Last Updated on July 22, 2019 by admin
बोध कथा हिंदी : hindi storie with moral
आगरा प्रान्तके दासपुर ग्राममें एक हरिजन के घर भगत रबिदासजीका जन्म हुआ। घरमें माता नहीं थी। पिता, बड़ा भाई और आप ये ही तीन प्राणी थे। इनको शिक्षा मिली जूता बनाना। अपढ़ होनेपर भी इनकी समझ ऐसी पवित्र और कीमती थी कि जिसकी याद करके मुझ-जैसे आठ कलम पास नवयुवक भीतरसे जाग उठते हैं।
जब रबिदास बारह सालके हुए, पिताने दो-दो रुपयेके पाँच जोड़े जूते बाजारमें बेच आनेके लिये आपको दिये। शामको आकर बापके हाथमें आपने पूरे आठ रुपये रख दिये। अंकगणितकी नजरसे दो रुपये गैरहाजिर पूछनेपर मालूम हुआ कि एक गरीब लकड़हारेको काँटे निकालते देख एक जोड़ा इनायत कर दिया। पिता चार आना नाराज हुआ। भाईने सोलह आना नाराजगी प्रकट करते हुए एक तमाचा इनाम दिया। रबि रो पडे। अपनी याद कर नहीं, काँटे निकालनेवालेकी यादसे। क्योंकि वह करुणाका पात्र था। सच है, जो करुणाको नहीं जानता, वही भक्तिको भी नहीं पहचानता।
सोलह सालकी उम्रमें आपको स्त्री मिली। एक दिन फिर सात जोड़ी जूते देकर आप बाजार भेजे गये। चौदहकी जगह ग्यारह रुपये लेकर आये। पूछनेसे ज्ञात हुआ कि तीन जोड़े जूते दिये गये आधे दामों में। कारण, वही गरीबीकी करुणा। पिता और भाईने मिलकर आपको अलहदा कर दिया।
दिया गया एक सूजा, एक रापी और छः रुपये नकद । आपने इस अन्यायके खिलाफ राजाके इजलासमें फरियाद नहीं की। एक घूरेके । पास झोपड़ी डाली और स्त्रीसमेत वहीं रहने लगे। एक तोता उर्फ गंगाराम भी पाल लिया। काम वही, परंतु गरीबोंको कम दाममें और अमूल्य जोड़ा दे डालना जारी रहा। गरीबपरवर स्त्री भी कुछ बाधा नहीं देती थी।
होते-होते बारह साल बीत गये। एक दिन भगवान् लक्ष्मीनारायणने । सोचा कि रबिदास सचमुच एक भक्त है। एम० ए० की तरह भक्तिका इम्तहान भी बारह साल बाद सामने आता है। भगवान् संसारके संरक्षकने सोचा कि यदि रबिदासको धन दे दिया जायगा तो वह धर्मकी ही उन्नति करेगा, पापकी तरक्की नहीं।
जब बादशाह किसी प्रजाके मकानपर खुफिया जायँगे, तब अपना वेश बदल लेंगे। इसी कानूनके अनुसार भगवान्ने अपनेको एक ब्राह्मण-सा बना लिया ताकि जगत्की आँखों में धूल छायी रहे।
फागुनका महीना था। सरसों फूल रही थी। झोपड़ीके बाहर गंगाराम अपने पिंजरेकी कील खींच रहे थे। तीतर पालतू यानी परतन्त्र बन सकता है, तोता नहीं! रबिदासकी स्त्री एक ओर बैठी। अपनी फटी चुनरी सी रही थी। एक ब्राह्मण आकर चुपचाप खड़ा ।
हो गया। रविदास भगत अपना काम नीची नजरके साथ कर रहे थे और गाते जाते थे
सुरति बिरहुलिया छाई निज देस।
जहाँ न गरमी जहाँ न सरदी,
तहाँ बसंत हमेस।
सुरति बिरहुलिया छाई निज देस॥ १॥
वहाँ न मूरत
वहाँ न सूरत
पूरन धनी दिनेस।
सुरती बिरहुलिया
छाई निज देस।। २ ।।
यह वह गीत था कि जिसने ब्रह्मरूप ब्राह्मणको भी समाधि दे दी।
ब्राह्मण बैठ गया। रविदासने देखा। वर्ण-व्यवस्थाकी रक्षा करते हुए चमारने ब्राहाणके चरणों में नमस्कार किया।
वर्तमानको बाबू पार्टीवाले अपने नमस्कारपर कम ध्यान देते हैं और नमस्कृत व्यक्तिके आशीर्वादपर अधिक। उस युगमें नमस्कारके बदलेमें कभी-कभी मारतक पड़ जाया करती थी। जो कलियुगमें घोर असभ्यता है। भगतको भगवानूने कोई आशीर्वाद न दिया; क्योंकि वे साकार आशीर्वाद देने आये थे।
भगवान्–रविदास !
भगत-महाराज !
भगवान्–मैं तुमपर हर तरहसे प्रसन्न हूँ। तुम्हारी क्या इच्छा है?
भगत–दे दो मुझे भगति, जिसे पा जानेसे फिर किसी चीजकी लालसा ही नहीं रहती।
भगवान्—वह तो स्वयं तुमने अपने ही पुरुषार्थसे प्राप्त कर ली। अब मैं तुमको अपनी ओरसे एक चीज देता हूँ।
भगत—जैसी मरजी।
भगवान्–देखो, यह एक छोटा-सा पारस है। विष्णुभगवान्ने मेरे द्वारा तुम्हारे पास भेजा है। रोज दोपहरको स्नानकर एक छटाँक लोहा इसमें छुआ देना, सोना हो जायगा। इस कामको छोड़ देना। अपने लिये एक हवेली और गरीबोंके लिये एक धर्मशाला बनाना। गाँवमें अन्नसे कोई दु:ख न पाये ! धनसे धर्म भी होता है, बड़ा भारी पाप भी। तुम धर्मकी सड़क कभी मत छोड़ना।
भगत-आपकी दयाका क्या कहना। नहीं तो, कोई काहेको ‘दीनबन्धु’ कहता? इस समय मैं अशुद्ध हूँ। आप अपने इस पारसको कपड़ेमें लपेट छप्परकी बतरमें खोंस दीजिये। दोपहरीमें जब स्नान करूंगा, तब याद रहा तो उठाकर ठाकुरजीकी पिटारीमें रख दूंगा।
ब्राह्मणने वैसा ही किया। होते-होते बारह साल बीत गये। तब लक्ष्मीके व्यवस्थापकने
सोचा कि आज चलकर भगत रविदासको चमत्कार देखना चाहिये कि क्या-क्या किया और क्या-क्या न किया।
रविदासने देखा कि वही ब्राह्मण सामने हैं। चमारने फिर ब्राह्मणको नमस्कार किया।
भगवान्-भगतजी !
भगत-महाराज !
भगवान्-वह पारस खो दिया या सोना नहीं बना अथवा कोई उसे चुरा ले गया? तुम्हारा तो वही हाल है। वही घूरा, वही झोंपड़ी।
भगत–जहाँ आप रख गये, वहीं देखिये।
भगवान्–(देखकर) सचमुच यह तो जैसे-का-तैसा रखा है। इसे छुआतक नहीं गया भगत !
भगत–महाराज !
भगवान्–मैं तो समझता था कि मैं ही परमात्माका एक बड़ा भारी भगत हूँ, लेकिन तुम तो मुझसे भी बढ़कर निकले! अब मुझे जरा अपना चरण तो छू लेने दो।
रबिदास-मैं चमार हूँ!
नारायण–लेकिन मैं आँवार हूँ!
रबिदास–सो कैसे?
नारायण–अभिमान हर हालतमें बुरा है, फिर चाहे वह विद्याका अभिमान हो या अविद्याका। मुझे विद्याका अभिमान है और तुमने दोनों अभिमानोंका बहिष्कार कर दिया। इसलिये तुम्हारी भक्तिकी कीमत मेरी भक्तिकी कीमतसे ज्यादा है। मैं पारसकी इज्जत करता हूँ, तुम पारस और पत्थरको एक-सा देखते हो।
रबिदास-मैं चमार, आप ब्राह्मण !
नारायण-मैं ब्राह्मण, तुम महाब्राह्मण ।
रविदास—यह देखिये, मेरा मस्तक पारस है।
इतना कह भगतने लोहेकी रापीसे ज्यों ही अपने मस्तकका पसीना पोंछा, त्यों ही वह काले लोहेसे पीला कुन्दन बन गयी। उसे कुएँमें डाल, वह दूसरी रापीसे काम करने लगा। ब्राह्मणने आकाशकी ओर हाथ जोड़कर कहा-‘हे अलख परमात्मन् ! आप इसी प्रकार हम-जैसे अपने अफसरोंका मद चूर करते रहा करें।
रबिदास–धन्य हो महाराज!
ब्राह्मण-रविदास भगतको मेरा नमस्कार है।