Last Updated on July 22, 2019 by admin
💫 तत्त्वदृष्टि से जीव और ईश्वर एक है, फिर भी भिन्नता दिखती है। क्यों ? क्योंकि जब शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ तब अपने स्वरूप को भूलकर जो स्फुरण के साथ एक हो गया, वह जीव हो गया परन्तु स्फुरण होते हुए भी जो अपने स्वरूप को नहीं भूले, अपने को स्फुरण से अलग जानकर अपने स्वभाव में डटे रहे, वे ईश्वर कोटि के हो गये। जैसे, जगदम्बा हैं, श्रीराम हैं, शिवजी हैं।
💫अब प्रश्न उठता है कि स्फुरण के साथ अपने को एक मान लेने वाले कैसे जीता है ? जैसे किसी आदमी ने थोड़ी-सी दारू पी है, लेकिन सजग है और बड़े मजे से बातचीत करता है किन्तु दूसरे ने ज्यादा दारू पी है, वह लड़खड़ाता है। जो खड़ा है, बातचीत कर रहा है, वह तो खानदानी माना जायेगा लेकिन जो लड़खड़ाता है वह शराबी माना जायेगा। लड़ख़ड़ाने वाले को गिरने के भय से बचने के लिए बिना लड़खड़ाने वाले का सहारा चाहिए। इस तरह लड़खड़ाने वाला हो गया पराधीन और जो नहीं लड़खड़ाया है वह हो गया उसका स्वामी।
💫 ऐसे ही शुद्ध चैतन्य में स्फुरण हुआ, उस स्फुरण को जो पचा गये वे ईश्वर कोटि के हो गये। उन्हें निरावरण भी कहते हैं। जो स्फुरण के साथ बढ़ गये, अपने को भूलकर लड़खड़ाने लगे वे जीव हो गये। उन्हें सावरण कहते हैं। जो सावरण हैं वे प्रकृति के आधीन जीते हैं परन्तु निरावरण हैं वे माया को वश में करके जीते हैं।
💫 माया को वश करके जीनेवाले चैतन्य को ईश्वर कहते हैं। अविद्या के वश होकर जीने वाले चैतन्य को जीव कहते हैं क्योंकि उसे जीने की इच्छा हुई और देह को ʹमैंʹ मानने लगा।
💫 ईश्वर का चिन्मयवपु वास्तविक ʹमैंʹ होता है। जहाँ से स्फुरण उठता है वह वास्तविक ʹमैंʹ है ।
💫 जितने भी उच्च कोटि के महापुरुष हो गये, वे भी जन्म लेते हैं तब तो सावरण होते हैं लेकिन स्फुरण का ज्ञान पाकर अपने चिन्मयवपु में ʹमैंʹ पना दृढ़ कर लेते हैं तो निरावरण हो जाते हैं, ईश्वरस्वरूप हो जाते हैं। उन्हें हम ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। ऐसे ब्रह्मस्वरूप महापुरुष हमें युक्ति-प्रयुक्ति से, विधि-विधान से निरावरण होने का उपाय बताते हैं, ज्ञान देते हैं। गुरु के रूप में हम उनकी पूजा करते हैं ।
💫 यदि ईश्वर और गुरु दोनों आकर खड़े हो जायें तो…..
कबीर जी कहते हैं-
*गुरु गोविन्द दोऊ खड़े किसके लागूँ पाय।*
*बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दिया दिखाय।।*
हम पहले गुरु को पूजेंगे, क्योंकि गुरु ने ही हमें अपने निरावरण तत्त्व का ज्ञान दिया है।
*ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिनः।*
ʹईश्वर और गुरु की आकृति दो दिखती हैं, वास्तव में दोनों अलग नहीं हैं।ʹ