद के लक्षण
- राग – गरम और लालिमा युक्त
- अश्रु – आँसू
- शीतल – ठंडा
- आश्च्योतन – नेत्र में औषध द्रव डालना
- प्रत्यांजन – प्रसादन अंजन
- धूम – औषध द्रव्य का धुआँ सेवन करना
- पीनस – नज़ला
- अर्धावभेदक – आधा शिर दर्द करना
- श्वास – सांस की बीमारी
- गलग्रह – गले की बीमारी
- स्त्राव – बहना
- पूतिघ्राण – नाक में दुर्गन्ध आना
- दन्तशूल – दांत दर्द
- शूल – दांत दर्द
- अरुचि – इच्छा न होना
- हनुग्रह – जबड़ा खुला रह जाना
- मन्यास्तम्भ – गर्दन अकड़ना
- कण्डू – खुजली
- कृमि – कीड़े
- वैस्वर्य – आवाज़ बिगड़ना
- गलशुण्डी – मुख की बीमारी
- उपजिव्हा – जिव्हा का रोग
- खालित्य – बाल झड़ना
- पिंजरत्व – शरीर की मांस पेशी सूखकर हड्डी शेष रहना
- तन्द्रा – आलस
- जड़ता – अकड़ना
- जत्रुसन्धि – कंधा
- प्रायोगिक – रोज एवं सुख से प्रयोग होने वाला
- नस्य – नाक में डालने की दवा
- पूर्व – पहले/पूरब दिशा
- आपान – कश
- वात/पित्त/कफ – ये ३ प्रकार के दोष है।
- प्रतिलोम – बालों की दिशा से उल्टी दिशा में
- आत्मवान पुरुष – संत मनुष्य
- ऋजु – सीधा
- पर्यय – आवृत्ति
- वर्ति – बत्ती
- पूर्व भाग – आगे का भाग
- मन्द – धीरे
- बाधा – कठिनाई
- सम्यक् – बराबर
- पश्चात् – बाद में
- रक्तपित्त – रक्त की बीमारी
- सन्तप्त – अच्छी तरह गरम
- मद – नशे की स्थिति
- आम दोष – दोष जो शरीर में चिपके रहते है
- प्रकोप – कुपित
- मूर्छा – बेहोशी
- भ्रम – चक्कर
- तृष्णा – प्यास
- क्षय – सूखे की बीमारी
- उर:क्षत – अंदर से छाती का छिलना
- तालुशोष – तालु का सूख जाना
- तिमिर – आँखो के सामने अंधेरा छाना
- शंखक – शिर की बीमारी
- रोहिणी – गले की बीमारी
- प्रमेह – मूत्र की बीमारी
- मदात्यय – मद्य ज्यादा पीने से उत्पन्न बीमारी
- दारूण – कठिन
- अनुगामी – पीछे पीछे चलने वाला
- सर्पि – घृत
- तर्पण – तृप्त करने वाला
- कपिल वर्ण – भूरे रंग का
- अर्दित – मुँह में लकवा
- कपाल – शिर की हड्डियाँ
- स्नायु – मांस को हड्डियों से जोड़ने वाला अवयव
- कण्डरायें – स्नायु के वो हिस्सा जो त्वचा के उपर से दिखता है
- तृप्त – संतुष्ट होना
- उर्ध्वजत्रु – कंधे से उपर
- सहसा – अचानक/तुरंत
- ग्रीवा – गला
- वक्षस्थल – छाती
- श्रोत्र – कान
- प्रतिमर्श – प्रतिदिन
- लघुता – हल्कापन
- स्त्रोत – शरीर के खाली मार्ग
- पुरीषोत्सर्ग – दस्त करना
- शिरोअभ्यंग – शिर की मालिश
- कवल – गरारे करना
- श्रम – काम से थकना
- क्लम – बिना काम से थकना
- स्तब्धता – रुक जाना
- दिवास्वप्न – दिन में सोना
- शोष – सूखा रोग
- अत्यन्त – बहुत
- हसित – हास परिहास
- द्रव – जलीय
- कपोल – गाल
- गृह – घर
- उत्तान – चित्त लेटना
- प्रदेशिनी अंगुली – तर्जनी अंगुली
- अग्र – आगे का हिस्सा
- नासा रन्ध्र – नाक के छेद
- सुखोष्ण – गुन गुना
- शुक्ति / पिचु – dropper
- बिन्दु – बूंद
- वाक् परिमित काल – एक अक्षर बोलने में लगने वाला समय
- माहेन्द्र जल – वर्षा में बारिश का पानी