Last Updated on July 22, 2019 by admin
एक गृहस्थ त्यागी, महात्मा थे। एक बार एक सज्जन दो हजार सोने की मोहरें लेकर उनके पास आए और बोले, ”महाराज, मेरे पिताजी आपके मित्र थे, उन्होंने धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन किया था। मैं उसी में से कुछ मोहरों की थैली लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ, इन्हें स्वीकार कर लीजिए।” यह कहकर वह सज्जन थैली महात्मा के सामने रखकर चले गए।
महात्मा उस समय मौन थे, कुछ बोले नहीं। पीछे से महात्मा ने अपने पुत्र को बुलाकर कहा, “बेटा, मोहरों की यह थैली अमुक सज्जन को वापस दे आओ। उनसे कहना, तुम्हारे पिता के साथ मेरा पारमार्थिक ईश्वर को लेकर प्रेम का संबंध था, सांसारिक विषय को लेकर नहीं।”
यह सुनकर पुत्र बोला, “पिताश्री ! आपका हृदय क्या पत्थर का बना है? आप जानते हैं, अपना परिवार बड़ा है और घर में कोई धन गड़ा नहीं है। बिना माँगे उस भले सज्जन ने मोहरें दी हैं तो इन्हें अपने परिवारवालों पर दया करके ही आपको स्वीकार कर लेना चाहिए।’
महात्मा बोले, “बेटा, क्या तेरी ऐसी इच्छा है कि मेरे परिवार के लोग धन लेकर मौज करें और मैं अपने ईश्वरीय प्रेम को बेचकर बदले में सोने की मोहरें खरीदकर दयालु ईश्वर का अपराधी बनूं? नहीं, मैं ऐसा कदापि नहीं करूंगा।”