Last Updated on September 4, 2019 by admin
खान-पान के बदलते स्वरूप :
सृष्टि के आरंभ से ही भोजन मानव की एक अनिवार्य आवश्यकता रही है। मानव के लिए ही नहीं, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों के संरक्षण-संवर्द्धन के लिए भी भोजन अनिवार्य है। धर्मविहित कर्म-संपादन के लिए शरीर-रक्षा आवश्यक है। हमारे शास्त्रों में वर्णित पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति भी स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं।
प्राचीनकाल में मानव शिलागृहों (गुफाओं) में निवास करते हुए कंदमूल का आहार करते थे। पशु-पक्षियों का मांस भी उनके उदरपोषण का साधन था। वैदिक युग में कृषि की शुरुआत हुई। वैदिक सूक्तों में कृषि तथा अन्न से संबंधित इंद्र, वरुण, अग्नि आदि देवों की प्रार्थना विशद् रूप से वर्णित है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी कृषि एक प्रमुख उद्योग था। कृषि के लिए गोपालन का प्रारंभ भारत से ही हुआ।
भारतीय इतिहास के परवर्तीकाल में खान-पान व्यवस्था का अत्यधिक विकास हुआ।साहित्यिक विवरणों के अतिरिक्त पुरातात्विक अवशेषों से भी यह तथ्य स्पष्ट होता है, जिसमें पाकशालाओं एवं भोजनशालाओं के रोचक चित्रण हैं। शरीर के संवर्द्धन तथा नियमन के लिए मानव विविध रूपों में भोज्य पदार्थों को ग्रहण करता रहा है। समय के साथ-साथ खान-पान संबंधी विचार तथा रुचियों में अनेकानेक परिवर्तन हुए। जंगली कंदमूल, फल एवं षड् रस व्यंजनों से होता हुआ यह परिवर्तन आज डिब्बाबंद खाना व बोतलबंद पेय तक आ पहुंचा है। खान-पान के इस बदलते स्वरूप से हमारे स्वास्थ्य में भी आमूल-चूल परिवर्तन आया है।
सेहत से खेलता रसायनों व कीटनाशकों का जहर :
आज प्रत्येक खाद्यपदार्थ में कीटनाशक एवं दूसरे हानिकारक रसायन पाए जा रहे हैं। डिब्बाबंद भोजन, बोतलबंद पेय यहाँ तक कि रोटी, दाल, चावल एवं सब्जियाँ भी हानिकारक जहर से नहीं बच पा रही हैं। हमारा पूरा खान-पान इतना अधिक जहरीला हो गया है कि हमारे अपने शरीर में भी कीटनाशकों की खासी मात्रा जमा होती जा रही है।
अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक दवाओं के अंधाधुंध प्रयोग के कारण हमारे शरीर में एक अनोखी विष ‘कॉकटेल’ इकट्ठी होती जा रही है। सामान्यतः कीटनाशक दवाओं का छिड़काव उचित रीति से नहीं किया जाता, परिणामस्वरूप अस्सी से नब्बे प्रतिशत कीटनाशक कीटों को मारने की बजाय फसलों पर चिपक जाते हैं या फिर आस-पास की मिट्टी पर इकट्ठे हो जाते हैं। जिस पर से इनको हटाने का कोई प्रयास नहीं किया जाता और ये हमारे शरीर में पहुँच जाते हैं। मांसपेशियों एवं चरबी में यह जहर एकत्रित होता रहता है या फिर खून में मिल जाता है। यह धीमे जहर के रूप में कार्य करता हुआ अनेक बीमारियों को जन्म देता है।
कीटनाशक दवाएँ कैंसर और ट्यूमर को बढ़ावा देती हैं, जबकि कुछ सीधे दिमाग और इससे जूडी तंत्रिकाओं पर प्रहार करती हैं। दौरे पड़ना, दिमाग चकराना और याददाश्त की कमजोरी जैसे लक्षण कीटनाशक दवाओं के कारण हो सकते हैं। कुछ कीटनाशक दवाइयाँ शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी समाप्त कर देती हैं। कुछ हारमोन बनाने वाले ग्रंथियों पर चोट करके शरीर की सारी गतिविधियों में उलट-फेर कर देती हैं।
रिपोर्ट के चौकाने वाले खुलासे :
कीटनाशकों के इतने खतरनाक परिणामों के बाद भी इसका उपयोग बिना किसी अवरोध के व्यापक मात्रा में किया जा रहा है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् द्वारा करवाए गए एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार गाय-भैंस के दूध के लगभग बाईस सौ नमूनों में से ८२% में तथा शिशुओं के डिब्बाबंद आहार के बीस व्यावसायिक ब्रांडों के १८० नमूनों में ७०% में डी.डी.टी. अवशेष रूप में मौजूद था।बोतलबंद पानी में कीटनाशकों की मात्रा स्वीकार्य सीमा से ३५% अधिक थी।
कीटनाशकों और रसायनों के घातक दुष्परिणाम :
☛ रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ गेहूँ और चावल के द्वारा हम प्रतिदिन कोई आधा मिली ग्राम (.5mg)डी.डी.टी. और बी.एच.सी. खा जाते हैं।
☛ सबसे ज्यादा कीटनाशक हम सब्जियों के द्वारा अपने शरीर में पहुँचाते हैं। बैंगन को चमकदार बनाने के लिए कार्बोफ्यूरान में डुबाया जाता है।
☛ गोभी को चमकदार सफेदी देने के लिए मेथिलपैराथियान डाला जाता है।
☛ इसी तरह भिंडी तथा परवल को चमकीलाहरा बनाने के लिए कॉपर सल्फेट और मैलाथियान का इस्तेमाल किया जाता है।
☛ कीटनाशकों के बाद हमारे शरीर को सबसे ज्यादा नुकसान आर्सेनिक, कैडियम, सीसा, ताँबा, जिंक और पारा जैसी धातुओं से है। फलों, सब्जियों, मसालों आदि से लेकर शिशु आहार तक में ये पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय और वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार सब्जियों में सीसे की मात्रा स्वीकार्य सीमा से ७३% ज्यादा पाई गई। रिपोर्ट के अनुसार, सब्जियों को बहुत अच्छी तरह धोने पर भी इनके जहरीलेपन को सिर्फ ५५% तक ही कम किया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं। सीसा की अधिकता गुरदा खराब करने के अलावा उच्च रक्तचाप भी पैदा करती है। इसका सबसे खतरनाक असर बच्चों के मस्तिष्क के विकास पर पड़ता है। सीसायुक्त आहार का सेवन करने से बच्चों की बुद्धि का विकास अवरुद्ध हो जाता है। साथ ही उनकी बुद्धि मंद पड़ने लगती है।
☛ बच्चों की मनपसंद चाकलेट भी खतरे से खाली नहीं है। इसमें मौजद निकिल त्वचा का कैंसर पैदा करता है। यदि डिब्बा प्लास्टिक का है तो यह खतरा और बढ़ जाता है, क्योंकि प्लास्टिक धीरे-धीरे जहरीले रसायन छोड़ता है। प्लास्टिक में मौजूद थेलेट वर्ग के रसायन शरीर के हारमोन संतुलन को तहस-नहस कर देते हैं।
☛ मांसाहार तो शाकाहार से और भी खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है। मांस पर ब्लीचिंग पाउडर लपेट दिया जाता है, ताकि पानी सूखने से मांस का वजन कम न हो जाए। इसी तरह खून के बहाव पर रोक लगाने के लिए कॉपर सल्फेट का इस्तेमाल किया जाता है। मछलियों में चमकदार ताजगी लंबे समय तक बनाए रखने के लिए अमोनियम सल्फेट में डुबाया जाता है। इस प्रकार मांसाहार यों तो खतरनाक है ही। अब तो वह और भी विषयुक्त हो गया है।
☛ कृत्रिम रंगों का शरीर पर दुष्प्रभाव –
खाद्यपदार्थों में विभिन्न रंगों का प्रयोग भी कम खतरनाक नहीं है। आइसक्रीम, लड्डू, जलेबी इन सब में मिलाए जाने वाले कृत्रिम रंगों का शरीर पर अत्यंत दुष्प्रभाव पड़ता है। तरह-तरह के कृत्रिम रंगों के सेवन से गुरदे में विकार पनपने के साथ ही हड्डियाँ भी कमजोर पड़ने लगती हैं।
आँखों की रोशनी भी कम हो सकती है। कई मामलों में कृत्रिम रंगों के लगातार सेवन से पुरुषों में नपुंसकता की भी वृद्धि पाई गई है। इन सभी खतरनाक रंगों का प्रयोग कानूनी तौर पर प्रतिबंधित है। परंतु, सरकार की ओर से कोई कड़ी कार्यवाही न होने के कारण जनसामान्य यह विषपान करने के लिए विवश है।
हमारे शरीर में घुलते-मिलते इस जहर से बचाव का एक ही उपाय है कि हम अपनी प्राचीन भोजन पद्धति को पुन: अपनाएँ। भारत में प्राचीनकाल से ही शुद्ध आहार की कामना की गई है, क्योंकि इससे मनुष्य का सत्व और स्मृति दोनों शुद्ध रहते हैं। प्राणियों के लिए आहार अमृत के समान है, परंतु अमृत का भी अयुक्तिपूर्वक सेवन उसे विष बना देता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम अनियमितअनुचित खान-पान से बचकर ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं।
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