Last Updated on July 22, 2019 by admin
ग्रह : रोग एवं दुर्घटनायें
विभिन्न ग्रह विभिन्न प्रकार के रोगों आदि की उत्पत्ति के कारक का काम करते हैं। इनके क्षेत्र एवं प्रभाव इस प्रकार हैं
१. सूर्य ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह अग्नितत्त्व से निर्मित (ऊर्जातत्त्व) मध्यम कद वाला शुष्क ग्रह है। यह पुरुषों के दायें एवं स्त्रियों के बायें शरीर पर प्रभाव डालता है। इसके बली होने पर नेत्र आयु, अस्थि, सिर, हृदय, प्राणशक्ति, रक्त, मेदा एवं पित्त पर प्रभाव डालता है।
अपमान से उत्पन्न ग्लानि से युक्त दुर्घटनायें।
२. चन्द्रमा ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह जलीयतत्त्व से निर्मित दीर्घ कद वाला ग्रह है। यह पुरुष के बायें एवं स्त्री के दायें भाग को प्रभावित करता है। इसके बली होने पर रक्तसंचार, उत्साह, मानसिकशक्ति, बायें प्राणवायु आदि की वृद्धि होती है। इसके निर्बल होने पर उत्साहहीनता, रक्तसंचार में मन्दता, कफरोग, पीलिया, वातरोग, नासिकारोग, मूत्रविकार, जलोदर, मुखरोग आदि की वृद्धि होती है। इसके निर्बल होने पर मानसिक रोग भी हो सकते हैं।
चन्द्रमा का प्रभाव शरीर में पुरुषों के बायें नेत्र, वक्ष, फेफड़े एवं उदर, मूत्राशय, वामरक्त प्रवाह, रसधातु शारीरिकशक्ति, मन तथा मस्तिष्क पर पड़ता है। स्त्रियों में यह प्रभाव दायीं ओर पड़ता है।
मस्तिष्क दोष से उत्पन्न हुई दुर्घटनायें।
३. मंगल ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह अग्नितत्त्व से निर्मित छोटे कद वाला ग्रह है। यह कपाल,कान, मडा, स्नायु, पुट्टे, शारीरिक शक्ति, धैर्य, पित्त, दाह, शोध, क्रोध, मानसिक तनाव आदि को प्रभावित करता है। इसके निर्बल होने पर रक्तविकार, उच्च रक्तचाप, रक्तस्राव व कुष्ठ, रक्तविकार से उत्पन्न फोड़े-फुन्सी, चोट, सूजन वात एवं पित्त विकार, महामारी से ग्रसित होने की स्थिति, दुर्घटनायें एवं दुर्घटनाओं से उत्पन्न रोग, गुप्त रोग, अग्निदाह, आदि में वृद्धि होती है।
उत्तेजना आवेग के कारण हुई दुर्घटनायें।
४. बुध ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह पृथ्वीतत्त्व से निर्मित सामान्य कद वाला जलीयग्रह है। यह जिह्वा, वाणी, स्वर, श्वास, ललाट, मज्जा के तन्तुओं, फुफ्फुस, केश, मुख, हाथ आदि को प्रभावित करता है। इसके निर्बल होने पर मानसिक रोग, हिस्टिरिया, चक्कर, निमोनिया, जटिल प्रकार के ज्वर, पीलिया, उदरशूल, मन्दाग्नि, वाणीविकार, कण्ठ के रोग, नासिका के रोग, स्नायुरोग आदि होते हैं।
मतिभ्रम एवं अज्ञानतावश हुई दुर्घटनायें।
५. बृहस्पति ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह आकाशीयतत्त्व से निर्मित मध्यम कद वाला जलीय ग्रह है। इसे गुरु भी कहा जाता है। यह वीर्य, रक्तप्रणाली, यकृत, त्रिदोष, कफ आदि को प्रभावित करता है। इसके निर्बल होने पर मज्जा के सत्त्व में विकार, यकृतरोग, उदररोग, मस्तिष्क विकार, प्लीहा रोग, स्थूलता, दन्तरोग, आलस्य, वायुविकार, मानसिक तनाव आदि उत्पन्न होते हैं।
हृदय से सम्बन्धित दुर्घटनायें।
६. शुक्र ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह जलीयतत्त्व से निर्मित मध्यम कद वाला ग्रह है। यह जननेन्द्रिय की सबलता, कामशक्ति, शुक्राणु नेत्र, कपोल, ठुड्डी, गर्भाशय, संवेग (आवेश) आदि को प्रभावित करता है। इसके निर्बल होने पर वीर्य सम्बन्धी दुर्बलता, यौनशक्ति एवं कामशक्ति की दुर्बलता, जननेन्द्रिय दुर्बलता, जननेन्द्रिय विकार, यौनरोग, नशे से उत्पन्न विकार, विषप्रभाव, प्रमेह, उपदंश, प्रदर, पीलिया, कफरोग, वायुरोग आदि होते हैं।
कामभाव एवं लालचवश किये गये कर्मों से उत्पन्न दुर्घटनायें।
७. शनि ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह वायुतत्त्व वाला, मस्तिष्क, रक्त, त्वचा, वात आदि को प्रभावित करता है। इसके दुर्बल होने पर पशुओं से हुई शारीरिक क्षति; सर्प, कुत्ते, कीड़े-मकोड़े के काटने, दम्मा, अंग-भंग, दुर्घटनायें, निराशा का आवेग, मानसिक अन्तुलन, आत्महत्या, हत्या, अपराधिक प्रवृत्ति से उत्पन्न दुर्घटनाओं से प्रभावित होता है।
दर्भाग्यवश एवं आक्समिक संकट के रूप में आयी दुर्घटनायें।
८. राहु ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह वायुतत्त्व से निर्मित मध्यम कद वाला ग्रह है। यह मस्तिष्क, रक्त, वायु आदि को प्रभावित करता है। इससे मृगी, मानसिक विक्षिप्तता, चेचक, कृमि प्रकोप, सर्पदंश, पशुओं से दुर्घटना, कुष्ठ, कैंसर आदि होते हैं।
षड्यंत्र के फलस्वरूप उत्पन्न दुर्घटनायें। यह षड्यंत्र अपना भी हो सकता है, शत्रु का भी।
९. केतु ग्रह के रोग और अशुभ प्रभाव :
यह वायुतत्त्व से निर्मित छोटे कद वाला ग्रह है। यह रक्त, त्वचा एवं वात को प्रभावित करता है। इसके निर्बल होने पर शरीर की श्रमशक्ति, प्रतिरोधशक्ति, सक्रियता आदि निर्बल होती हैं। इससे उत्पन्न रोग भी प्रभावित करते हैं। शरीर के बाहरी स्वरूप पर लगने वाली आघातें।
विशेष :
१. उपर्युक्त ग्रहों के बली होने पर विपरीत प्रभाव होता है। अर्थात् सम्बन्धित क्षेत्र में आरोग्यता प्राप्त होती है।
२. ज्योतिष में ग्रहों की व्याख्या प्रभाव के अन्तर्गत की गयी है, इसलिए अग्नि, जल और वायुतत्त्व की व्याख्या को ग्रहों के भौतिक स्वरूप से तुलना करना अज्ञानता का ही परिचायक होगा।
३. वैदिक-विज्ञान में प्रवृत्ति को अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु एवं आकाश से निर्मित बताया गया है। इस सिद्धान्त की आधुनिक विज्ञान में बड़ी आलोचना की गई हैं, किन्तु यह पदार्थ के विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या है। यह एक अलग प्रकार का विश्लेषण है, जिसमें कहा गया है कि अग्नि (ऊर्जा), वायु (गैस) जल (तरलता), पृथ्वी (स्थूलता, ठोस भाव) ये चार मिलकर किसी पदार्थ का निर्माण करते हैं और पाँचवाँ तत्त्व आकाश उसकी सारशक्ति को नियंत्रित करके अपने अन्दर स्थित रखता है। सारा भ्रम इन शब्दों के आधुनिक अर्थ से उत्पन्न होता है।