Last Updated on July 26, 2021 by admin
फाइलेरिया पूरे विश्व की एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या है। यह तीन प्रकार के कृमियों द्वारा होता है। रोग प्रमुख रूप से मच्छरों की क्यूलेक्स प्रजाति द्वारा फैलाया जाता है। माइक्रोफाइलेरिया के रूप में कृमि मनुष्य के रक्त में घूमता रहता है। जब मच्छर खून चूसता है तो यह मच्छर में पहुँच जाता है। फिर यही मच्छर अन्य मनुष्यों में रोग पहुँचाता है।
फाइलेरिया रोग की विश्व और हमारे देश में स्थिति :
फाइलेरिया विशेष रूप से अफ्रीका, एशिया और पश्चिमी अमेरिका में पाया जाता है। और 80 देशों के लगभग 12 करोड़ रोगी इस रोग से प्रभावित हैं।
भारत में भी यह प्रमुख स्वास्थ्य एवं सामाजिक समस्या है। यह बीमारी लगभग पूरे भारतवर्ष में होती है। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, केरल तथा गुजरात में ज्यादातर होती है। ऐसा माना जाता है कि लगभग दो करोड़ व्यक्तियों में यह बीमारी किसी न किसी रूप में मौजूद है तथा प्रतिवर्ष कई लाख नए रोगी इस रोग से ग्रस्त होते हैं।
फाइलेरिया कृमि (Filarial Worm)
फाइलेरिया कृमि आँतों में न रहकर खून में रहते हैं और आश्चर्य की बात यह है कि ये केवल रात्रि में ही खून में सूक्ष्मदर्शी यंत्रों के माध्यम से दिखते हैं। यही कारण है कि रोगी की जाँच के लिए रक्त रात्रि 10 बजे के पश्चात् लिया जाता है।
प्रौढ़ कृमि कुछ मिलीमीटर से लेकर चार सेंटीमीटर तक लम्बे हो सकते हैं। मादा बड़ी और नर छोटे होते हैं। ये कृमि मनुष्य के लसिका तंत्र में रहकर माइक्रोफाइलेरिया नामक शिशुओं को उत्पन्न करते हैं, जिन्हें जाँच में सूक्ष्मदर्शी द्वारा रक्त में देखा जाता है।
जीवन चक्र –
कृमियों का जीवन चक्र मनुष्य और मच्छरों में व्यतीत होता है। एक मादा कृमि 50,000 माइक्रोफाइलेरिया (शिशु कृमि) उत्पन्न करती है। जो लसिका वाहिकाओं द्वारा रक्त में पहुँच जाते हैं। वयस्क कृमि 15 वर्ष तक जिन्दा रह सकते हैं। मनुष्य इस कृमि का होस्ट अर्थात् मेजबान होता है और कृमि अपना पोषण भी इसी से ग्रहण करते हैं।
फाइलेरिया के लक्षण (Filariasis Symptoms in Hindi)
फाइलेरिया के क्या लक्षण होते हैं ?
जैसा कि पूर्व में बतलाया गया है कि यह रोग क्यूलेक्स नामक मच्छर के काटने से होता है।
इस रोग के लक्षण मिलने में 8 से 16 महीने तक का समय लग जाता है और बहुत से रोगियों में ऊपरी तौर पर कोई लक्षण नहीं मिलते हैं। जबकि उनके रक्त में माइक्रोफाइलेरिया होता है।
लेकिन कुछ रोगियों में लसिका तंत्र में प्रवेश के कारण कई तकलीफदेह लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और इस स्थिति को लिम्फेटिक फाइलेरियासिस कहते हैं।
इसके लक्षण निम्न हैं –
- रोग के आक्रमण के बाद पहले वर्ष रोगी की लसिका ग्रन्थियों (विशेषकर जाँघ की ग्रन्थियाँ) में सूजन आती है तथा अंडकोषों में भी सूजन आ जाती है। रोगी को बुखार एवं दर्द की शिकायत
भी होती है। पेशाब करने में भी तकलीफ हो सकती है। - रोग की दूसरी अवस्था : यह 10 से 15 वर्ष बाद आती है। इसमें लसिका वाहिनियों में रुकावट होने से अंगों में स्थायी सूजन आने लगती है और ये अंग बेडौल हो जाते हैं। जैसे-अंडकोष में स्थायी सूजन, या पैरों में स्थायी सूजन, जिसे हाथीपाँव कहते हैं। इनके अलावा हाथों, लिंग, योनि के बाहरी हिस्से, तथा स्तनों में भी इस तरह की सूजन आ जाती है।
फाइलेरिया का परीक्षण (Diagnostic Test for Filariasis)
फाइलेरिया का परीक्षण कैसे किया जाता है ?
फाइलेरिया के कृमि रात्री में सक्रिय होकर रक्त में नजर आते हैं। इसलिए रोगी के रक्त की जांच रात्री में 10 बजे के बाद की जाती है। रोगी के रक्त की स्लाइड बनाई जाती है।
फाइलेरिया का इलाज (Filariasis Treatment in Hindi)
फाइलेरिया का उपचार कैसे किया जाता हैं ?
दवा : फाइलेरिया के उपचार हेतु एकमात्र सुरक्षित और प्रभावी दवा डी.ई.सी. (डाइएथिल कारबामेजिन) है। यह दवा माइक्रोफाइलेरिया को नष्ट कर देती है। इस दवा को इलाज के लिए 12 दिन तक लेना होता है।
दवा के कुप्रभाव : दवा लेने के बाद उल्टी, सिरदर्द, चक्कर आना जैसी शिकायतें हो सकती हैं। लेकिन ये तीन दिनों बाद स्वत: ठीक हो जाती है।
बड़े पैमाने पर दवा लेना : ऐसे क्षेत्रों में जहाँ फाइलेरिया रोग अक्सर होता है। वहाँ की दो वर्ष से ऊपर की पूरी आबादी को उम्रानुसार दवा (डी.ई.सी.) खिलाई जाती है। इससे रोग के फैलने पर रोक लगती है। देश की पूरी आबादी को दवाई खिलाना सम्भव नहीं होता है। अत: ऐसे रोगियों को दवा खिलाते हैं जिनमें माइक्रोफाइलेरिया रक्त की जाँच के दौरान पाए जाते हैं तथा उनके साथ जो अन्य लोग रहते हैं उन्हें भी डी.ई.सी. गोलियाँ खिलाई जाती हैं। इससे रोग कम हो गया है। यह तरीका अपने देश में भी अपनाया गया है। (इस कार्यक्रम को एम.डी.ए. (M.D.A) कहते हैं।)
दवायुक्त (डी.ई.सी.) नमक का प्रयोग : ऐसे क्षेत्रों में जहाँ फाइलेरिया रोग बहुतायत से होता है लोगों को डी.ई.सी. की कम मात्रा युक्त नमक को उपयोग में लाने की सलाह दी जाती है। 1 किलो नमक में उसे 4 ग्राम तक दवाई की मात्रा को मिलाकर ऐसा नमक तैयार किया जाता है। इसे 6 से 9 महीने तक खिलाते हैं। यह तरीका सस्ता और प्रभावशाली भी है। भारत के लक्षद्वीप में इसका प्रयोग किया गया और बेहतर परिणाम मिले हैं।
फाइलेरिया पर नियंत्रण (Filariasis Control)
फाइलेरिया रोग की रोकथाम कैसे करें ?
जैसा कि बतलाया गया है कि इस रोग का मुख्य कारक क्यूलेक्स मच्छर है। यदि उसके लार्वा को नष्ट कर और मच्छरों को दूर रखा जाए तो काफी हद तक इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके लिए निम्न उपाय करते हैं –
A). लार्वा को नष्ट करना एवं प्रसार को रोकना – इसके लिए पानी एवं मल पदार्थों की निकासी की सही व्यवस्थाएँ की जानी चाहिए। अच्छा हो निकासी की व्यवस्था ढकी हुई या अंडर ग्राउंड हो। लेकिन यह बहुत महँगा कार्य है। अत:भारत जैसे देश में फिलहाल तो लार्वा नष्ट करनेवाली दवाई जिसे एम.एल.ओ. (मास्क्यूटो लार्वा-साइडल आयल) कहते हैं, का प्रयोग किया जाता है। लेकिन यह महँगा होने से अब इसकी जगह पायरेथ्रम तेल का उपयोग करते हैं। एक और तेल होता है जिसे पायरोसीन तेल कहते हैं। इसका 0.1 से 0.2 प्रतिशत घोल प्रभावशाली होता है।
आर्गेनोफास्फोरस कम्पाउंड वाले कीटनाशक जैसे टेमेफास और फेन्थिआन का उपयोग भी इसके लिए करते हैं। लेकिन अब मच्छरों की प्रजातियों ने कई रसायनों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर ली है। अत: रसायनों का उपयोग प्रति सप्ताह करने की सलाह दी जाती है। पानी के टैंकों का पानी बदलना:रुके हए पानी में भी पायरोसीन तेल डालना तथा उपयोग के टैंकों का पानी एक सप्ताह में बदलने से भी क्यूलेक्स मच्छरों के लार्वा पर रोक लगती है।
B). वयस्क मच्छरों पर नियंत्रण – अब डी.टी.डी. जैसे कीटनाशक फाइलेरिया के मच्छरों पर असर नहीं दिखलाते। अत: मच्छरदानियों का उपयोग सबसे अच्छा रहता है। आजकल दवायुक्त मच्छरदानियाँ उपलब्ध हैं। जो अत्यन्त उपयोगी होती हैं। मच्छर भगानेवाले साधनों, जैसे-धुआँ वाली क्वाइल या प्राकृतिक साधन नीम की पत्तियाँ या तेल का उपयोग भी मच्छरों से दूर रखने के लिए किया जा सकता है। लेकिन कृत्रिम रूप से बनाई गई धुएँ देनेवाली वस्तुएँ हानिकारक कीटनाशकों से युक्त होती हैं जिनका ज्यादा उपयोग शरीर को नुकसान भी पहुँचा सकता है। अत: मच्छरों को भगाने के लिए पुराने एवं प्राकृतिक साधनों का उपयोग ज्यादा सुरक्षित होता है।