Last Updated on August 20, 2019 by admin
मजे की बात देखिए कि बीमार होना कोई नहीं चाहता फिर भी बीमार होते ही हैं, दु:खी होना कोई नहीं चाहता फिर भी दु:खी होते ही हैं और मरना कोई नहीं चाहता फिर भी मरते ही हैं। यह मजबूरी हम सबके सामने मौजूद है। हम सब जानते हैं कि कई चीजें ऐसी हैं जो हमारे वश में नहीं और हम वैसा नहीं कर पाते जैसा हम करना चाहते हैं या जैसा हमें करना चाहिए। प्रकृति के कुछ अटल नियम ऐसे हैं जिनका बदलना हमारे वश में नहीं है। हम उन नियमों का या तो पालन कर सकते हैं या उनकी अवहेलना कर सकते हैं, विरोध भी कर सकते हैं पर उन्हें बदल नहीं सकते । इस स्थिति को मद्देनजर रखकर हमें इस प्रश्न पर विचार करना होगा कि हम बीमार क्यों होते हैं।
आयुर्वेद ने अलग-अलगहेतु से रोग होने के कई कारण बताए हैं । जैसे अष्टांग हृदय सूत्र स्थान में लिखा है-
कालार्थ कर्मणां योगोहीनमिथ्याऽतिमात्रकः।
सम्यग्योगश्च विज्ञेयो रोगोरोग्यैककारणम् ॥
अर्थात् काल, अर्थ, और कर्म-इनका हीन योग, मिथ्या योग और अति योग- होना रोग का कारण होता है । काल, अर्थ और कर्म इनका सम्यक योग होना आरोग्य का कारण है।
यह काल, अर्थ और कर्म क्या हैं और हीन, मिथ्या एवं अति योग क्या है, इसकी चर्चा हम विस्तार से बाद में करेंगे अभी योग के विषय में थोड़ा खुलासा कर देते हैं।
हीनयोग-
इंद्रियों का अपने विषय से कम संबंध होना ‘हीन योग’ होना होता है ।
मिथ्या योग-
अनुचित या विपरीत संयोग होना ‘मिथ्या योग’ है ।
अतियोग-
जरूरत से ज्यादा संयोग होना अति योग होता है।
ये तीने प्रकार के योग, रोग उत्पन्न करने में कारण होते हैं । इंद्रियों का अपने विषय से सामान्य और उचित संयोग होना ‘सम्यक योग’ है और यह ‘सम्यक योग’ आरोग्य का कारण है यानि आरोग्य का एक आधार-स्तम्भ है।
भावप्रकाश में लिखा हैरोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसम्यमरोगता।
रोगा दुःखस्य दातारो ज्वरप्रभृतयो हिते॥
अर्थात – दोषों का विषम हो जाना रोग का कारण है और दोषों का समान अवस्था में रहना आरोग्य का कारण है।
रोग प्राणियों को दु:ख देने वाले होते हैं जैसे ज्वर आदि कहे जाने वाले रोग।
रोगों के प्रकार और उनके कारण :
रोग को व्याधि भी कहते हैं क्योंकि ‘तद दु:ख संयोगा व्याधय उच्यन्ते‘ (सुश्रुत संहिता) के अनुसार जिसके संयोग (मिलने) से दु:ख हो उसे ‘व्याधि’ कहा गया है। भावप्रकाश ने रोग के चार भेदभी बताये हैं –
यथातेचस्वाभाविका: केचित्केचिदागन्तव: स्मृताः।
मानसा: केचिदाख्याता:कथिता:केऽपिकायिका:॥
अर्थात रोग चार प्रकार के होते हैं-
(1) स्वाभाविक रोग
(2) आगंतुक रोग
(3) मानस रोग और
(4) शारीरिक रोग
इस तरह रोगों के चार प्रकार कहे गये हैं।
स्वाभाविक रोग –
जन्म से ही जो रोग होते हैं वे स्वाभाविक या सहज रोग कहे जाते हैं जैसे जन्म से ही अंधा होना, बहरा व गूंगा होना, नपुंसक होना, स्त्री का बांझ होना, अपंग होना, शुक्राणु रहित होना आदि रोग जन्मजात होने से स्वाभाविक रोग कहे जाते हैं । इन रोगों का कारण, जीवात्मा का कोई पूर्व कर्म होता है।
आगन्तुक रोग –
जो रोग जन्म के बाद बाहरी (आगन्तुक) कारण से हों, जैसे चोट लगने, संक्रमण (Infection) हो जाने, जल जाने आदि से उन्हें आगन्तुकरोग कहा गया है।
मानस रोग –
जो रोग मानसिक कारणों से हों जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, अहंकार, शोक, ईर्ष्या आदि के वेगों को न रोकने से उत्पन्न होने वाले रोगों को ‘मानस रोग’ कहा गया है जैसे काम वेग से कामोन्माद, क्रोध से पागलपन, लोभ से भ्रम आदि रोग।
शारीरिक रोग –
शारीरिक रोग वे होते हैं जो शरीर में विकार के रूप में उत्पन्न होते हैं जैसे ज्वर, पाण्डु, अतिसार आदिरोग।
सुश्रुत संहिता में भी रोग चार प्रकार के ही बताये गये हैं यथा- ते चतुर्विधा:- आगन्तव:, शारीरा मानसा: स्वाभाविकाश्चेति‘ (सूत्र स्थान) अर्थात् आगन्तुक, शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक-ये रोग के चार प्रकार हैं । ‘त एते मन:शरीराधिष्ठाना:’ के अनुसार ये चारों प्रकार के रोग मन और शरीर का आश्रय लेकर उत्पन्न होते हैं।
वैसे रोगों के मुख्य भेद दो ही हैं यथा ‘निजागन्तुविभागेन तत्र रोगा द्विधा स्मृताः‘ (अष्टांग हृदय) यानि रोग दो प्रकार के होते हैं-निज और आगन्तुक।
जो रोग शारीरिक कारणों से और अनुचित आहार-विहार और आचार-विचार के कारण शरीर के अंदर ही पैदा होते हैं उन्हें निज रोग कहते हैं। जो रोग बाहरी कारणों से, शरीर में रोगकारी तत्वों के प्रभाव के पहुंचने पर पैदा होते हैं उन्हें आगंतुक रोग कहते हैं।
आगन्तुक व निज रोगों की परिभाषा चरक संहिता में इस प्रकार प्रस्तुत की गई है –
आगन्तुर्हि व्यथापूर्व समुत्पन्नौ जघन्यं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यमापादयति, निजे तु वातपित्तश्लेष्माण: पूर्व वैषम्यमापद्यन्ते, जघन्यं व्यथामभिनिवर्तयन्ति॥ (सूत्रस्थान)
अर्थात आगन्तुक रोग पहले शरीर में कष्ट उत्पन्न करता है और वात, पित्त, कफ की विषमता बाद में पैदा होती है जबकि निज रोग में पहले वातादि दोषों की विषमता होती है, बाद में कष्ट उत्पन्न होता है।
रोगों के कारण भेद :
आयुर्वेद के मतानुसार आगन्तुक और निज रोगों के अंतर्गत ही सारे रोग आ जाते हैं। विभिन्न कारण जुड़ते जाते हैं और रोगों की संख्या बढ़ती जाती है। ‘विकारा: पुनरपरिसंख्येया: प्रकृत्यधिष्ठानलिङ्गायतन विकल्पविशेषा परिसंख्येयत्वात्’ (चरक संहिता) के अनुसार रोग की प्रकृति (निकटतम कारण), अधिष्ठान (स्थान), लिंग (लक्षण) और आयतन (दुष्ट आहार-विहार-आचार आदि बाहरी हेतु)इनके विकल्प असंख्य होते हैं इसलिए रोग भी असंख्य होते हैं । बात जरा उलझी हुई और अस्पष्ट है अत: इसे जरा खुलासा करके लिखते हैं।
सामान्यत: रोग के चार कारणों का उल्लेख यहां किया गया है यानि इसी को रोग के चार प्रकार कह सकते हैं। रोग तो कोई सा भी हो, रोग ही होता है और कष्टदायक भी होता है। कारण भेद से रोग के दो वर्ग किये गये-
(1) शारीरिक और (2) मानसिक ।
इसके बाद सन्निकट कारण की विभिन्नता, अधिष्ठान (स्थान) की विभिन्नता और लक्षणों की विभिन्नता मानी गई है। इन सबके विचार से रोग असंख्य हो जाते हैं। विभिन्न भेद या कारण आपस में संबंध और प्रभाव कर रोगों की संख्या बढ़ाते जाते हैं।
यूं तो आयुर्वेद में इस संबंध में विस्तार से चर्चा की गई है पर संक्षेप में हम यह समझ सकें कि हम बीमार क्यों होते हैं और इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर प्राप्त करने के लिए इतने मुद्दों पर विचार कर लेना काफी होगा । अब प्रत्येक मुद्दे पर शुरू से विचार करना शुरू करते हैं ताकि हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकें कि आखिर हम बीमार क्यों होते हैं।
हम बीमार क्यों होते हैं ? :
योग-अयोग –
अपनी बात हमने काल, अर्थ और कर्म के हीनयोग, मिथ्यायोग तथा अतियोग से शुरू की थी लिहाजा इसी मुद्दे से जरा खुलासा चर्चा शुरू करते हैं। पहले यह समझ लें कि यह योग क्या होता है जिसके काल, अर्थ और कर्म के साथ हीन, मिथ्या और अति होने की बात कही गई है। योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ या जोड़ना, मिलन या संयोग होना। हिसाब-किताब करते हुए आप संख्याओं को जोड़ते हैं, यह योग करना हुआ और जो जोड़ आता है उस संख्या को हम ‘योग-फल’ कहते हैं। किसी दवाई के नुस्खे में, कुछ औषधि-द्रव्यों को मिलाते हैं इसलिए उस नुस्खे को ‘योग’ कहते हैं । यदि योग आयुर्वेद का हुआ तो ‘आयुर्वेदिक योग’ कहते हैं और यूनानी चिकित्सा का हुआ तो उसे ‘यूनानी योग’ (नुस्खा) कहते हैं। योग को ही संयोग कहते हैं। जो योग या संयोग उचित ढंग से, उचित युक्ति और मात्रा के अनुसार सामान्य रूप से होता है उसे सम्यक योग कहते हैं। स्वस्थ रहने और रोगी होने से बचने के लिए सम्यक योग का पालन करना जरूरी होता है। योग के विषय में समझने के बाद काल, अर्थ और कर्म को भी समझ लेना चाहिए।
काल, अर्थ और कर्म –
काल- काल का अर्थ है समय जैसे प्रात:काल, सायंकाल, शीतकाल, ग्रीष्मकाल, अन्तकाल आदि। समय अपनी गति से निरंतर चलता रहता है और बदलता रहता है। इसके बदलने से ही सुबह, शाम, दिन, रात, मास, वर्ष आदि आते-जाते रहते हैं, ऋतुएं आती-जाती रहती हैं। समय को काल कहते हैं इसलिए जहां-जहां समय का उल्लेख करना होता है वहां ‘काल’ शब्द का प्रयोग किया गया है। आयु को जीवनकाल कहते हैं, इसके प्रारंभ को बाल्यकाल, मध्य को युवाकाल और अंत समय को अंतकाल (उर्दू में इंतकाल) कहते हैं । अचानक अल्प आयु में मृत्यु होने को ‘अकाल मृत्यु’ कहते हैं। बीते हुए समय को भूतकाल, मौजूदा समय को वर्तमानकाल और आने वाले समय को भविष्यकाल कहते हैं । काल बहुत बलवान होता है, इसके सामने किसी का बस नहीं चलता। मौत के मामले में भी किसी की नहीं चलती इसीलिए मौत को ‘काल’ भी कहते हैं। परमात्मा सबसे बड़ा, सर्वशक्तिमान और तीनों काल से परे है, कालातीत है अत: उसको ‘महाकाल’ भी कहते हैं । इतने महत्वपूर्ण ‘काल’ से हमारा सम्यक योग बना रहे तभी हम स्वस्थ रह सकते हैं । हीन योग (अयोग), मिथ्या योगया अति योग होगा तो हम बीमार हो जाएंगे।
काल का योगायोग-
काल का योगायोग मनुष्य के द्वारा भी होता है और प्रकृति के द्वारा भी यानि दो प्रकार का होता है, पर मजे की बात देखिए कि प्रकृति द्वारा किये गये योगायोग के पीछे भी मनुष्य का ही हाथ होता है क्योंकि प्रकृति खुद अपनी व्यवस्था नहीं बिगाड़ती। प्राकृतिक व्यवस्था भंग होती है मनुष्य के कारनामों से।
मनुष्य कृत योगायोग-
मनुष्य जब काल यानि समय के अनुसार उचित आहार-विहार और आचरण नहीं करता यानि सम्यक योग न करके हीन योग, मिथ्या योग या अतियोग करता है तो उसके शरीर में विकार पैदा होते हैं, दोष कुपित होते हैं, धातुएं क्षीण एवं दूषित होती है जिसका परिणाम होता है बीमार होना । हर काम, भले ही वह आहार-विहार का हो या आचार-विचार का, ठीक वक्त पर करने से ही शुभ, शोभायमान और सुखद परिणाम वाला होता है। बेवक्त खाने, सोने, उठने आदि जैसे काम करने से ही तो स्वास्थ्य खराब होता है। बेवक्त तो अच्छा काम भी कभी-कभी बहुत बुरा साबित होता है। राम का नाम अच्छा है, राम का नाम सत्य भी है इसलिए ‘राम नाम सत्य है’ कहना कोई गलत या बुरी बात नहीं पर किसी दुल्हन की डोली उठ रही हो और उस वक्त, उस विदा-काल में हम बोलें- राम नाम सत्य है- तो सोचिए कैसा रहेगा?
काल को देखकर, काल के अनुकूल कार्य करना ही बुद्धिमानी होती है। जैसी ऋतु हो उसी ऋतु के अनुसार आचरण और आहार-विहार करना ही ‘समयोगयुक्तास्तु प्रकृति-हेतवो भवन्ति‘ (चरक संहिता) के अनुसार सम्यक योग होने से, आरोग्य प्राप्त होने का कारण होता है । इसी को ऋतु के अनुसार उचित आहार-विहार करना कहते हैं।
प्राकृतिक योगायोग-
काल का प्राकृतिक योगायोग भी होता है। वर्ष में प्रमुख तीन ऋतुएं होती हैं। इन ऋतुओं को भी काल कहा जाता है यथा शीतकाल, ग्रीष्मकाल आदि। शीतकाल में अत्यधिक शीत पड़ना, ग्रीष्म काल में
अत्यधिक गर्मी पड़ना और वर्षाकाल में अत्यधिक वर्षा होना क्रमश: इन ऋतुओं का अतियोग कहा जाएगा। यदि शीतकाल में कम शीत पड़े, ग्रीष्मकाल में कम गर्मी पड़े और वर्षाकाल में कम वर्षा हो तो यह इन ऋतुओं का हीनयोग (अयोग) कहा जाएगा । यदि शीतकाल में कभी तेज ठंड, कभी कम ठंड, कभी बिल्कुल नहीं और कभी गर्मी पड़ने लगे, ग्रीष्मकाल में कभी तेज गर्मी, कभी कम गर्मी, कभी बिल्कुल नहीं, कभी ठंड पडने लगे और वर्षाकाल में कभी तेज वर्षा, कभी कम वर्षा, कभी बिल्कुल नहीं, कभी ठंड तो कभी गर्मी पड़ने लगे तो ये इन ऋतुओं का मिथ्यायोग कहा जाएगा। काल को ही परिणाम भी कहा जाता है क्योंकि भविष्यकाल में, काल ही अच्छे-बुरे कर्मों को, समय आने पर फल के रूप में परिणत करता है अत: काल की पकड़ से बचना असंभव होता है। इस बात को ध्यान में रख कर यदि हम काल का सम्यक योग ही रखेंगे तो ही बीमार होने से बच सकेंगे। यदि शतप्रतिशत रूप से हम ऐसा न भी कर सकें तो भी जितना अधिक से अधिक कर सके उतना तो करना ही चाहिए। जितना और जैसा करेंगे वैसा ही परिणाम होगा यानि कि हमें ही भोगना होगा।
अर्थ-
अर्थ का एक मतलब होता है रुपया पैसा जिससे आर्थिक शब्द बना है यानि रुपया पैसे से संबंधित, लेकिन यहां उसका यह मतलब काम का नहीं, बल्कि इसका दूसरा मतलब काम का है। इसका दूसरा मतलब है विषय (subject) जो जो हमारे विषय होते हैं, उन्हें अर्थ कहा है। अर्थका संबंध हमारी इंद्रियों से है। इंद्रियों से ही सभी विषयों का अनुभव होता है, इंद्रियों से ही विषयों को भोगा जाता है वही, उस उस इंद्रिय का विषय यानि अर्थ होता है। जैसे आंख का विषय देखना, यानि रूप, कान का विषय सुनना यानि शब्द, जीभ का विषय स्वाद लेना यानि रस, नाक का विषय सूंघना या निगन्ध और त्वचा का विषय स्पर्श है।
इंद्रियों का अपने-अपने विषय में यदि हीन योग (अयोग), मिथ्या योग या अतियोग होगा तोहम बीमार हो जाएंगे।
अर्थ का योगायोग-
अर्थ यानि विषयों के योगायोग को समझने के लिए हमें इंद्रियों के विषय में विचार करना होगा। इंद्रियों का अपनेअपने विषय में अतियोग, अयोग (हीनयोग) और मिथ्यायोग होता रहता है जो रोग उत्पन्न होने में कारण होता है।
इंद्रियों का सम्यक योग रहने पर ही स्वस्थ रहा जा सकता है। संक्षेप में इंद्रियों के अतियोग, अयोग और मिथ्या योग के विषय में विवरण प्रस्तुत है।
आंखों का योगायोग-
अधिक तेज रोशनी या चमकीले पदार्थों को देखना, आंखों से अधिक काम लेना और आंखों के विषय ‘रूप’ में सदा आसक्त रहना, घूरना आदि आंखों का अतियोग है। आंखों से रूपों को बिल्कुल न देखना, कम देखना, कम प्रकाश या अंधेरे में देखना या आंखों से काम लेना आंखों का अयोग है। बहुत पास या बहत दूर का देखना और कठोर, भयानक, वीभत्स, घृणित रूपों को और न देखने योग्य दृश्यों को देखना आंखों का मिथ्या योग है।
नाक का योगायोग-
नाक यानि घ्राणेन्द्रिय के साथ अत्यंत तीक्ष्ण, तीव्र, उग्र और भारी गंध का अधिक मात्रा में संयोग होना नाक का अतियोग है। गंध का नासिका से सर्वथा संयोग नहीं होना या कम मात्रा में संयोग होना नाक का अयोग है और दुर्गन्ध, सड़ी-गली वस्तुओं और अपवित्र गंध, विषाक्त वायु की गंध आदि का नासिका के साथ संयोग होना घ्राणेन्द्रिय का मिथ्यायोगहै।
जीभ का योगायोग-
जीभ से रसों का स्वाद अत्यधिक मात्रा में लेना जीभ का अतियोग है। रसों का बिल्कुल स्वाद न लेना या कम लेना जीभ का अयोग है। शरीर और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पदार्थों को सिर्फ इसलिए खाना कि वे स्वादिष्ट होते हैं, जीभ का मिथ्यायोग है।
त्वचा का योगायोग-
अधिक शीतल या अधिक उष्ण स्पर्श वाले जल, वायुया किसी भी वस्तु का अत्यधिक संयोग होना स्पर्शेन्द्रिय का अतियोग है। सर्वथा स्पर्श न होना या कम मात्रा में होना स्पर्शेन्द्रिय का अयोग है और शीतल, उष्ण स्पर्श वाले स्नान, लेप, उबटन आदि का यथाविधि सेवन न कर कृत्रिम, हानिकारक प्रसाधनों का उपयोग करना, अपवित्र वस्तुओं का स्पर्श, संक्रमणकारी दूषित वस्तुओं का संयोग होना त्वचा यानि स्पर्शेन्द्रिय का मिथ्यायोग है।
सभी इंद्रियों में त्वचा ही एक ऐसी इंद्रिय है जो अन्य सभी इंद्रियों में विद्यमान रहती है और स्पर्श की अनुभूति कराती है । शरीर का वायुमंडल और वातावरण से संपर्क एवं शरीर की सुरक्षा भी त्वचा से ही होती है अत: त्वचा एक महत्वपूर्ण इंद्रिय है।
कर्म-
हम मन या शरीर की इंद्रियों से जो भी चेष्टा करते हैं उसे ‘कर्म’ कहते हैं। यह कर्म हमारे जीवन में सर्वोपरि है और अनिवार्य है क्योंकि हम कर्म किये बिना एक मिनिट भी नहीं रह सकते। हमारा मन, हमारा शरीर प्रतिपल कुछ न कुछ करता ही रहता है। यदि हम कुछ भी न करें, फालतू बैठे रहें तो भी यह बैठना भी तो एक कर्म ही होगा। ‘करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥‘ के अनुसार हमारे जीवन में कर्म सर्वोपरि है क्योंकि हम एक पल के लिए भी कर्म से जुदा नहीं होते। कुछ न कुछ करते ही रहते हैं इसलिए कर्म के साथ सात्म्य योग का होना स्वस्थ रहने के लिए जरूरी हो जाता है। हमारे कर्म ही हमें स्वस्थ या अस्वस्थ, सुखी या दु:खी, नीचा या ऊँचा, अच्छा या बुरा बनाते हैं। कर्म का हीन योग (अयोग), मिथ्या योग या अति योग होगा तो हम बीमार हो जाएंगे।
कर्म का योगायोग-
हमारे कर्म केवल शरीर के द्वारा ही नहीं किये जाते बल्कि हमारा मन भी हिस्सेदार रहता है । ‘कर्म वांगमन: शरीर प्रवृत्ति’ के अनुसार वचन, मन और शरीर की प्रवृत्ति (क्रिया) को कर्म कहा गया है। इन तीनों की अति प्रवृत्ति को अति योग कहते हैं और ‘अति सर्वत्र वर्जयेत‘ के अनुसार अति करना ही नहीं चाहिए । यदि हम क्रियाओं को जैसा करना चाहिए वैसा न करके विपरीत ढंग से करेंगे तो यह मिथ्या योग होगा। जैसे शारीरिक क्रियाओं में न रोकने योग्य मल, मूत्र आदि वेगों को रोकना, रोकने योग्य वेगों को न रोकना, अनुचित और अनियमित ढंग से आहार-विहार करना, मादक एवं हानिकारक द्रव्यों का सेवन करना, भोग विलास में अति करना, गलत तरीकों से वीर्य, रुपया, पैसा, समय और शक्ति का नाश करना, देर तक धूप और गर्मी सहना, बहुत देर तक जल में स्नान करना आदि विपरीत यानि उल्टे काम करना शारीरिक मिथ्या योग है।
झूठ बोलना, अप्रिय और कठोर शब्द बोलना, चुगली या निन्दा करना, बेतुकी, बेवक्त की और अनर्गल बातें करना, डींग मारना, घमंड भरे बड़े बोल बोलना आदि वचन यानि वागेन्द्रिय (वाणी) का मिथ्या योग है। क्रोध, ईर्ष्या, भय, शोक, लोभ, मोह, अहंकार आदि के वश में होकर विपरीत आचरण करना और गलत नजर से देखना समझना यानि दूषित भावना रखना मन का मिथ्यायोग है। संक्षेप में, अतियोग और अयोग को छोड़ कर वचन, मन और शरीर से किये जाने वाले सभी अहितकारी और अनुचित कर्म मिथ्या योग के अंतर्गत माने जाएंगे। रही बात, हीनयोगयानि अयोग की तो ‘सर्वशोऽप्रवृत्तिरयोग:’ के अनुसार वचन, मन और शरीर से कामहीन लेनाया पर्याप्त कामन लेना कर्म का हीन योग (अयोग) होता है। इस प्रकार कर्म के मिथ्यायोग और हीनयोग, किसी न किसी रूप में, किसी न किसी शारीरिक या मानस रोग से कभी न कभीग्रस्त कर ही देते हैं। तत्काल ही रोग हो जाए ऐसा जरूरी नहीं, जब भी वह कर्म पकेगा यानि पापका घड़ा भरेगा तब रोग पैदा हो जाएगा। यह समझ लें कि जब भी कोई अशुभ पूर्व कर्म फलित हुआ कि गये बारह के भाव में।
इतना विवरण पढ़ कर आप जान ही चुके होंगे कि शरीर में रोग उत्पन्न क्यों होते हैं ।
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