Last Updated on July 22, 2019 by admin
भारत ही नहीं, अपितु समस्त विश्व में रोगों के बढ़ते हुए स्वरूप को देखकर मन में दु:ख होना स्वाभाविक ही है। वास्तव में काल, इन्द्रियार्थ और कर्म का हीन योग, मिथ्या योग और अति योग रोग के कारण होते हैं। उक्त क्रियाओं से पञ्चतत्त्वों में विषमता आ जाती है। यह विषमता प्रकृति में भी विकृति लाती है और हमारे शारीरिक तत्त्वों को भी विकृत करके रोग का कारण सिद्ध होती है।
आज संसारके प्राणियों की जैसी स्थिति है, वैसी स्थिति का वर्णन हमें आयुर्वेद में मिलता है। एक बार संसार के प्राणियों के दु:ख से दु:खी हो ऋषि-महर्षि उनके कल्याण की कामना से औषधियों के लिए हिमालय पर आये। सहस्रचक्षु देवराज इन्द्र ने इन सभी ऋषि-महर्षियों को देव-भूमि में आया देखकर उनका स्वागत किया और उनके आगमन का प्रयोजन पूछा। इसपर ऋषियों ने कहा कि देवराज ! संसार में मनुष्य बहुत ही शारीरिक एवं मानसिक कष्ट पा रहे हैं। क्या उनके कल्याण का कोई मार्ग नहीं है। चिन्तित देवराज इन्द्र ने उत्तर देते हुए स्पष्ट किया कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने प्रजापति को आयुर्वेद का ज्ञान कराया। तदनन्तर प्रजापति ने अश्विनीकुमारों को और अश्विनीकुमारों ने मुझे जनकल्याणार्थ आयुर्वेद का उपदेश किया था। आयुर्वेद प्रोक्त उन्हीं दिव्य महौषधियों के विषय में मैं आप सबको बताऊँगा। आप सब ध्यान देकर सुनें-महर्षियो ! इस हिमालयप्रदेश में अगम्य स्थानों पर कठिनता से प्राप्त होनेवाली ऐसी अनेक औषधियाँ हैं, जो कि देवताओं को प्रिय हैं और जिनके प्रभाव भी दिव्य ही होते हैं। इनमें अनेक औषधियाँ तो साधारण मनुष्यों को दिख भी नहीं पातीं, इनकी प्राप्ति के लिये पूर्ण तपोमय जीवन, त्याग तथा सात्त्विक भावना, ब्रह्मचर्य जीवन और लोक-कल्याणकारी विचार होना परम आवश्यक होता है।
आप-जैसे महानुभावों को उनका ज्ञान कराते हुए मुझे जरा भी संकोच नहीं हो रहा है। असंख्य दिव्य औषधियोंमें से कुछ इस प्रकार हैं-
ऐन्द्री, पयस्या, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, श्रावणी, महाश्रावणी, शतावर, विदारीकन्द, जीवन्ती, पुनर्नवा, नागबाला, स्थिरा, बचा, क्षत्रा, अतिक्षत्रा, मेदा, महामेदा, काकोली, जीवक, ऋषभक, मधुयष्टी,मुद्गपर्णी तथा माषपर्णी आदि। इन औषधियों की जब आप आवश्यकताका अनुभव करें तो सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त में पवित्र होकर शुभ भावना से इनके समक्ष जाकर इन्हें सम्बोधित करते हुए लोक कल्याण का अपना उद्देश्य बतायें, वनस्पतियों में प्राण होते हैं। तदनन्तर ‘मैं आपको | ग्रहण करना चाहता हूँ’, ऐसा विचार प्रकट कर शुभ दिन, शुभ काल का निमन्त्रण दें। फिर पवित्र होकर उस शुभ दिन, शुभ काल में मन्त्रों से इन्हें अभिमन्त्रित करते हुए औषधियों को किसी भी प्रकार का क्लेश न हो, इसका ध्यान रखते हुए इनका उत्पाटन करें अर्थात् उखाड़े। इस विधि से ग्रहण की हुई औषधियों का सेवन दुःखी प्राणियों को विधिपूर्वक गायके दूधके साथ कराना चाहिये।
देवराज के मुखसे दिव्य औषधियों के नाम तथा विधि जानकर सभी ऋषि-महर्षि गद्गद हो गये। पुनः उन्होंने प्रश्न किया कि हे देवताओं के देव ! कृपया हमें यह भी निर्देश करें कि इन औषधियोंका विशेषरूप से प्राणियों पर क्या प्रभाव होता है?
इन्द्र बोले-‘इन दिव्य औषधियों के सेवन से मनुष्यों की आयु तरुण रहेगी। आरोग्य को प्राप्त होकर शरीर का वर्ण भी सुन्दर होगा, आवाज भी सुन्दर होगी और शरीर पुष्ट होकर बुद्धि-स्मृति भी पुष्ट होगी। परिणाम स्वरूप बल की वृद्धि होकर सभी आकाङ्क्षाएँ पूर्ण होती हैं। तदनन्तर देवराज इन्द्र बोले कि मेरी | इच्छा है कि आप सब जनकल्याण के हेतु इन दिव्य
औषधियों की जानकारी मनुष्यों को करायें।
देवराज इन्द्रके ये वचन सुनकर सभी ऋषि बोले कि | हे देवेश ! हम आपकी आज्ञाका पूर्णरूप से पालन करेंगे।
तदनन्तर देवराजकी आज्ञा लेकर सारे ऋषि-समुदायने अपने-अपने आश्रमों की ओर प्रसन्नमुद्रा में प्रस्थान किया। | देवराज इन्द्र से भारद्वाज ऋषि ने दिव्य औषधियों का वर्णन सुनकर यथावत् पुनर्वसु आत्रेय को सुनाया। महर्षि आत्रेय ने उसे अपने छः शिष्यों को समझाया। शिष्यों ने भलीभाँति समझकर अपने-अपने ग्रन्थ रचे, जिनमें कि इन औषधियों का वर्णन मिलता है। इन्हीं दिव्य औषधियों का । यहाँ संक्षिप्तरूप में वर्णन किया जा रहा है ….
१-ऐन्द्री (इन्द्रायण) की पहचान,लाभ एवं उपयोग :
यह औषधि दो प्रकार की होती है-सफेद पुष्पवाली और लाल पुष्पवाली। कहीं-कहीं पीले पुष्पवाली ऐन्द्री को इन्द्रावारुणी, गवादनी, मृगादनी, विषाध्वनि, गवाक्षी तथा सूर्या नामसे सम्बोधित किया जाता है।
१. लाल इन्द्रायण-इसे विशाला, महाफला, चित्रफला, त्रयूसी, रम्यादिहीवल्ली, महेन्द्र वारुणी-इन नामों से सम्बोधित किया गया है।
२. श्वेतपुष्पी–अर्थात् बड़ी इन्द्रायणी को मृगाक्षी, नागदन्ती, वारुणी, गर्जचिभटा-इन नामों से जाना जाता है।
इन औषधियों की लता होती है जो कि भारत में सर्वत्र देखी जाती है। इसका स्वाद दो प्रकारका होता है कड़वा एवं मीठा । औषधियों में कड़वी इन्द्रायणी का ही प्रयोग होता है। इसकी बेल जमीन पर फैलती है। बेल के पत्ते कई कोणवाले होते हैं। बेल में फल एवं फूल भी लगते हैं।
उपयोग-
इसका प्रयोग पेट की शुद्धि के लिये होता है। मूढगर्भ को निकालने के लिये भी इसका सफल प्रयोग होता है। उदर-संस्थान के सभी रोगों पर इसका हितकारी प्रभाव होता है। पित्त की विकृति में भी यह बड़ी लाभदायक होती है।
२-ब्राह्मी की पहचान,लाभ एवं उपयोग :
यह औषधि हिमालय पर विशेष प्रकार से प्राप्त होती है। सभी स्थानों पर जो ब्राह्मी मिलती है, वह वास्तव में ब्राह्मी का भेद मण्डूकपर्णी नामक औषधि है। असली ब्राह्मी हिमालय एवं पंजाब के पर्वतीय भागों में मिलती है। इसे संस्कृत में कपोतबंका, सरस्वती, सोमवल्ली-इन नामों से जाना जाता है। इस वनस्पतिके छोटे-छोटे गोल पत्ते होते हैं, जो कि पृथक्-पृथक् तने से सम्बन्धित होते हैं। यह जलयुक्त एवं जल के निकटवर्ती भागों में उत्पन्न होती है। इसमें फूल भी लगते हैं।
उपयोग–
ब्राह्मी का उपयोग विशेषकर मस्तिष्क-रोग एवं वातनाडी की विकृति पर होता है। यह अपस्मार, उन्माद तथा हृदय के लिये हितकारी है। यह शीतल होती है और परम रसायन मानी गयी है। ब्राह्मी कुष्ठ, प्रमेह, रक्तविकार, पाण्डु तथा शोथ के लिये विशेष हितकारी होती है।
३-शंखपुष्पी की पहचान,लाभ एवं उपयोग :
यह औषधि हिमालयकी चार हजार फुटकी ऊँचाईतक प्राप्त होती है। यह सीलोन, बर्मा तथा अफ्रीका के कुछ भागों में भी प्राप्त होती है। इसे प्राचीन ग्रन्थों में शंखहवा, शंखा, मांगलय, कुसमा-इन नामों से सम्बोधित किया गया है। इसके क्षुप (छोटे तने या झाड़) जलासन्न भूमि में पैदा होते हैं। यह एक हाथतक ऊँचा होता है। इसमें अनेक शाखाएँ होती हैं। पत्ते पतले और लम्बे शङ्की तरह आवर्तित होते हैं। इसके पुष्प श्वेत, रक्त एवं नील वर्ण के होते हैं। परंतु व्यवहार में आनेवाली शंखपुष्पी श्वेतपुष्पी ही श्रेष्ठ एवं उपयोगी होती है।
उपयोग-
यह उष्णवीर्य एवं रसायन होती है। मेधा के लिये अत्यन्त लाभकारी है। मानसिक विकारों को तथा अपस्मार को नष्ट करती है। स्वर एवं कान्ति तथा निद्रा लाने के लिये परम उपयोगी है।
४-जीवन्ती की पहचान,लाभ एवं उपयोग :
इसे संस्कृत में मधुश्रवा भी कहते हैं। यह एक प्रकार की बेल होती है जो काफी ऊँची बढ़ जाती है। यह औषधि हिमालय के अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्र में प्राप्त होती है और तोड़ने पर छः महीने तक नहीं सूखती।
उपयोग-
यह वायु, पित्त एवं कफ-इन तीनों दोषों को नष्ट करनेवाली होती है। यह परम रसायन, बलकारी, नेत्रों के लिये हितकारी, दस्त बाँधने वाली और शीतवीर्य औषधि है। यह वीर्य वर्धक होती है। सभी महर्षियों ने इसका प्रयोग शाक में श्रेष्ठ माना है। इसकी जड़का चूर्ण तीन ग्राम की मात्रा में दूध के साथ सेवन करना चाहिये। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार के विष से ग्रसित हों, जिन्हें रात को कम दिखायी देता हो, ऐसे
व्यक्तियों के लिये यह परम हितकारी है।
५-ब्रह्मदण्डी की पहचान,लाभ एवं उपयोग :
इसे अजदण्डी भी कहते हैं। इसका एक प्रकारका क्षुप (तना) होता है जो एक फुट से चार फुट ऊँचा होता है। इसके पत्ते एकसे तीन इंच लम्बे होते हैं।
उपयोग-
ब्रह्मदण्डी उष्णवीर्य होती है। यह वायु एवं कफ को नष्ट करती है। इसका विशेष प्रयोग स्मृतिवर्धनादि तथा श्वेतकुष्ठ, चर्मरोग एवं कृमिनाशके लिये होता है। यहअपस्मार, उन्मादपर भी विशेष लाभकारी होती है। क्लीबता नष्ट करने के लिये इसका सफल प्रयोग होता है। इसका ठंडई के रूपमें भी प्रयोग होता है। कुछ महर्षियों के मत से यह पारद को बाँधने के लिये भी सफल सिद्ध है। ब्रह्मदण्डी हिमालय के अतिरिक्त महाबलेश्वर, मद्रास, मैसूर तथा मध्य भारतके पर्वतोंपर भी उपलब्ध होती है।
६-रुद्रवन्ती की पहचान,लाभ एवं उपयोग :
इसे चणपली तथा संजीवनी भी कहते हैं। इस औषधि के छोटे-छोटे छ:से अठारह इंच ऊँचे क्षुप | (तने) होते हैं, जिनमें अनेक शाखाएँ एवं अनेक छोटे छोटे चने के समान पत्ते होते हैं। इसकी उत्पत्ति उष्ण प्रदेशों में तथा सीलोन में होती है।
उपयोग-
यह उष्णवीर्य, परम रसायन औषधि है तथा क्षय, कास, श्वास, प्रमेह, रक्तपित्त, कृमिरोग को नष्ट करती है। इस के पत्ते का चूर्ण दो से चार ग्राम की मात्रा में जल या दूध के साथ सेवन करना उपयुक्त है।
उक्त नामों से आजकल जो औषधियाँ प्रचलित हैं, उनके सम्बन्धमें अभीतक भिन्न-भिन्न आचार्यों के मतों की सुनिश्चित धारणा नहीं बन पायी है। इन दिव्य औषधियों की वास्तव में जानकारी तथा इनकी उपलब्धि न होने के कारण तद्गुणसमा (उनके समान गुणधर्मवाली) औषधियोंका ही प्रयोग हो रहा है।
पौराणिक कथा है कि दीर्घकाल से घोर तपस्या में लीन महर्षि भार्गव (च्यवन)-का सम्पूर्ण शरीर मिट्टी से ढक गया, केवल उनके नेत्र खुले रह गये थे। राजा शर्यातिकी पुत्री सुकन्या ने भ्रम से महर्षि के नेत्रों को शलाका से बींध दिया। फलस्वरूप उनमें से रक्त प्रवाहित हो उठा। शाप के भयसे राजा शर्याति ने महर्षि की सेवा-शुश्रूषा के लिये अपनी कन्या का उनसे विवाह कर दिया।
सुकन्या एक दिन सरिता के तटपर जल भरने गयी थी। वहाँ उसे अप्रतिम सौन्दर्य वाले अश्विनी कुमारों के दर्शन हुए। सुकन्या की परिस्थितिपर उन्हें दया आयी और उन्होंने उसे एक प्रयोग बताया। उसके फलस्वरूप महर्षिकी नेत्रज्योति लौट आयी और वे पूर्णरूपसे युवा भी हो गये। यही च्यवन ऋषिके नाम से प्रख्यात हुए। इन्होंने जिन औषधियों का सेवन कर पुनर्जीवन प्राप्त किया था, उनके वर्णन विशेषरूपसे इन नामोंसे प्रचलित हैं| जीवक, ऋषभ (ऋषभक), मेदा-महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, मुद्गपर्णी, मांसपर्णी, जीवन्ती और मुलहठी। इन औषधियों के साथ ऋद्धि तथा वृद्धि को मिला देनेसे अष्टवर्ग बनता है।
७-जीवक-ऋषभक :
ये दोनों औषधियाँ हिमालय पर्वतपर उत्पन्न होती हैं। इनके कन्द लहसुन के समान होते हैं। भीतर से ये कन्द खोखले होते हैं। इनके पत्र सूक्ष्म होते हैं। जीवक का आकार कूर्चा तथा ऋषभक का बैल के सींग के समान होता है।
८-मेदा-महामेदा :
इनकी उत्पत्ति भोरंग प्रदेश में होती है। महामेदा सूखे अदरक के समान होती है। इसकी लता पीले रंग की होती है। मेदा का वर्ण श्वेताभ होता है। खुरचने पर इसमें से मेद धातुके समान द्रव भी निकलता है।
९-काकोली :
क्षीरकाकोली–इनकी भी उत्पत्ति भोरंग देशमें मानी जाती है। काकोली कुछ कृष्णवर्ण असगन्ध के आकार की होती है। क्षीरकाकोली श्वेतवर्णकी पीवरी असगन्ध के समान होती है। इसमें गन्धयुक्त दूध का स्राव होता है।
१०-ऋद्धि-वृद्धि:
इनकी उत्पत्ति श्यामल प्रदेशमें मानी गयी है। ऋद्धि का फल कपास की गाँठ की भाँति बायें से दायें तथा वृद्धि का दायें से बायें की ओर घूमा हुआ होता है।
उपर्युक्त औषधियाँ हिमालय पर्वतपर प्राप्त होती हैं। इनमें कच (काँटे) होते हैं। वैसे आजकल ये औषधियाँ दुर्लभ ही हैं।
संक्षिप्त में ये औषधियाँ :
धातुओं को पुष्ट करने, वीर्य बढ़ाने तथा शारीरिक और मानसिक तत्त्व वृद्धि में अति गुणकारी होती हैं। साथ ही कफ को बढ़ानेवाली, स्त्रियों के दूध में वृद्धि करने वाली तथा गर्भदायक भी मानी गयी हैं। पित्तविकार, दाह, शोक, ज्वर, रक्तपित्त, प्रमेह तथा क्षय रोगों में भी इनका प्रयोग अति प्रभावशाली सिद्ध होता है। वृद्धावस्था को समाप्त कर नवयौवन प्राप्त करने में भी ये औषधियाँ काफी लाभप्रद हो सकती हैं। इन औषधियों की दुर्लभता सी है। अतः इनके गुणों का प्रतिनिधित्व करनेवाली अन्य औषधियाँ भी खोजी गयीं। चिकित्सकों ने मेदा, महामेदा,काकोली, क्षीरकाकोली के स्थानपर शालम मिश्री, शकाकुल मिश्री, बहुमन सफेद तथा बहुमन सुर्ख को उपयोग में लाने की बात कही है। आचार्य भावमिश्र ने भी महा मेदा के लिये शतावर, जीवक तथा ऋषभक के लिये विदारीकन्द, काकोली, क्षीरकाकोलीके लिये अश्वगन्धा, ऋद्धि और वृद्धिके लिये वाराही कन्दका उपयोग करनेके लिये कहा है।
इन चारों औषधियों के मूल-कन्द ही उपयोग में आते हैं। इनके गुणों में भी समानता पायी जाती है। ये भारी, शीतल, स्वादिष्ठ, वीर्यवर्धक तथा जीवनीय शक्तियों को बढ़ानेवाली होती हैं। नेत्रों की दुर्बलता को भी नष्ट करने में सहायक होती हैं।